जब मैं यह लिख रहा हूं, कश्मीर घाटी में कर्फ्यू का बयालीसवां दिन है। प्रदर्शनकारियों और नागरिकों की मौत का सरकारी आंकड़ा पैंसठ तक पहुंच गया है। दो सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं; इसमें उन बहादुर जवानों की गिनती नहीं है, जो घुसपैठियों से मुठभेड़ के दौरान मारे गए। राज्य सरकार को जैसे लकवा मार गया है, गठबंधन के घटक बंटे हुए हैं, और मुख्यमंत्री बेचारी मूकदर्शक हैं: आदेश दिल्ली से आ रहे हैं।
कई संपादकीय-लेखकों और स्तंभकारों ने एक वाक्यांश को दोहराया है, जिसका इस्तेमाल मैंने सत्रह अगस्त के एक बयान में किया था- जम्मू-कश्मीर ‘अराजकता की ओर सरक रहा है’। आठ जुलाई को हुई बुरहान वानी की मौत तो इस सरकाव के लिए एक फौरी उत्प्रेरक मात्र थी; इसके बीज महीनों पहले बोए गए थे।
नतीजे की दुर्व्याख्या
वर्ष 2014 में हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे इस प्रकार आए:
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी 28
भारतीय जनता पार्टी 25
नेशनल कॉन्फ्रेंस 15
कांग्रेस 12
अन्य 07
कुल 87
नतीजों की व्याख्या इस प्रकार की गई कि मतदाता चाहते हैं कि पीडीपी और भाजपा मिल कर काम करें और सरकार बनाएं। यह एकदम गलत व्याख्या थी। मतदाता चाहते थे कि पीडीपी या भाजपा को सरकार बनानी चाहिए, और दूसरी पार्टी विपक्ष में बैठे। पीडीपी, कांग्रेस से हाथ मिला सकती थी (दोनों पार्टियों ने पहले ऐसा किया था), या भाजपा, नेशनल कॉन्फ्रेंस से एक बार फिर गठजोड़ कर सकती थी (उमर अब्दुल्ला वाजपेयी सरकार में मंत्री थे)। लगता है दोनों में से किसी भी विकल्प पर गंभीरता से नहीं सोचा गया। लिहाजा, पीडीपी-भाजपा गठबंधन एक दोषपूर्ण विकल्प था।
मुद्दों में घालमेल
पिछले छह हफ्तों में तीन मुद्दे बुरी तरह उलझा दिए गए और विवेकपूर्ण विमर्श दरकिनार कर दिया गया:
* कि भारत को अपनी सरहद की रक्षा जरूर करनी चाहिए, पूरी ताकत से- और वह ऐसा जरूर करेगा- और भारतीय सुरक्षा बल घुसपैठियों को ढेर कर देंगे या खदेड़ देंगे;
* कि भारत अपने आंतरिक मामलों में पाकिस्तान को न तो दखलंदाजी करने की इजाजत देगा और न ही कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की;
* कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार का यह दायित्व है कि वे जम्मू-कश्मीर के लोगों द्वारा उठाए गए मसलों (जिनमें विस्थापित कश्मीरी पंडितों का मसला भी शामिल है) का हल मेल-मिलाप, बहस और वार्ताओं के जरिए तलाशें।
हम उन बहादुर जवानों को नमन करते हैं, जिन्होंने भारत की भौगोलिक अखंडता की रक्षा करते हुए सर्वोच्च कुर्बानी दी। जो बात बहस का विषय है वह यह कि क्या सेना को और अधिक जिम्मेदारी यानी राज्य के भीतर कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाने के लिए कहा जाना चाहिए। इसी तरह एक और महत्त्वपूर्ण बहस है, जिसे रोका नहीं जा सकता: कश्मीर मसले का राजनीतिक समाधान क्या है, जबकि हजारों युवा स्त्री-पुरुष, जिसे वे नाइंसाफी समझते हैं उसका विरोध करने की खातिर सड़कों पर उतर आए हों?
केंद्र सरकार और भाजपा ने इन मुद्दों पर बहस का गला घोंटना चाहा है, जिसकी तरकीब है तीखी अति-राष्ट्रवादी दलीलें, विरोध प्रदर्शन करने वालों की उग्रवादियों से तुलना, ‘बच्चों’ से पालनकर्ता के अंदाज में अपीलें, और जो भी भिन्न नजरिया रखता हो उसे गालियां और धमकियां देना। पीडीपी सोच-समझ कर इस सब पर चुप्पी साधे रही है। पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री एक तीसरा मुद््दा ले आए- दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में टांग अड़ाना- जिससे बात और बिगड़ेगी ही। बलूचिस्तान मुद््दे के दो पहलू हैं: उस प्रांत में विरोध-आंदोलन और मानवाधिकारों का उल्लंघन। दोनों पहलुओं पर भारत का रुख स्पष्ट रहा है: विरोध-आंदोलन पाकिस्तान का अंदरूनी मामला है; भारत की इसमें कोई भूमिका नहीं है। जहां तक मानवाधिकारों का प्रश्न है, भारत इनके उल्लंघन का मुद््दा उपयुक्त मंचों पर उठाएगा। यही वाजपेयी सरकार की नीति थी और यही मनमोहन सिंह सरकार की भी।
नया अध्याय?
चली आ रही नीति पिछले हफ्ते बदल दी गई। बारह अगस्त को हुई बैठक और स्वाधीनता दिवस के अपने उद्बोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने नई नीति का एलान किया, कि अगर भारत को पाकिस्तान में मानवाधिकारों के उल्लंघन का पता चलता है, तो पाकिस्तान के मामलों में दखल देने का उसका अधिकार सुरक्षित है। कुछ भाजपा नेताओं के मुताबिक, मोदी ने एक नए अध्याय की शुरुआत की है!
क्या उन्होंने ऐसा किया है? बेशक, मोदी ने बहुत सोच-समझ कर मौके का चुनाव किया, जब ज्यादा से ज्यादा लोग उन्हें देख-सुन रहे हों। मुझे संदेह है कि प्रधानमंत्री ने अपने कथन के परिणाम का बहुत विचार किया होगा। सावधानी से गढ़ी गई और काफी सोच-समझ कर अपनाई गई उदासीन रहने की नीति को तिलांजलि दे दी गई। बलूचिस्तान में होने वाले विरोध-प्रदर्शनों के पीछे भारत की कोई भूमिका थी, या है, इसे कभी जाना नहीं जा सकेगा, क्योंकि भारत इससे हमेशा इनकार करता आया है; पर अब वह ‘इनकार का आवरण’ नहीं रहा। वास्तव में पाकिस्तान को भारत के आंतरिक मामलों में टांग अड़ाने का न्योता दे दिया गया है, इस बिना पर कि भारत में मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है- दलितों पर अत्याचार, मुसलमानों को और उनकी खाद्य स्वतंत्रता को खतरा, स्त्री विरोधी हिंसा, बाल विवाह आदि।
भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के 16 जुलाई, 2009 के साझा बयान में बलूचिस्तान का जिक्र भर आने से भाजपा आगबबूला हो गई थी और उसने डॉ मनमोहन सिंह पर विष-बुझे हमले किए थे। नमूना देखें: ‘सातों समुद्रों का पानी भी इस कलंक को धो नहीं सकता।’ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को 26 मई, 2014 के शपथ-ग्रहण समारोह में बुलाने से लेकर बलूचिस्तान में असंतोष पर अब पाकिस्तान को चेतावनी देने से जाहिर है कि भारत की पाकिस्तान नीति एकदम पलट गई है और इसने ऐसी कलाबाजियां दिखाई हैं, जो जिमनास्टिक के ओलंपिक मुकाबले में पदक के काबिल हैं। विवेक के कुछ स्वर संपादकीय टिप्पणियों और स्तंभों के जरिए उठे हैं। हमारे पिछवाड़े कश्मीर जल रहा है। हमें इस आग को बुझाने पर लगना चाहिए, बजाय इसके कि हम पड़ोसी के पिछवाड़े लगी आग पर खुशी मनाएं।