किताबों और फिल्मों पर प्रतिबंध लगाना भारत की पुरानी परंपरा है। स्वतंत्रता से पहले से चली आ रही है यह परंपरा, लेकिन पिछले हफ्ते शायद पहली बार किसी संगीतकार के संगीत कार्यक्रम पर प्रतिबंध लगाने की नौबत आई। कहने को तो प्रतिबंध नहीं लगा। कहने को सिर्फ प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतकार टीएम कृष्णा के कार्यक्रम को रद्द किया गया, लेकिन इंडियन एक्सप्रेस में दो लेखों द्वारा पता लगा बाद में कि इस संगीतकार को दिल्ली में कार्यक्रम करने की इजाजत इसलिए नहीं मिली थी केंद्र सरकार से, क्योंकि उनके राजनीतिक विचारों से हिंदुत्ववादियों को तकलीफ है। कर्नाटक संगीत से मेरा वास्ता कम रहा है। सो, इतिहासकार रामचंद्र गुहा का लेख पढ़ने के बाद ही मुझे मालूम हुआ कि कृष्णा साहब सिर्फ संगीतकार नहीं, राजनीतिक विचारक भी हैं। इसके बाद प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंह का लेख पढ़ा, जिससे पता लगा कि इस संगीतकार ने कई बार नरेंद्र मोदी की नीतियों की निंदा की है। उनके शब्दों में, ‘कोई अवसर नहीं छोड़ा है प्रधानमंत्री की आलोचना व्यक्तिगत तौर पर करने की।’ आगे उन्होंने यह भी लिखा कि कला और राजनीति के रास्ते अलग हैं, सो कलाकारों को अपने राजनीतिक विचार खुलेआम व्यक्त नहीं करने चाहिए।
सोनलजी को मैं कई सालों से जानती हूं और उनकी इज्जत भी करती हूं, लेकिन उनकी यह बात मुझे बिलकुल समझ में नहीं आई। मेरा मानना है कि कलाकारों, लेखकों, कवियों और चित्रकारों का फर्ज बनता है देश की राजनीतिक गतिविधियों पर अपने विचार व्यक्त करना। लोकतांत्रिक देशों की ताकत हैं ऐसे लोग। जिन देशों में उनके विचारों या उनकी कला पर प्रतिबंध लगते हैं, चीन और पाकिस्तान जैसे देश हैं जहां जेल भेज दिया जाता है उन लोगों को, जो सरकार या धर्म-मजहब की गलतियों को उजागर करने की कोशिश करते हैं अपनी कला या अपने लेखों में। नरेंद्र मोदी के दौर से पहले भी ऐसा होता आया है भारत में, लेकिन होना नहीं चाहिए। याद कीजिए, किस तरह सलमान रुशदी को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में बोलने से रोक दिया गया था 2012 में, क्योंकि कट्टरपंथी मुसलमानों को उनकी किताबें पसंद नहीं हैं।
मोदी सरकार को इस तरह के प्रतिबंध बहुत सोच-समझ कर लगाने चाहिए, क्योंकि वैसे भी अफवाहें गरम हैं दिल्ली के मीडिया घरानों और अखबारों के दफ्तरों में कि मोदी को आलोचक बिलकुल पसंद नहीं हैं। इस बात को मोदी बेशक अपने मुंह से न कहते हों, लेकिन जो लोग हैं उनके आसपास, उनको कोई संकोच नहीं है यह कहने में। यहां तक कि जिन पत्रकारों को मोदी सरकार के आलोचकों की श्रेणी में रखा गया है उनके लिए सरकार के सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं। कई वरिष्ठ संपादक तो बर्खास्त कर दिए गए हैं मोदी सरकार की आलोचना करने के बाद। इससे जो भय का माहौल पैदा हुआ है, उसका असर दिखता है अन्य क्षेत्रों में भी। हाल में मेरी बात हो रही थी एक दोस्त से, जो छोटा-मोटा बिजनेस चलाता है और जो जीएसटी लगने के बाद बहुत परेशान है, क्योंकि दो राज्यों में उसका कारोबार है, सो दोनों में उसको अलग-अलग दस्तावेज पेश करने पड़ते हैं जीएसटी को लेकर। उसकी बातें सुन कर जब मैंने कहा कि मैं वित्तमंत्री को जानती हूं, सो उसकी शिकायतें ऊपर तक पहुंचा सकती हूं, तो मेरे दोस्त ने घबरा कर कहा, ‘बिलकुल ऐसा मत करना। क्या तुम चाहती हो कि मेरा बचा-खुचा कारोबार भी बंद हो जाए।’
अब अगर संगीतकारों में भी भय फैलने लगा है, तो अच्छी बात बिलकुल नहीं है। मैंने जब इस बात को ट्वीट करके कहा, तो मेरे पीछे पड़ गए भारतीय जनता पार्टी के ट्रोल। ट्वीट करके कहने लगे, ‘जब जेएनयू में टुकड़े-टुकड़े गैंग वहां पर किसी अलग विचार रखने वाले लोगों को बोलने से रोक देते हैं, तो उस समय आप क्यों नहीं कुछ कहती हैं।’ कहती हूं। हमेशा। लेकिन ऐसे लोग भाजपा के समर्थक हैं, इस बात से साबित होता है कि स्पष्ट करते हैं अपने ट्विटर हैंडल में कि उनको नरेंद्र मोदी फॉलो करते हैं। अगर प्रधानमंत्री वास्तव में ऐसे जहरीले लोगों को फॉलो करते हैं, तो नुकसान उनका होता है व्यक्तिगत तौर पर।
हिंदुत्ववादी ट्रोल इतने जहरीले हैं कि अपने हर ट्वीट में किसी न किसी को वे भारत विरोधी साबित करने की कोशिश करते हैं। कभी नहीं बताते हैं ये लोग कि किस आधार पर इस आरोप को लगाते हैं, लेकिन मेरी नजर में यही हैं भारत के असली दुश्मन क्योंकि ये लोग समझे ही नहीं हैं लोकतंत्र के उसूल। न ही समझे हैं कि जिन देशों में शासकों को संगीतकारों से खतरा महसूस होता है उन देशों का भविष्य कभी रोशन नहीं हो सकता है। भारत ऐसे देशों से अलग सिर्फ इसलिए है, क्योंकि हमारे शासक लोकतांत्रिक उसूलों पर चलते आए हैं और इन उसूलों में सबसे ऊपर आता है बोलने का अधिकार। विरोध करने का अधिकार। जिन देशों में यह हक नहीं है लोगों को, उन देशों में अक्सर विरोध करने वाले बंदूक उठा कर करते हैं।
लेखक, कवि और कलाकार लड़ते हैं विचारों की लड़ाई। इनसे अगर शासकों को डर लगने लगता है तो दोष शासकों का है, उनका नहीं जो अपने लेख, संगीत या कला से देश का सिर ऊंचा करते हैं। अफसोस कि इन बातों की समझ प्रधानमंत्री के कट्टरपंथी समर्थकों को नहीं है, सो चाहे सोशल मीडिया पर हो चाहे गोरक्षा को लेकर हिंसा में हो, ऐसे लोगों ने देश के वातावरण में सिर्फ जहर फैलाया है। इस बात को विशेष तौर पर हमने देखा है पिछले चार वर्षों में, क्योंकि जबसे मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, ऐसे लोगों के हौसले बुलंद हुए हैं। प्रधानमंत्रीजी, कब दिखेगा आपको कि आपको बदनाम आपके सबसे बड़े समर्थकों ने किया है आपके दुश्मनों ने नहीं?0