हाल में एक विश्वविद्यालय ने मुझे एक कवि की दृष्टि से हिंदू धर्म पर विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित किया। मैंने संकोच किया, पर आग्रह इतना प्रबल था कि मानना पड़ गया। कवि की नजर में बहुत सारी चीजें रहती हैं- दुनिया, सच्चाई, सामाजिक-निजी-आधिभौतिक सरोकार, प्रकृति, आत्म, मानवीय संबंध आदि। धर्म उनमें से एक हो सकता है, अपनी प्रबल सामाजिक उपस्थिति के कारण भी। पर वह केंद्रीय नहीं है, कम से कम मेरे प्रसंग में। मैं एक हिंदू परिवार में पला-बढ़ा हूं, पर मुझे अपनी मानवीय अस्मिता से अलग किसी हिंदू अस्मिता का कोई बोध नहीं रहा है। जब कभी धर्म को लेकर संकीर्णता, हिंसा, दुर्व्याख्याएं आदि होती हैं, तो अपने हिंदू होने का बेचैन बोध जागता है!

अव्वल तो हिंदू धर्म उस अर्थ में धर्म नहीं है जिस अर्थ में इस्लाम या ईसाइयत। यह सैकड़ों बार कहा जा चुका और आज भी सच है कि वह धर्म से अधिक एक जीवनशैली है, जिसमें आस्था, पूजा-उपासना, प्रार्थना आदि की अपार विविधता है। अनेक मानवीय संबंध उत्तर भारत के हिंदू समाज में वर्जित हैं, दक्षिण भारत में संभव और प्रचलित हैं। किसी एक देवता, पूजास्थल, पवित्र पुस्तक, पद्धति में आस्था जरूरी नहीं है। लेकिन दूसरी ओर उसमें एक विश्वदृष्टि अंतर्भूत है और इस दृष्टि का रूपायन मुख्य रूप से कविता द्वारा ही हुआ है। वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि सभी काव्य हैं। दूसरे शब्दों में, हिंदू धर्म स्थापित ही कविता के माध्यम से हुआ है और उसकी सबसे टिकाऊ अभिव्यक्ति कविता में ही हुई है।

मुझे लगता है कि हिंदू धर्म के कुछ बीज प्रत्यय हैं: लीला, प्रकृति की पवित्रता, योग, काम, कर्म, ऋत, अवतार, शास्त्रार्थ, बहुलता। इनकी विशद व्याख्या यहां संभव नहीं। दो-चार बातें भर कही जा सकती हैं। संसार और ईश्वर तक से हमारा संबंध लीला का है: सृष्टि ब्रह्म की लीला से उपजी है। हमारे यहां अवतार होते रहे हैं और अगर उन्होंने नीति से विचलित होकर कुछ किया, तो उन्हें दंड भी मिलता रहा है। कई देवता जैसे ब्रह्मा और इंद्र बाकायदा दंडित हुए हैं। किसी भी विचार को तब तक मान्यता नहीं मिलती थी, जब तक वह खुले शास्त्रार्थ में अपने को सिद्ध या प्रमाणित न कर ले।

संदेहशीलता वैदिक काल से रही है: ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त में ऋषि यह जिज्ञासा करता है कि जब कुछ नहीं था, जब उपस्थिति और अनुपस्थिति दोनों नहीं थे, न अंधेरा था न उजाला, तब क्या रहा होगा? पहले सुझाता है कि उसे पता होगा, जिसने इस समस्त ब्रह्मांड को रचा है और फिर कहता है कि शायद उसे भी पता न हो! दर्शन, साहित्य, भाषाचिंतन, अध्यात्म आदि अनेक क्षेत्रों में हिंदू बुद्धि ने हमेशा वाद-विवाद-संवाद किया है: असहमति और भिन्नता की जगह और आदर रहे हैं! वेदों से लेकर आज तक हिंदू बुद्धि बहुलता में भरोसा करती आई है: उसमें 4 वेद, 18 उपनिषद्, षड्दर्शन, दो महाकाव्य, 4 पुरुषार्थ, 33 कोटि देवता रहे हैं। संस्कृत, प्राकृत, पाली के अलावा लगभग अधिकांश भारतीय भाषाएं इसी धार्मिक व्यवस्था में उपजीं और विकसित हुई हैं। यह बहुलता अनूठी तो है ही: यह जीवनदृष्टि इसी बहुलता को पोस कर जीवित रही आई है।

हिंदू व्यवस्था की कुछ उक्तियां चारित्रिक हैं: अहं ब्रह्मास्मि, वसुधैव कुटुम्बकम्, तमसो मा ज्योर्तिगमय, एकोहम् बहुस्याम्, एक सद् विप्रा: बहुधा वदंति, अपारे काव्यसंसारे कवि: एको प्रजापति:। व्यवहार में भले इन उक्तियों का अनुसरण न होता हो, वे एक दृष्टि का हिस्सा बनी रही हैं।

कुछ प्रसंग भी रोचक हैं: महाकवि व्यास ने ‘महाभारत गणेश देवता को बोल कर लिखाया था; कृष्ण के कथित अन्याय से क्रुद्ध गांधारी उन्हें एक शिकारी के साथ मारे जाने का शाप देती है, जो फलीभूत होता है; ‘उत्तररामचरित’ में सीता को बाल्मीकि आश्रम में छोड़ते हुए राम का हाथ कांपता है, तो राम कहते हैं कि तू शम्बूक जैसे निरपराध का वध करते हुए नहीं कांपा तो अब क्यों कांप रहा है; दक्षिण में उडुपिकृष्ण के मंदिर में प्रतिमा उलटी है, क्योंकि पुजारियों ने एक दलित भक्त को सामने से प्रार्थना करने और मंदिर प्रवेश की अनुमति नहीं दी थी और वह दलित पीछे चला गया था। तो स्थापित प्रतिमा उसकी ओर मुड़ गई थी; ओड़िया भक्त कवि साल बेग के अनुरोध पर जगन्नाथ का रथ धंस गया था और तब तक धंसा रहा जब तक कि साल बेग बनारस के तीर्थाटन से वापस नहीं आ गए; राम को एक वनवासी स्त्री शबरी अपने जूठे बेर खिलाती है, जिसे वे प्रेमपूर्वक खाते हैं आदि।

जातिव्यवस्था, उसमें निहित हिंसा, संकीर्णता, दुर्व्याख्याओं में फंसे हिंदू धर्म को कर्मकांड और आक्रामकता से ऊपर उठ कर अपने सही अध्यात्म को पुनरायत्त करना चाहिए। उसका दूसरे धर्मों से संवाद बंद-सा है, उसे फिर खोलना चाहिए। उसे स्वतंत्रता-समानता-न्याय की मूल्यत्रयी को अपनी बहुल परंपरा में खोज कर पुनस्स्थापित करना चाहिए। सामाजिक सुधार का एक बड़ा आंदोलन चलाना चाहिए। खासकर, उत्तर भारत में। हिंदू धर्म में सब कुछ सदियों पहले होकर वहीं विजड़ित नहीं रह गया: उसे अपना पुनराविष्कार कर सकना चाहिए। औपनिवेशिक मानसिकता ने जिस तरह के पूर्वग्रहों में फंसाया उनसे सजग होकर मुक्त होना चाहिए। शुद्धता, खानपान पर नियंत्रण-प्रतिबंध आदि के विपथगामी विचारों से अलग अपनी बुनियादी आत्मप्रश्नता पर लौटना चाहिए। अपनी कविता, शृंगार और लीलाभाव पर वापस जाना चाहिए।

मुद्दे की बात:

राष्ट्रपति महोदय ने हाल ही में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में पुरस्कार लौटाने वालों को सलाह दी है कि उन्हें अपने पुरस्कार या सम्मान को संजो कर रखना, अहमियत देना चाहिए। शायद ही ऐसा कोई पुरस्कृत लेखक या कलाकार होगा, जो ऐसा न करता हो। राष्ट्रपतिजी ने यह भी कहा कि मुद्दे को बहस के जरिए सुलझाना चाहिए। अव्वल तो राष्ट्रपतिजी ने स्वयं असहिष्णुता को लेकर तीन बार सार्वजनिक वक्तव्य दिए और उन पर सरकार ने

कुछ कारगर किया हो इसका कोई सार्वजनिक प्रमाण सामने नहीं आया है। दूसरे, जब सरकार, सत्तारूढ़ दल और उसके प्रवक्ता लगातार असहिष्णुता बढ़ने से इनकार करते, विरोध में खड़े लेखकों आदि का चरित्रहनन, सार्वजनिक अपमान या उपेक्षा कर रहे हों तो बहस की गुंजाइश और जगह कहां? एक लेखक की दिनदहाड़े हत्या पर साहित्य अकादेमी एक शोकसभा तक नहीं करती; संस्कृति मंत्री उसकी निंदा में एक शब्द नहीं कहते, तो बहस किससे की जाए? अब अमेरिका में विदेश राज्यमंत्री लेखकों पर पैसे लेकर विरोध और उसे बिहार चुनाव से जोड़ने का आरोप लगाते हैं, तो किससे बात की जाए?

ऐसा लगता है कि वर्तमान व्यवस्था इस विरोध के सिलसिले में लेखकों और उनके साथ देने वालों के साथ अपमानजनक व्यवहार कर रही है। चुप्पी, अपमान और इनकार से मुद्दे को बट्टेखाते में नहीं डाले जा सकते। स्वत:स्फूर्त विरोध का किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध या संवाद नहीं रहा है। उसे इस अर्थ में राजनीतिक जरूर कहा जा सकता है कि सभी दलों, सरकारों, धर्मों और सामाजिक व्यवस्थाओं से यह आग्रह किया जा रहा है कि संवैधानिक मूल्यों और आत्मा की रक्षा, स्वतंत्रता-न्याय-समता से प्रतिबद्धता, सामाजिक सामंजस्य, असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की निरंतरता को लोकजीवन और व्यवहार में केंद्रीयता मिलनी चाहिए। घृणा, बदले, हिंसा, हत्या, अन्याय की प्रवृत्तियां

राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आध्यात्मिक परंपराओं के लिए भी खतरा हैं। पुरस्कार-वापसी ने यह मुद्दा जेरे-बहस ला दिया: बहस चलेगी और संघर्ष भी। अंत:करण की नीति की वापसी भी शायद हो सके!