नारों और चुनावों का चोली दामन का साथ है। जब 2014 के लोकसभा चुनाव आसन्न थे, भाजपा ने तय किया कि नरेंद्र मोदी उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, और उम्मीदवार ने लगभग फौरन कुछ नारों को लोकप्रिय बनाना शुरू कर दिया। इन नारों ने आखिरकार उन चुनावों को परिभाषित किया: अच्छे दिन आने वाले हैं; काला धन वापसी; सबका साथ, सबका विकास तथा दूसरे भी कई नारे। पार्टी के अनुकूल और भी कई चीजें थीं, साथ ही इन नारों का भी उसे सत्ता तक पहुंचाने में अहम योगदान रहा।
आज वे नारे खोखले मालूम पड़ते हैं। उपहास के डर से कोई उन्हें दोहराने की हिम्मत नहीं करता। लेकिन जब कई राज्यों के चुनाव नजदीक हों, तो हम कुछ नए नारों के बिना कैसे रह सकते हैं?
नया नारा एक पुराने नारे का ही नया उभार है: ‘भारत माता की जय’। लेकिन यह एक ऐसा नारा है कि अगर इसे रोज लगाया जाए तो बहुतेरे लोग हैरत में पड़ जाएंगे कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है। जब भारतीय सैनिकों ने ‘टाइगर हिल’ को फिर से अपने कब्जे में ले लिया, तो इस नारे को लगाने की सार्थकता थी, लेकिन दूसरे ढंग के अवसरों पर ऐसा करना शायद ही प्रासंगिक हो, मसलन निवेशकों के सम्मेलन या न्यायिक सुधार पर व्याख्यान या किसी किताब के लोकार्पण के आखीर में।
‘राष्ट्रवाद की परियोजना’
कहीं आप गलत न समझ बैठें, मैं आपको आगाह कर दूं कि इस नारे के नए चैंपियनों का एक सोचा-समझा मकसद है: वे इस नारे (भारत माता की जय) का इस्तेमाल एक भ्रामक तर्क को चलाने के लिए करना चाहते हैं कि जो यह नारा लगाता है वही- और केवल वही- देशभक्त है, और जो ऐसा नहीं करता, देशभक्त नहीं हैं, और इसलिए राष्ट्र-विरोधी है। यह निश्चय ही लोगों को बांटने की तरकीब है। चुनावी फायदे की उम्मीद में, भाजपा ने सुनियोजित रूप से राष्ट्रवाद के मुद्दे को हवा दी है।
हम, भारत के लोगों ने, राज्यों का संघ बनाया है और एक संविधान को अंगीकार किया है। हरेक देशवासी से भारत संघ और इस संविधान के प्रति निष्ठा की मांग करना एकदम जायज है। यह हरेक नागरिक का दायित्व है, पर किसी भी सरकार को यह हक नहीं है कि अपने नागरिकों से इससे ज्यादा की मांग करे।
‘राष्ट्रवाद की परियोजना’ के पीछे मंशा लोगों को बलपूर्वक इस बात के लिए तैयार करने की है कि वे एक प्रकल्पित राष्ट्रीय पहचान के आगे अपनी निजी पहचानें भुला दें- कि सबका एक ही इतिहास है, एक जातीयता, एक नस्ल, एक ही संस्कृति और एक ही मूल्य-व्यवस्था, जो भारत के लोगों को जोड़ती है। यह प्रकल्पित राष्ट्रीय पहचान ही है जो स्वयंभू नेताओं को यह हौसला देती है कि वे यह नियम बनाएं कि कोई क्या खाए, क्या पहने, क्या पढ़े, क्या देखे; अथवा किससे प्यार करे या किसे जीवनसाथी बनाए; अथवा कौन अपना है कौन पराया, और कौन सजा के लायक है।
अगर हम राष्ट्रवाद की भाजपा की परिभाषा को स्वीकार करते हैं, तो इस निष्कर्ष से कुछ ही कदम दूर रह जाते हैं कि एक खास धर्म, अन्य धर्मों से श्रेष्ठ है, एक खास भाषा सभी बच्चों को पढ़ाई जानी चाहिए; कि राष्ट्रीय जीवन एक खास संस्कृति से ओत-प्रोत होना चाहिए; यानी कि एक खास मूल्य-व्यवस्था सभी लोगों के जीवन में परिलक्षित होनी चाहिए।
राज्य और राष्ट्र
राष्ट्रवादी को इस तरह परिभाषित करने का भाजपा का प्रयास कि जो ‘भारत माता की जय’ बोलेगा वही राष्ट्रवादी है, इतिहास को एकदम बिगाड़ कर पेश करना है। ‘भारत की खोज’ (डिस्कवरी आॅफ इंडिया) में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि भारत माता असल में भारत के लोग हैं और भारत माता की जय का मतलब है भारत के लोगों की जय। वे हमें एक समावेशी और लोकतांत्रिक संविधान की तरफ ले गए। हमारा संविधान ऐतिहासिक रूप से असमानता पर टिके समाज को एक समावेशी और लोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था में बदलने का साहसिक प्रयोग था, जिसने हरेक को, बगैर अपनी निजी पहचान की बलि चढ़ाए, सम्मान व गरिमा से जीने का हक दिया।
राष्ट्र और राज्य समानार्थी नहीं हैं। ‘राज्य’ का वास्ता केवल उन लोगों से है जो एक संविधान से बंधे हैं, और उन कानूनों से है जिन पर लोग स्वेच्छा से अमल करते हैं। जबकि राष्ट्र एक ऐतिहासिक अवधारणा है जिसे इतिहास तथा लोगों के संघर्षों व अनुभवों ने आकार दिया है। इंग्लैंड (यूनाइटेड किंगडम) एक राज्य (देश) है, लेकिन स्काट, आयरिश तथा वेल्श लोग खुद का जिक्र अंग्रेज के तौर पर नहीं करते। इसी तरह एक और राज्य (देश) है बेल्जियम, जहां दो राष्ट्रीयताओं का सह-अस्तित्व है। साम्यवादियों का लंबे समय से राष्ट्रीयताओं को लेकर एक भिन्न नजरिया रहा है।
अगर राष्ट्रवाद का सीधा-सा मतलब अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम या सम्मान का इजहार करना हो, तो कोई समस्या ही नहीं है। उपयुक्त अवसर पर राष्ट्र के प्रति प्रेम या सम्मान किसी नारे के जरिए जतलाना हो, तो ऐसे कई नारे हैं जिन्हें हमारे इतिहास ने हमें दिया है: वंदे मातरम्, भारत माता की जय, इन्कलाब जिंदाबाद और जय हिंद। इनमें से कोई एक नारा चुन लेना और वह नारा लगाने को ही राष्ट्र के प्रति निष्ठा या देशभक्ति की एकमात्र कसौटी बना देना लोगों को छलने या लोगों को अपने नियंत्रण में करने का घातक प्रयत्न है। इसे नामंजूर किया ही जाना चाहिए।
फासीवाद के निकट
उग्र राष्ट्रवाद विभाजनकारी है; यह फासीवाद से बहुत भिन्न नहीं है। ‘फासीवाद का सिद्धांत’ (बकौल मुसोलिनी) का यह अंश पढ़ें:
‘‘उदारवाद (लिबरलिज्म) व्यक्ति (इनडिविजुअल) के नाम पर राज्य को अस्वीकार करता है; फासीवाद व्यक्ति की वास्तविक सत्ताके लिए राज्य के अधिकार पर जोर देता है… फासीवाद आजादी (लिबर्टी) का पक्षधर है और एक ही आजादी का मूल्य है, वह है राज्य की आजादी, और व्यक्ति उसकी सीमा में है।’’
यह हमारे संविधान में अंकित आजादी के विचार का विलोम है। अपने एक चर्चित फैसले में, बच्चों के अधिकार का समर्थन करते हुए (जो जेहोवाज विटनेसेज नामक एक संप्रदाय से संबंधित थे), जो राष्ट्रगान के समय आदरपूर्वक खड़े तो रहे पर राष्ट्रगान गाने में शामिल नहीं हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था- ‘‘हमारी परंपरा सहिष्णुता सिखाती है; हमारा दर्शन सहिष्णुता का उपदेश देता है; हमारा संविधान सहिष्णुता को कार्यान्वित करता है; हम इसे कमजोर न करें।’’
हममें से हरेक को अपने आप से यह पूछना चाहिए ‘क्या मैं अपनी आजादी की कद्र करता हूं?’ अवसर के अनुरूप मुझे ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाने की आजादी है और मैं ऐसा गर्व से करूंगा। मुझे ऐसा न करने की भी आजादी है। और मैं किसी को भी इस बात की इजाजत नहीं दूंगा, और राज्य (सरकार) को तो हरगिज नहीं, कि वह तय करे कि मैं राष्ट्रवादी हूं या नहीं।