शुरू करती हूं आपको गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं भेज कर। आज गणतंत्र दिवस की खुशियां खास इसलिए हैं कि आज हमारे संविधान का सत्तरवां जन्मदिन भी है। पत्रकारिता में लंबा अरसा गुजारने के बाद मुझे शायद पहली बार अपने संविधान की अहमियत समझ में आई है, जबसे नागरिकता कानून को लेकर देश भर में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए हैं। पिछले हफ्ते मुंबई में वकीलों के एक समूह ने संविधान की प्रस्तावना को एक सार्वजनिक जगह में इकट्ठा होकर पढ़ा। पिछले हफ्ते महाराष्ट्र सरकर ने इस प्रस्तावना को स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य कर दिया। पिछले हफ्ते मैं शाहीन बाग पहली बार गई, जहां औरतें ठंड के इस मौसम में एक महीने से ज्यादा सड़क पर दिन-रात बैठ कर विरोध कर रही हैं नए नागरिकता कानून का। वहां बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था अंग्रेजी में ‘संविधान के रक्षक’। इन ‘रक्षकों’ से जब बातें की तो जाना कि वे अच्छी तरह समझती हैं कि इस संविधान ने उनको क्या अधिकार दिए हैं।

धूल भरी ठंडी हवा चल रही थी उस दिन, लेकिन औरतें बैठ कर ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन’ मिल कर गा रही थीं। भाषण सुन रही थीं ऐसे लोगों के, जो दूरदराज राज्यों से उनके साथ हमदर्दी और समर्थन जताने आए हुए थे। बाद में जब ‘आजादी’ के नारे लगे, तो मैंने बहुत ध्यान से उनको सुना, यह देखने के लिए कि किस चीज से आजादी मांगी जा रही है। मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता आरोप लगा रहे हैं कि ये औरतें पाकिस्तान के लिए काम कर रही हैं और ‘जिन्ना वाली आजादी’ मांग रही हैं। जब तक मैं वहां थी, तो मैंने ऐसा कोई नारा नहीं सुना। ऊपर से यह भी याद आया कि शायद भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता इतिहास में कमजोर हैं, सो भूल गए होंगे शायद कि मोहम्मद अली जिन्ना इन बुर्कापोश औरतों के लिए कोई इतने बड़े हीरो नहीं हो सकते हैं। जिन्ना ने पाकिस्तान का निर्माण जरूर किया, लेकिन वे खुद अच्छे मुसलमान नहीं थे।

भाषण और गाने सुनने के बाद जब मैंने औरतों से बातें की, तो किसी एक ने न इस्लाम का जिक्र किया, न पाकिस्तान का। उन्होंने बातें की भारत के संविधान की और इस संविधान से उनको मिले अधिकारों की। इन अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए इन्होंने फैसला किया है, सो उनका कहना है कि जब तक इस ‘काले कानून’ को सरकार वापस नहीं लेती है, तब तक उनका पक्का इरादा है रोज प्रदर्शन करने का। मैंने जब उनसे पूछा कि कानून को वे ‘काला’ क्यों कह रही हैं, तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में मुझे समझाया कि सीएए के बाद जरूर एनआरसी और एनपीआर आएगा, जिसमें उनसे सबूत मांगे जाएंगे उनकी नागरिकता के। शबनम नाम की एक औरत के शब्दों में, ‘इसमें कठिनाई सबसे ज्यादा मुसलमानों को तो होगी, लेकिन दलितों और अन्य नीची जाति वालों को भी होगी, इसलिए कि किस गरीब घर में सबूत के दस्तावेज रखे होते हैं? सो, कहां जाएंगे हम? हमारी सुरक्षा अगर कोई करेगा तो हमारा संविधान।’

इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है भारत का संविधान आजकल कि असदुद्दीन ओवैसी जैसे कट्टरपंथी राजनेता ने भी हैदराबाद की एक विशाल आमसभा में हजारों लोगों से संविधान की प्रस्तावना पढ़वाया। भारत के संविधान की यह लोकप्रियता हकीकत बना रही है उस सपने को, जो संविधान लिखने वालों ने सत्तर साल पहले देखा था। संविधान लिखा गया था ऐसे दौर में जब अस्सी प्रतिशत से ज्यादा भारतीय अनपढ़ और गरीब थे। जब जातिवाद और छुआछूत इतनी हुआ करती थी ग्रामीण भारत में कि ऐसे भी गांव थे जहां दलित सड़क पर चलने से पहले चिल्लाया करते थे, ताकि किसी ब्राह्मण को उनका साया अपवित्र न कर दे। ऊपर से थे हिंदू-मुसलिम झगड़े, जो बंटवारे के बाद बढ़ गए थे। इस माहौल में ऐसा संविधान देना, जो हर व्यक्ति को वोट करने का अधिकार देता हो, कई राजनीतिक पंडितों की नजरों में पागलपन था। इन सब चिंताओं के बावजूद लोकतंत्र का सपना लिखा गया संविधान में।

संविधान बन जाने के बाद भी कई विदेशी राजनीतिक पंडित हर साल आशंका व्यक्त करते थे कि भारत में लोकतंत्र समाप्त होने वाला है। रही भारतीयों की बात, तो मुझे वे दिन अच्छी तरह याद हैं जब जाने-माने बुद्धिजीवी सुझाव दिया करते थे कि भारत के विकास के लिए कुछ दशकों तक लोकतंत्र स्थगित करके सेनाध्यक्ष के हाथों में शासन पकड़ा देना चाहिए। पाकिस्तान का हवाला देकर कहते थे यह बात इसलिए कि कई दशकों तक पाकिस्तान के फौजी शासकों ने इतनी अच्छी आर्थिक नीतियां बनाई थीं कि पाकिस्तान हमसे आगे निकल गया था विकास के तौर पर।

इन सब चीजों के बावजूद भारत में लोकतंत्र जिंदा रहा उस दौर में भी जब इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए इमरजंसी लगा दी थी देश भर में और भारत की बागडोर अपने बेटे संजय के हाथों में दे दी थी। अंत में इंदिरा गांधी को चुनावों की घोषणा करनी ही पड़ी, इसलिए कि उनको समझ आ गया था कि भारत इतना बड़ा और विविध देश है कि यहां तानाशाही ज्यादा दिन नहीं टिक सकती है, चाहे तानाशाह कोई जरनैल क्यों न हो।

अब आया है ऐसा समय जब आम लोगों को- खासकर मुसलामनों को- अपनी नागरिकता को खतरा दिख रहा है इस नए कानून से। सो, निकल आए हैं शहरों की सड़कों पर लाखों की तादाद में इस कानून का विरोध करने। मोदी सरकार के गृहमंत्री ने पिछले हफ्ते लखनऊ में फिर से कहा की कानून वापस नहीं लिया जाएगा, लेकिन विरोध प्रदर्शन अब भी रुके नहीं हैं। उनके हौसले बुलंद हैं, क्योंकि उनको विश्वास है कि भारत का संविधान लोकतंत्र का कवच है।