पत्रकारिता का पहला नियम है निष्पक्षता। इस नियम की अहमियत ज्यादा है उन पत्रकारों के लिए, जो राजनीति पर लिखा करते हैं, इसलिए कि अगर राजनीतिक पंडितों के लेखों में पक्षपात की बू आने लगती है, तो हम पत्रकार न रह कर सरकारी भोंपू बन जाते हैं। अफसोस के साथ कहना पड़ता है मुझे कि मोदी के राज में इस नियम को कूड़ेदान में फेंक दिया गया है। दो खेमों में हमको बांट दिया है प्रधानमंत्री के प्रवक्ताओं और सोशल मीडिया पर उनके समर्थकों ने। एक खेमे में रखा गया है भक्तों को और दूसरे में तथाकथित ‘देश के गद्दारों’ को।
मैं कभी भक्तों के खेमे में हुआ करती थी, लेकिन अब मुझे इस खेमे से निकाल कर गद्दारों के खेमे में डाल दिया गया है, जिसमें हैं वामपंथी, ‘सेक्युलरिस्ट’, कांग्रेसी और उदारवादी या लिबरल पत्रकार। इन सबको मोदी के प्रवक्ता देश के गद्दार मानते हैं, क्योंकि उनकी नजर में मोदी की किसी भी नीति का विरोध करना भारत का विरोध करने के बराबर है।
मेरी मुसीबत यह है कि जब मैं मोदी की किसी नीति की तारीफ भी करती हूं आजकल, तो ट्विटर पर ताने सुनने को मिलते हैं। इस किस्म के- ओसीआइ नहीं मिलने वाला, कुछ भी कर लो। अब चमचागीरी कर रही है सिर्फ इसलिए कि उसके बेटे को ओसीआइ वापस मिल जाए। सो, स्पष्ट करती हूं आगे बढ़ने से पहले कि भारत मेरे बेटा का घर रहा है उसके बचपन से और उसको ओसीआइ दिया गया था मेरी वजह से, क्योंकि मैंने उसको अकेले पाला था।
अब नई शिक्षा नीति का दिल से तारीफ करना चाहती हूं। पिछले सप्ताह शिक्षामंत्री रमेश पोखरियाल निशंक एक्स्प्रेस अड्डा में खास मेहमान थे और पहली खुशी मुझे हुई जब उनका परिचय शिक्षामंत्री कह कर दिया गया। शिक्षा मंत्रालय हुआ करता था पहले भी, लेकिन राजीव गांधी ने इसका नाम बदल कर मानव संसाधन विकास मंत्रालय रखा। उन्होंने इस नए मंत्रालय के तहत एक शिक्षा नीति बनाई थी, जिसकी कोशिश सिर्फ यह थी कि कुछ सरकारी स्कूलों में ऐसा सुधार लाया जाए, जिससे वे ‘मिनी दून स्कूल’ बन जाएं।
दून स्कूल अंग्रेजी राज में बना था अमीर घरों के भारतीय बच्चों को काले अंग्रेज बनाने के मकसद से। मैं खुद देहरादून में पढ़ी हूं, दून स्कूल से जुड़े लड़कियों के स्कूल में। हम इतने अंग्रेज बन कर निकले थे इस स्कूल से कि हमको भारत के इतिहास और संस्कृति के बारे में कुछ नहीं मालूम था और पश्चिमी देशों के इतिहास और संस्कृति के बारे में सब कुछ। आज भी उच्च स्तर के स्कूलों में यही हाल है।
नई श्क्षिा नीति में भारतीय बच्चों को भारतीय बनाने की कोशिश है और इसकी जितनी तारीफ की जाए कम होगी। मातृभाषा में प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाई कराने का सुझाव है, जो आवश्यक भी है और महत्त्वपूर्ण भी, क्योंकि फिलहाल इस देश के अधिकतर बच्चे बेजुबान बन कर निकलते हैं स्कूलों से। कई विशेषज्ञों ने भाषा नीति को लेकर आलोचना की है, यह कहते हुए कि अंग्रेजी अब विश्व की भाषा है और इसलिए इसको मातृभाषा से ज्यादा अहमियत मिलनी चाहिए। लोग यह भूल जाते हैं कि अंग्रेजी सिखाई जाती है यूरोप के हर देश में, लेकिन पढ़ाई का माध्यम रहती है मातृभाषा।
आलोचना इस बात की भी की है हमारे कुछ अंग्रेजी भाषी देशवासियों ने कि इसमें संस्कृत और भारत की संस्कृति को ज्यादा अहमियत दी गई है। इनकी बातों से में बिलकुल सहमत नहीं हूं, क्योंकि मैं मानती हूं कि जिस तरह भारत के प्राचीन इतिहास को अनदेखा किया गया है पिछले चौहत्तर वर्षों में और मुगल तथा ब्रिटिश दौरों को अहमियत दी गई है, वह इस देश के साथ असली गद्दारी है। चोल राजाओं ने नौवीं सदी से लेकर तेरहवीं सदी तक दक्षिण भारत में राज किया, लेकिन उनके बारे में हमसे ज्यादा दक्षिण-पूर्वी देशों के लोग जानते हैं।
मैं जब पहली बार थाईलैंड की प्राचीन राजधानी आयुथया गई थी, तो हैरान रह गई थी कि रामायण की अयोध्या पर इसका नाम रखा गया था और थाईलैंड के राजा अपने आपको राम कहते हैं। भारत का यह विशाल प्रभाव आज भी दिखता है दक्षिण-पूर्वी देशों के मंदिरों में, उनकी संस्कृति में, उनकी कला में, लेकिन भारत के बच्चों को हम इन चीजों के बारे में शायद अब सिखाएंगे इस नई शिक्षा नीति के तहत।
शिकायत मेरी सिर्फ यह है इस नई नीति को लेकर कि ऐसा लगता है कि इसको लिखा है ऐसे लोगों ने, जिन्होंने भारत के सरकारी स्कूल नहीं देखे हैं। देखे होते तो उनको मालूम जरूर होता कि उत्तर प्रदेश और बिहार में लाखों ऐसे स्कूल हैं, जिनमें बच्चों के पास न किताबें हैं, न बैठने के लिए कुर्सी-मेज। इन स्कूलों में अगर अध्यापक दिख जाए, तो बहुत बड़ी बात मानी जाती है, बावजूद इसके कि इन ग्रामीण स्कूलों में अध्यापकों का वेतन कई निजी स्कूलों से ज्यादा है।
मुझे शिक्षामंत्री से सवाल करने का मौका नहीं मिला एक्स्प्रेस अड्डे में, क्योंकि मैं जूम करना नहीं सीख पाई हूं। मौका मिलता अगर तो मैं उनसे जरूर पूछती कि भारतीय जनता पार्टी की सरकारें रही हैं दशकों से कई राज्यों में, सो उन राज्यों में हम क्यों नहीं शिक्षा में वे सुधार देख पाए हैं, जिनके बिना नीतियां चाहे कितनी बेहतरीन हों, बेअसर रहेंगी। ऐसा कहने के बाद लेकिन यह भी कहूंगी कि मुझे बहुत खुशी हुई है कि नई शिक्षा नीति मिली है देश को और तीस वर्ष बाद पहला शिक्षामंत्री भी। जिस दिन भारत के बच्चों को अच्छे स्कूल मिलेंगे और अच्छी शिक्षा, उस दिन भारत फिर से विश्वगुरु बनने का सपना देख सकेगा।