बजट के बारे में आज आपको बहुत कुछ मिलेगा पढ़ने को। मैं इस विषय से अपने आपको दूर रखती हूं, इसलिए कि बजट की भाषा इतनी कठिन होती है कि मुझे जाना पड़ता है किसी अर्थशास्त्री के पास इसको समझने। लेकिन अर्थव्यवस्था का आज इतना बुरा हाल है कि यह कहना गलत न होगा कि भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक समस्या आर्थिक है। विश्वविद्यालयों में जो अशांति हमने देखी है पिछले हफ्तों में उसकी असली जड़ है युवाओं में डर, कि पढ़ाई समाप्त करने के बाद उनको अच्छी नौकरी मिलने की संभावनाएं कम होती जा रही हैं। सरकारी नौकरियां तो वैसे भी कम हो गई हैं और निजी क्षेत्र में जो नौकरियां दस साल पहले मिलती थीं, वे अब नहीं मिल रही हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में निवेश 2014 के बाद बहुत कम हुआ है।

सो, नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अगर है कोई तो वह है अर्थव्यवस्था के ऊपर से मंदी के काले बादल दूर करके नई उम्मीदें पैदा करना। समस्या गंभीर है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अर्थव्यवस्था की वार्षिक वृद्धि जितनी कम अब हो गई है वह हमने एक दशक से नहीं देखी है। कारण अनेक हैं, लेकिन मेरी राय में इस मंदी का सबसे बड़ा कारण यही है कि प्रधानमंत्री ने अब भी उस समाजवाद का रास्ता नहीं छोड़ा है, जिसने देश को गरीब रखा है शुरू से। किसी भी देश में जब बड़े-बड़े उद्योग चलाने का काम सौंपा जाता है राजनेताओं और सरकारी अफसरों के हाथों में तो समृद्धि बहुत धीरे आती है, अगर आती है कभी। यही कारण है कि पूर्वी यूरोप के समाजवादी देश नए आर्थिक रास्तों पर चल पड़े हैं। यही कारण है कि चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट मुल्क भी नए आर्थिक दिशा में चल पड़े हैं।

मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो उनकी बातों से ऐसा लगा था कि वे भी नई आर्थिक दिशा में लेकर जाएंगे भारत को। उस समय वे कहा करते थे कि सरकार को बिजनेस करना ही नहीं चाहिए। वे कहते थे कि गरीबी हटाने से आगे निकल कर हमको समृद्धि का सपना देखना होगा। मुझे याद है कि जब पहली बार वॉशिंगटन गए थे और वहां दुनिया के सबसे बड़े निवेशकों को संबोधित कर रहे थे, तो उन्होंने एक तो यह कहा कि लाल फीताशाही की जगह उनको लाल कालीन मिलेगा भारत में। दूसरा उन्होंने कहा था कि ‘मैं गुजरात का हूं, मेरी तो रगों में रुपए दौड़ते हैं’। एक महान आर्थिक परिवर्तन की उम्मीद जग गई थी हम जैसों में, लेकिन वह परिवर्तन अभी तक नहीं आया है।

इसके न आने का कारण एक तो यह है कि नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री का ध्यान काला धन खोज निकालने में उलझ कर रह गया था और दूसरा कारण यह है कि उस अदृश्य काले धन की खोज जब शुरू हुई तो सरकारी अफसरों की नीयत खराब होने लगी। उनको याद आने लगा लाइसेंस राज का वह जमाना जब छोटे से छोटा अधिकारी बड़े से बड़े उद्योगपति को अपने शिकंजे में कस सकता था, टैक्स छापे की तलवार उसके सिर पर लटका कर। ऐसे छापों की मैं दो बार चश्मदीद गवाह रही हूं और यकीन मानिए कि जितनी ज्यादतियां इन छापों के दौरान करते हैं सरकारी अफसर, शायद ही किसी और समय कर सकते हैं।

जिस घर में छापा मारते हैं अंदर घुसते ही, स्पष्ट करते हैं कि उनकी नजरों में आप दोषी हैं, जब तक आप अपने आप को निर्दोष साबित न कर सकें। ऊपर से इन अफसरों की कोशिश होती है अपने शिकार का अपमान करने की सबके सामने। मेरे एक दोस्त को उन्होंने तब गिरफ्तार किया जब वह एयर इंडिया की फ्लाइट से उतर रहा था। बड़े उद्योगपति तो बचने के तरीके ढूंढ़ लेते हैं, लेकिन जो लोग छोटे-मोटे कारोबार चलाते हैं, वे ऐसा नहीं कर सकते हैं। सो, कई छोटे कारोबार बंद ही हो गए हैं पिछले कुछ सालों में और लाखों देसी करोड़पति देश छोड़ कर दुबई जैसे देशों में चले गए हैं, जहां बिजनेस करना वास्तव में आसान है।
नतीजा यह हुआ है कि निजी क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर पैदा होना बंद हो गए हैं और नए कारोबार भी खुलने बंद हो गए हैं। सबसे ज्यादा नुकसान यह हुआ है कि इस नए किस्म के इंस्पेक्टर या ‘रेड’ राज ने सरकार और कारोबारियों के बीच विश्वास समाप्त कर दिया है। माना कि निजी क्षेत्र में भी चोर होते हैं, जो सरकारी बैंकों से पैसा लूट कर भाग जाते हैं, लेकिन यह भी मानना जरूरी है कि सब नीरव मोदी नहीं होते।

एक कारण मंदी का यह भी है कि मोदी एक बात कहते हैं तो उनके मंत्री कुछ और। निजी निवेशकों को निवेश करने के लिए प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री रोज प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन हाल में जब अमेजन के मालिक जेफ बेजोस भारत आए, तो वाणिज्य मंत्री ने उनको डांट डाला यह कहते हुए कि भारत में निवेश करके वे इस देश पर कोई अहसान नहीं कर रहे हैं। बाद में पीयूष गोयल ने अपने इस बयान को बदल कर थोड़ा नरम कर दिया था, लेकिन जो नुकसान होना था हो चुका था। मैंने उनकी बात सुन कर याद किया समाजवाद का वह दौर, जब भारत सरकर के आला अधिकारी इतने घमंडी हुआ करते थे कि विदेशी निवेशकों को कहते फिरते थे कि उनको तो आना ही पड़ेगा भारत, क्योंकि हमारा बाजार इतना बड़ा है और उपभोक्ता इतने सारे।
इस बजट के बाद माहौल को भी बदलना होगा, वरना मंदी निकट भविष्य में दूर होती नहीं दिखती है। इस मंदी और मायूसी को दूर करना प्रधानमंत्री की प्राथमिकता होनी चाहिए।