मैं आश्वस्त हूं कि गृहमंत्री के यह कहने के पीछे सद्भावना ही रही होगी कि उन्हें उम्मीद है कि कश्मीर घाटी में जल्दी ही स्थिति सामान्य हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ, और होने के कोई लक्षण भी फिलहाल नहीं दिख रहे हैं। गृह सचिव सुरक्षा बलों को समर्थन का संदेश दे रहे थे, जब उन्होंने कहा कि स्थिति सुधर रही है। पर ऐसा नहीं है, और सुधरने के कोई संकेत भी अभी नजर नहीं आ रहे हैं।उत्तरी कमान के कमांडर ने आगे की राह की ओर इशारा किया, जब उन्होंने कहा कि सरकार को सभी पक्षों से बात करनी चाहिए, पर यह सबको मालूम है कि सरकार ‘हितधारकों’ या ‘संबद्ध पक्षों’ की अपनी परिभाषा में अलगाववादियों (गिलानी और अन्य) को शामिल नहीं करती।गुलाम नबी आजाद ने सरकार के लिए पर्याप्त गुंजाइश पैदा की थी, यह कह कर कि हितधारक कौन हैं यह बताना सरकार का काम है, पर यह बिल्कुल साफ है कि सरकार को ऐसे समर्थन की दरकार नहीं है जो हितधारक के दायरे को बड़ा करता हो।
स्थिति में विकट बदलाव
जम्मू-कश्मीर गए किसी सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का इतना फीका स्वागत शायद ही पहले कभी हुआ हो। इस बार प्रतिनिधिमंडल में साझेदार पार्टियों की स्थानीय इकाइयों के अलावा और कोई मिलने के लिए नहीं आया। न तो उद्योग-व्यापार समूह, न गैर-सरकारी संगठन, न विद्यार्थी संगठन, न श्रमिक या कर्मचारी संघ, न वकीलों या डॉक्टरों जैसे पेशेवरों के संघ, न प्रतिष्ठित नागरिक- असल में कोई भी प्रतिनिधिमंडल से मिलना नहीं चाहता था। यह वर्ष 2010 के बरक्स एकदम विपरीत स्थिति थी, क्योंकि उस समय बड़ी तादाद में लोग और संगठन सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से मिलने आए थे।साफ तौर पर, 2010 के मुकाबले 2016 में बहुत कुछ बदल गया है। वास्तव में, 2015 और 2016 के बीच स्थिति में विकट बदलाव आया है। सामान्य स्थिति की बहाली जो 2010 में हुई थी वह 2014 तक बनी रही और केंद्र में राजग सरकार आने के बाद भी जारी रही। यह 1 मार्च 2015 तक जारी रही, जब जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद की अगुआई में पीडीपी और भाजपा की साझा सरकार बनी। नई सरकार से ढेर सारी उम्मीदें थीं, पर गंभीर आशंकाएं भी थीं।
कश्मीर घाटी में 8 जुलाई 2016 से हालात कितनी तेजी से बिगड़ते गए, इसके बारे में काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है। हालात क्यों इतनी तेजी से बिगड़े, यह बहस का विषय है। फिलहाल मैं बहस को छोड़ कर संभावित समाधानों की बात करूंगा।
पुरानी लीक का दोहराव
एक संभावित समाधान पहले के ही तौर-तरीके को जारी रखना है: आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी सेना और सीआरपीएफ पर हो, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) जारी रहे, घाटी में सैनिकों की तैनाती बढ़ाई जाए, कर्फ्यू लगाया जाए, अलगाववादी नेताओं को दूर रखा जाए और जरूरी लगे तो उन्हें नजरबंद कर दिया जाए, आंदोलन के ‘नेताओं’ को गिरफ्तार कर लिया जाए, विरोध को बलप्रयोग से दबा दिया जाए, और पाकिस्तान पर यह दोष मढ़ा जाए कि वह घाटी में विरोध भड़का रहा है। संक्षेप में, वही नुस्खा (जिसने अब तक काम नहीं किया है) जारी रखा जाए, इस उम्मीद में कि उचित समय आने पर यह बीमारी को रोक देगा और उसे ठीक भी कर देगा।दूसरा संभावित समाधान यह है कि वैकल्पिक दवा की तलाश की जाए। एलोपैथी एक महान चिकित्सा प्रणाली है, पर इलाज की कई दूसरी पद्धतियों को भी व्यापक स्वीकार्यता हासिल है। इसी तर्ज पर, जम्मू-कश्मीर की स्थिति की बाबत वैकल्पिक रास्ता क्यों नहीं आजमाया जा सकता? किसी को उकसाने की मेरी कतई मंशा नहीं है। न तो पहले की सरकारों और न मौजूदा सरकार के इरादों को मैं चुनौती दे रहा हूं। मैं यह मान कर चलता हूं कि हर कोई संजीदगी से टिकाऊ समाधान के लिए इच्छुक है। अगर मैं वास्तव में उकसा रहा हूं, तो यह उकसावा एक रचनात्मक बहस के लिए है।
वैकल्पिक रास्ता
अफस्पा से शुरू करें: मेरे दो सुझाव हैं। पहला, अफस्पा को रद््द करने की घोषणा की जाए, और सशस्त्र बलों को आश्वस्त किया जाए कि इसकी जगह एक अधिक मानवीय कानून लाया जाएगा (कोई शून्यता की स्थिति नहीं रहेगी), और एक समूह को नियुक्त किया जाए जो जल्दी से नए कानून का मसविदा तैयार करे। दूसरा, प्रायोगिक तौर पर कुछ चुनिंदा क्षेत्रों से अफस्पा हटा लिया जाए।
तैनाती: घाटी में और सैनिकों को भेजने के बजाय वहां के रिहाइशी क्षेत्रों से कुछ यूनिटों को हटा कर उन्हें सरहद पर भेजा जाए, जिससे घुसपैठियों व संभावित आतंकवादियों के खिलाफ रक्षा-व्यवस्था और मजबूत हो। यह संदेश दिया जाना चाहिए कि सरकार लोगों पर भरोसा करती है कि वे कानून-व्यवस्था का उल्लंघन नहीं करेंगे।
शासन-प्रशासन: वर्ष 2010 में नियुक्त किए गए वार्ताकारों की रिपोर्ट को हासिल करें। उसमें ऐसे कई सुझाव व प्रस्ताव हैं जिन्हें लागू करने पर किसी तरफ से कोई विरोध नहीं होगा। उन्हें चिह्नित करें और उनका क्रियान्वयन आरंभ करें।
उत्तरी कमान के कमांडर के रुख को दोहराएं: वार्ताकारों का एक छोटा समूह नियुक्त करें जो सभी संबद्ध पक्षों से आगे बातचीत की शुरुआत करे। इसमें वक्त लगेगा और धैर्य तथा समझाने-बुझाने की क्षमता की जरूरत होगी। लेकिन आखिरकार वार्ताकारों से मिलने के लिए हितधारकों के विभिन्न समूह आगे आएंगे। कानूनों की समीक्षा: कई कानूनों के दायरे में जम्मू-कश्मीर को भी ला दिया गया। इस विस्तार को राज्य के अधिकतर लोग अवांछित तथा विलय के दस्तावेज और अनुच्छेद 370 का उल्लंघन मानते हैं। लिहाजा, क्यों न राज्य विधानसभा से कहा जाए कि वह ऐसे कानूनों की समग्र समीक्षा करे और उन विषयों पर कानून बनाए जिनकी बाबत उसे लगता है कि राज्य के कानून पर्याप्त होंगे? कोई हर्ज नहीं होगा अगर राज्य विधानसभा ऐसे कानूनों की जगह अपने कानून बनाए। मसलन, अधिवक्ता कल्याण कोष अधिनियम, अपार्टमेंट स्वामित्व अधिनियम, आयुर्वेद एवं यूनानी चिकित्सक अधिनियम, वकाफ्स अधिनियम, जलापूर्ति अधिनियम, आदि। ऐसे कानूनों में से ज्यादातर राज्य विधानसभा द्वारा बदले जा सकते हैं। कानून-निर्माण के विषय में राज्य की स्वायत्तता को लेकर हमारा भय काफी-कुछ अतिरंजित है।
ईमानदारी से अपनाएं तो वैकल्पिक उपाय वैकल्पिक दवा की तरह काम कर सकता है। अगर कुछ न हो तब भी, इससे कम से कम इतना तो होगा कि सरकारों (केंद्र व राज्य) तथा लोगों के बीच मौजूदा- और तेजी से बढ़ती हुई- अविश्वास की खाई को पाटने में मदद मिलेगी।