सारे देश में मातम का माहौल बना रहा पिछले हफ्ते। जहां भी पहुंचे शहीदों के ताबूत, वहां जनता ने अपना दर्द जताया उनके अंतिम संस्कार में भाग लेकर। और हमारे राजनेता हैं कि इस सार्वजनिक मातम में भाग लेने के बदले फिर से अपने राजनीतिक हित को आगे रखने लगे हैं और देश हित को पीछे। सो, पिछले हफ्ते कांग्रेस प्रवक्ताओं ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया कि जिस दिन पुलवामा में चौवालीस जवानों ने अपनी जानें गंवार्इं उस दिन प्रधानमंत्री किसी फिल्म की शूटिंग में व्यस्त रहे। घटिया आरोप था, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की तरफ से जो बयान आया इस दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष का, वह उतना ही घटिया था। अमित शाह ने कश्मीर समस्या का सारा दोष जवाहरलाल नेहरू पर डाल दिया और यह भी कहा कि सरदार पटेल अगर बनते भारत के पहले प्रधानमंत्री तो शायद कश्मीर समस्या होती ही नहीं।
पहली बात तो यह है अमित शाहजी, कि कश्मीर की जो वर्तमान समस्या है उसका बहुत थोड़ा वास्ता है कश्मीर की ऐतिहासिक समस्या से। ऐतिहासिक समस्या का हल नेहरू की बेटी ने ढूंढ़ निकाला था शेख अब्दुल्ला के साथ 1975 में समझौता करके। अमन-शांति का माहौल बना रहा कश्मीर घाटी में और इसको भंग भी इंदिरा गांधी ने खुद किया फारूक अब्दुल्ला की सरकार को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले गिरा कर। याद दिलाया कश्मीरियों को एक बार फिर कि उनको लोकतंत्र का हक नहीं है। वैसे भी आदी थे कश्मीरी लोकतंत्र से वंचित रहने के। शायद ही कोई चुनाव हुआ होगा 1952 के बाद, जिसमें धांधली नहीं हुई।
अगली गलती इंदिरा गांधी के बेटे ने की, जब उन्होंने फैसला किया कि 1987 का विधानसभा चुनाव वे फारूक अब्दुल्ला के साथ गठबंधन में लड़ेंगे। विपक्ष की जगह जब खाली हुई, तो उसको भरने आया अलगाववादियों का गठबंधन मुसलिम यूनाइटेड फ्रंट के झंडे तले। जब इस गठबंधन के नेताओं को लगा कि चुनाव में उनको धांधली से हराया गया है, तो इस गठबंधन के कुछ नेता सीमा पार गए और वहां से हथियारबंद होकर लौटे।
माना कि पाकिस्तान ने हमेशा कश्मीर घाटी में अशांति फैलाने का काम किया है, लेकिन उनके प्रयास कामयाब न होते अगर भारत के राजनेताओं ने गलती पर गलती न की होती। इस कड़वे सच का सामना करने के बाद ही हम कश्मीर समस्या का हल ढूंढ़ सकने की उम्मीद कर सकते हैं।
अफसोस कि मोदी सरकार ने भी कश्मीर में गलतियां की हैं, क्योंकि इस समस्या को लेकर स्पष्ट नीति नहीं रही है पिछले चार वर्षों में। ऐसा मैं अपनी तरफ से नहीं कह रही हूं, सेना के वरिष्ठ जरनैलों की तरफ से कह रही हूं। हाल में कश्मीर पर चर्चा हुई थी चंडीगढ़ के सैनिक साहित्य उत्सव में और इस चर्चा में मेरे अलावा तकरीबन सब बोलने वाले सेना में जरनैल रहे थे, जिनको कश्मीर का अनुभव था। इनमें सहमति थी कि कश्मीर समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए कोई रणनीति नहीं है और बिना स्पष्ट रणनीति के हल ढूंढ़ना नामुमकिन है।
वर्तमान समस्या यह भी है कि इस समस्या को हिंदू-मुसलिम बना दिया गया है। ऐसा न होता तो पुलवामा की घटना के बाद जब हिंसक भीड़ों ने आम कश्मीरियों पर हमले शुरू किए तो उनको क्यों नहीं किसी बड़े राजनेता ने रोका? हिंसक भीड़ों में अक्सर शामिल थे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नौजवान, सो सवाल है कि इनको भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने क्यों नहीं टोका? क्यों नहीं इनको समझाया कि भारत में हिंदू-मुसलिम सद्भावना की परंपरा पुरानी है। बहुत मजबूत रही है यह परंपरा। पिछले हफ्ते मैंने मुसलिम मंगणयार गायकों को कृष्ण के भजन गाते सुना, तो याद ताजा हुई इस देश के ताने-बाने की। इसको तोड़ रहे हैं वे लोग, जो मानते हैं कि पुलवामा के लिए हर कश्मीरी को दोषी ठहराने की जरूरत है।
ऐसा नहीं कि कश्मीर में हिंसा पाकिस्तान नहीं फैला रहा है। फैला रहा है दशकों से और अच्छा हुआ कि अब संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने भी पुलवामा के लिए पाकिस्तान का नाम लेकर टोका है। अच्छा हुआ कि फ्रांस और अमेरिका जैसे देश भी पाकिस्तान का नाम लेकर उसको दोषी ठहराने लगे हैं। ऐसा करवाने का श्रेय मोदी सरकार को तो जाता है, लेकिन कश्मीर घाटी में शांति लाने का श्रेय देना मुश्किल है, क्योंकि पिछले चार वर्षों में घाटी में हालात बद से बदतर हो गए हैं और दूर क्षितिज पर भी कोई हल नजर नहीं आता है। मोदी सरकार की सबसे बड़ी गलती यही रही है कि कश्मीर के लिए कोई स्पष्ट रणनीति तय नहीं हुई है अभी तक। नतीजा यह कि जब कोई हिंसक घटना घटती है तो दिल्ली में बैठे हमारे शासकों को कश्मीर याद आता है कुछ दिनों के लिए। फिर जब वही अशांत शांति लौट आती है, तो कश्मीर को भूल जाते हैं।
मातम का माहौल आज तो है देश भर में पुलवामा के शहीदों को लेकर, लेकिन कितने दिन रहेगा यह मातम? जिस दिन खत्म हो जाएगा उस दिन हम फिर से भूल जाएंगे कि कश्मीर में समस्या राजनीतिक है और इसका हल भी राजनीतिक ही हो सकता है। हमारे राजनेता कहते आए हैं बहुत पहले से कि कश्मीर हमारा अंदरूनी मसला है, लेकिन जब भी पुलवामा जैसा कोई हादसा होता है, तो हम इस समस्या को अंदरूनी कहना भूल जाते हैं और पाकिस्तान को दोषी ठहराने लगते हैं। फिलहाल हमारे राजनेताओं को शर्म आनी चाहिए कि वे शहीदों की चिताओं पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लग गए हैं। ऐसे समय में भी उनको अपना राजनीतिक हित नजर आ रहे हैं, देश का हित नहीं।