चीन से चौकस रहने के दिन बीत चुके हैं और अब उसकी चुनौती स्वीकार करने का समय आ गया है। स्थिति बहुत दिनों से पक रही थी। शायद 2014 से ही, जब मोदी सरकार नई-नई सत्ता में आई थी। सब पड़ोसियों को साथ लेकर चलने की अभिलाषा लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोस्ती का हाथ चीन की तरफ भी बढ़ाया था। चीन के राष्ट्रपति ने तपाक से मोदी का भारत आने का निमंत्रण स्वीकार कर देश का दौरा भी किया था, वह भी मोदी के जन्मदिन के मौके पर। विश्व की पुरानी संस्कृतियों वाले और सबसे बड़ी जनसंख्या वाले पड़ोसियों के शीर्ष नेतृत्व ने साबरमती तट पर झूले पर पेंग ली थी। मोदी शायद निश्चिंत थे कि चीनी ड्रैगन को उन्होंने अपने सौहार्द से जीत लिया है या फिर उसके डंक का तोड़ निकाल लिया है।
पर सब कयास धरे के धरे रह गए। चीन के राष्ट्रपति भारत में दोस्ताना निभाने जब दाखिल हुए तो चुपचाप पीछे चीनी फौज लद्दाख के चूमर इलाके में घुस गई और अपना कब्जा बनाने की कोशिश करने लगी। 2013-14 से लेकर आज तक चीन लगातार वह सब कर रहा है, जिससे भारत के सबसे उत्तरी क्षेत्र में लगातार विवाद का माहौल बना रहे। भूटान-सिक्किम-तिब्बत के तिराहे पर आजकल हो रही चीन की मनमानी इस बात का ताजा उदहारण है कि चीन भारत से तनाव बढ़ाने के लिए उत्सुक है और उसके लिए वह सब करेगा, जिससे भारत अंतत: उसकी दादागीरी किसी एक कमजोर पल में स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाए।
यह चीन की पुरानी सोची-समझी रणनीति है, जिसका वह प्रयोग एशिया में अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए लगातार करता रहा है। इसी रणनीति को कायम करके चीन अमेरिका और अन्य शक्तिशाली देशों से अपना लोहा मनवाना चाहता है। वास्तव में पिछले पचास सालों से चीन चुपचाप विश्व पटल पर अपना प्रभाव बनाने में जुटा है। उसके राजनीतिक और सैन्य रणनीतिकार अपने देश के प्राचीन इतिहास से प्रेरणा लेते हैं, जब चीन दुनिया का सबसे संपन्न और शक्तिशाली साम्राज्य था। यूरोपीय, खासकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चलते उसकी हालत खस्ता हो गई थी। माओ और फिर कम्युनिस्ट सत्ता ने कुछ सुधार करने की कोशिश जरूर की थी, पर अंदरूनी हालात में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। इसके बावजूद चीन ने अपना लक्ष्य बदला नहीं और वह अपना प्रभाव क्षेत्रीय स्तर पर बढ़ाता चला गया। अमेरिका से उसने सत्तर के दशक में दक्षिण पूर्व एशिया (विएतनाम, कंबोडिया) में टक्कर ली थी और विश्व की सबसे सशक्त फौज के पैर उखाड़ने में कामयाब रहा था। इससे पहले, 1950 से ही उसने तिब्बत में कब्जा मुहिम शुरू कर दी थी और दलाई लामा के हिंदुस्तान आते ही उसने हमको अपना दुश्मन मान लिया था। हिंदी-चीनी भाई-भाई के घोष की आड़ में चीन ने भारत पर ऐसा घातक हमला किया था, जिसके जख्म आज तक नहीं भरे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन सशक्त है। दुनिया में इक्का-दुक्का ही सैन्य बल है जो उसका मुकाबला कर सकते हैं। साथ ही उसकी आर्थिक नीति भी ऐसी है कि मात्र तीन दशक में वह इकोनॉमिक सुपर पावर बन गया है। मेड इन चाइना विश्वव्यापी ब्रांड है, जिसको फिलहाल कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। एक अनुमान के अनुसार अमेरिका के उपभोक्ता अपनी अस्सी प्रतिशत जरूरतें चीन में बने सामान से पूरी करते हैं। अगर देखा जाए तो यह अमेरिका के लिए भयावह स्थिति है- देखते-देखते अमेरिका का औद्योगिक आधार चीन स्थानांतरित हो गया है।
यूरोप का भी कुछ ऐसा ही हाल है। चीन से आयत निरंतर बढ़ता जा रहा है। इसको देखते हुए चीन ने यूरोप तक नई रेल लाइन भी बिछा दी है। अब चीनी माल जल्दी और कम खर्च में यूरोप पहुंच रहा है। इसी तरह की पहल वन बेल्ट, वन रोड है, जिसके जाल में पाकिस्तान बुरी तरह से फंस चुका है। चीन वहां बंदरगाह भी बना रहा है, जैसे उसने श्रीलंका में बनाया हुआ है। अफ्रीका में भी शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जहां चीन का गहरा दखल न हो। इंफ्रा स्ट्रक्चर बनाने के नाम पर चीन सरकार और उसके उपक्रमों ने अफ्रीका में लंबी लीज पर जमीन अपने कब्जे में कर ली है। दक्षिण अमेरिका के देशों में भी वह ऐसा ही कर रहा है। वास्तव में आज की तारीख में चीन का आर्थिक प्रभाव और पहुंच अतुल्य है। रूस, अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी, यूनाइटेड किंगडम आदि मिल कर भी इतना आर्थिक दम नहीं रखते कि वे चीन को चुनौती दे सकें। वास्तव में चीन ने पाश्चात्य साम्राज्यवाद की गंगा को उल्टा बहा दिया है। चीन के सस्ते माल की सबको वैसे ही लत पड़ गई है जैसे एक समय चीनी अफीम की लत थी। ऐसी परिस्थिति में चीन भारत को लगातार उकसा रहा है। वह जानता है कि विश्व समुदाय पर उसकी हड़क है। भारत और उसके मित्र राष्ट्र कितना भी चाह लें, पर चीन किसी की भी चलने नहीं देगा। सुरक्षा परिषद में भारत की सदयस्ता का अटक जाना इसका एक उदहारण है।
चीन अपना नेतृत्व थोपने पर आमादा है। भारत पर उसकी विशेष नजर है। हमारा देश चीन का सीमावर्ती तो है ही, पर उसके साथ-साथ तेजी से विकसित भी हो रहा है। साथ में मोदी सरकार रूस, अमेरिका, इजराइल और यूरोप के महत्त्वपूर्ण देशों से भी नजदीकियां बढ़ा रही है। ऐसी स्थिति चीन के लिए माकूल नहीं है। उसको अपना प्रभाव फौरन से पेश्तर मनवाना ही है, वरना क्षेत्रीय बाजी उसके हाथ से निकल जाएगी।यह सच है कि चीन युद्ध नहीं चाहता। जीत से उसे कोई खास फायदा नहीं होना है और अगर हार गया या फिर अंदर तक नहीं घुस पाया तो उसकी कलई खुल जाएगी। इसीलिए वह सीनाजोरी पर उतारू है। उसकी सिर्फ इतनी मंशा है कि भारतीय नेतृत्व आखें मिलाने के बजाय थोड़ी-सी आखें झुका ले और उसके रास्ते में न आए। दूसरे शब्दों में, कम्युनिस्ट चीन की साम्राज्यवादी विस्तारवाद में सहयोग करे। वन बेल्ट वन रूट से जुड़े, मेड इन इंडिया रहने दे और मेड इन चाइना चलने दे।
ऐसा हो भी सकता है, खासकर क्षेत्रीय सहयोग के संकल्प के चलते। पर उसके लिए आपसी भाईचारा और विश्वास चाहिए, जिसका वर्तमान में घोर अभाव है। ऐसे में भारत को सीमा विवाद पर सख्ती बरतनी पड़ेगी। वास्तव में, चीन से कूटनीतिक पंजा लड़ाने का वक्त आ गया है और हमारे पंजे के पीछे पूरा बाहुबल होना चाहिए। इससे कम में काम नहीं चलेगा।

