बिहार चुनाव के बाद, विकास के एजेंडे पर लौटने की बातें हो रही हैं। अगर सरकार और संसद की ऊर्जा विकास के ठोस एजेंडे को लागू करने की दिशा में लग सके, तो मुझे सबसे ज्यादा खुशी होगी। विकास के अनेक मॉडल हैं। बाजार-अर्थव्यवस्था का एक पूंजीवादी नजरिया है, जो वद्धि पर जोर देता है, खासकर जीडीपी की वृद्धि पर। यह वृद्धि सकल राष्ट्रीय उत्पादन और प्रतिव्यक्ति आय के स्तर को उठाती है। यह वृद्धि लेकिन आय और संपत्ति की विषमता को भी बढ़ा सकती है- और अक्सर बढ़ाती है।

बाजार-अर्थव्यवस्था का दूसरा दौर
बाजार-अर्थव्यवस्था को लेकर एक बेहतर नजरिया भी अपनाया जा सकता है। ऊंची वृद्धि दर जरूरी है, पर केवल इसी से गरीबी, वंचना, अवसरों की कमी और भेदभाव जैसी पुरानी समस्याओं से नहीं निपटा जा सकता। वृद्धि-अभिमुखी नीतियों के साथ-साथ ऐसे कदम उठाना भी जरूरी है, जो समावेशी विकास, समूची आबादी की न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित कर सकें।

विकास के दूसरे मॉडल भी हैं। हर मॉडल ‘सुधार’ पर जोर देता है। सुधार यानी क्या? समय और संदर्भ के हिसाब से सुधार के अलग-अलग अर्थ लिए जाते हैं। कुछ लोग तो यह तक चाहते हैं कि सरकार धार्मिक प्रथाओं, सामाजिक मान्यताओं और लोगों के चाल-चलन में सुधार लाने की कोशिश करे। (सिंगापुर के ली क्वान यू ने चुइंगम पर पाबंदी लगा दी थी और सलाह दी कि इसके बजाय लोग केले का स्वाद लें)

विकास के संदर्भ में सुधार का आशय है मुख्य रूप से आर्थिक सुधार, सार्वजनिक सेवाओं की संतोषप्रद उपलब्धता और कानून, जन-जागरूकता अभियान तथा समझाने-बुझाने के जरिए इंसानी व्यवहार में बदलाव। मेरी राय में, सही मायने में आर्थिक सुधार वह है जो अतीत से साफतौर पर हमारा पिंड छुड़ा देता है, पुरानी व्यवस्था की जगह नई व्यवस्था लाता है, एक ऐसे मॉडल या नए रास्ते पर ले जाता है, जिससे उत्पादन और दक्षता में इजाफा होता और वितरण में न्याय की गुंजाइश बढ़ती है। इस लिहाज से, मुझे शंका है कि सरकार के अधिकतर कदम सुधार की कसौटी पर खरे उतर पाएंगे। अधिक से अधिक वे मौजूदा मॉडल या मौजूदा तरीके की उपयोगिता या दक्षता धीरे-धीरे बढ़ा सकते हैं, पर वह सुधार नहीं है।

1991 के बाद हुएसुधार
आर्थिक सुधार का आधुनिक युग 1991 में आरंभ हुआ। मैं यहां कई ऐसी पहल का जिक्र करना चाहता हूं, जिन्हें सही मायने में सुधार कहा जा सकता है:

1. विदेश व्यापार की नई नीति, जिसकी शुरुआत करते हुए जुलाई 1991 से मार्च 1992 के बीच कई कदम उठाए गए थे। हमने आयात और निर्यात से संबंधित तमाम निषेधों, बेकार के निर्देशों, शंकाओं और अस्पष्टताओं की विदाई कर दी। हमने आयात और निर्यात को नियंत्रित करने वाला दफ्तर बंद कर दिया। हमने वस्तुओं के मुक्त आयात-निर्यात की घोषणा की। बेशक इसे नीतिगत रूप देने में कई साल लगे (और इसमें अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है)।

2. औद्योगिक लाइसेंस का खात्मा हुआ- जिसने उद्योगों को क्षमता, तकनीक और कीमत पर नियंत्रण से मुक्ति दिला दी- और प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन मिला। (क्या आपको मालूम है कि एक समय वह था जब कोई कंपनी इजाजत की सीमा से एक भी साइकिल अधिक बना दे, तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता था?)
3. निश्चित विनिमय दर से हटने और बाजार द्वारा निर्धारित विनिमय दर की तरफ बढ़ने की शुरुआत जुलाई 1991 में हुई। फिर, जल्दी ही ‘फेरा’ कानून रद््द किया गया और ‘फेमा’ कानून ने उसकी जगह ली, जो ‘नियंत्रण’ से ‘नियमन’ की तरफ बढ़ने का संकेत था।
4. भारत के पूंजी बाजार ने सच में आकार लिया। हमने कैपिटल इश्यूज के नियंत्रक का कार्यालय बंद कर दिया और सेबी (भारतीय प्रतिभूति विनिमय बोर्ड) का गठन किया। शेयर बाजार में जान आई।

5. एकाधिकार एवं प्रतिबंधक व्यापार व्यवहार अधिनियम (एमआरटीपी एक्ट) के प्रमुख प्रावधान रद्द कर दिए गए। फिर, प्रतिस्पर्धा आयोग अधिनियम, 2002 लागू हुआ। हमने व्यापार के बड़े पैमाने और बड़े आकार को प्रोत्साहित किया, साथ ही प्रतिस्पर्धा पर पानी फेरने वाले करारों और व्यापारिक प्रमुखता के दुरुपयोग को रोकने का कानून भी बनाया।

6. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, दोनों तरह के करों की दरें घटाई गर्इं। इसकी शुरुआत 1992 में हुई, पर इस पहल को निर्णायक बढ़त फरवरी 1997 के बजट से मिली। व्यक्तिगत आय कर की दस फीसद, बीस फीसद और तीस फीसद की दरों को अब पहले जैसा नहीं बनाया जा सकता। (आपको मालूम है कि एक वक्त था जब व्यक्तिगत आय कर की अंतिम हद 97.5 फीसद थी?)
7. सरकार और रिजर्व बैंक के बीच 1997 में सहमति बनी कि अस्थायी ट्रेजरी बिल समाप्त कर दिए जाएंगे और राजकोषीय घाटे का स्वत: मुद्रीकरण होगा। फिर सरकार के सामने इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि वह बाजार के लिए निर्धारित ब्याज दर पर ही उधार ले। नतीजतन, राजकोषीय घाटे पर काबू पाना सरकार की प्राथमिकता हो गई।

8. सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश की शुरुआत हुई। इससे उन्हें अपनी सही कीमत का अंदाजा हुआ और पता चला कि शेयरधारकों के प्रति जवाबदेही क्या होती है। इसने कारोबारी कामों से सरकार के निकल जाने (1999-2004) का रास्ता भी साफ किया। व्यापार करना इसका काम नहीं है।

9. सार्वजनिक परियोजनाओं में निजी संसाधनों को जोड़ने के मकसद से पीपीपी मॉडल को अपनाया गया। इसके मिश्रित नतीजे आए, पर इस मॉडल को थोड़े-बहुत फेरबदल से अधिक कामयाब बनाया जा सकता है। 10. दूरसंचार के क्षेत्र में सरकारी एकाधिकार को समाप्त किया गया, जिसने इस क्षेत्र में क्रांति ला दी।

11. ‘आधार’ और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांरण (नकद सबसिडी) की शुरुआत हुई। आरंभ धीमा रहा, एक समय तेजी आई, फिर रुकावट, और अब दोबारा शुरुआत हुई है। इससे सबसिडी का स्वरूप एकदम बदल जाएगा। फिर यह संभव होगा कि एकदम जरूरी सबसिडी ही दी जाए, सिर्फ उन लोगों को, जो इसके लाभार्थी होने के वास्तविक हकदार हैं।

आसान लक्ष्य
अगर सरकार आर्थिक सुधारों को लेकर संजीदा है तो उसे ऊपर दी गई सूची से बराबरी कर सकने वाले कदम उठाने चाहिए। निर्मल भारत अभियान को स्वच्छ भारत अभियान के नए नाम से और ज्यादा जोर-शोर से शुरू किया गया है, जिसका मकसद है शौचालयों का निर्माण और इंसानी व्यवहार में बदलाव। गरीबों को बैंकिंग सेवाएं आसानी से मुहैया हों, इस मकसद से चली ‘वित्तीय समावेशन’ योजना का नाम अब ‘जन धन योजना’ है। दोनों में से कोई भी आर्थिक सुधार का कदम नहीं कहा जा सकता। आर्थिक सुधार के कई मुकाम ऐसे हैं जिन तक जल्दी ही पहुंचा जा सकता है: वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) और वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) की सिफारिशें। सुलह-समझौते और समायोजन के जरिए उन विधेयकों को पारित कराना ही सही मायने में आर्थिक सुधार के कदम माने जाएंगे।