एक नामी-गिरामी एंकर उस बेहद ठंडी शाम में शाहीनबाग के शो की गरमी में तपता हुआ कहने लगता है कि ये देखिए! इस वक्त हम क्रांति के ‘ग्राउंड जीरो’ यानी शाहीनबाग में हैं। जरा देखिए तो कि इस कड़ाके की ठंड में भी शाहीनबाग की औरतें महीने भर से नागरिकता कानून के विरोध में शांतिपूर्ण धरने पर बैठी हुई हैं। उनके साथ उनके छोटे-छोटे दुधमुंहे बच्चे भी हैं।…

शाहीनबाग चैनलों के लिए एक नया जंतर मंतर बन चला है। वह विरोध का नया प्रतीक-स्थल है। वहां हर रोज हर चैनल धोक लगाता है। अंग्रेजी में गिट-पिट करने वाली रिपोर्टरों के लिए शाहीनबाग की औरतों का धरना किसी क्रांति से कम नहीं। कई चैनल अपने रिपोर्टरों से शाहीनबाग को लाइव कवर कराते हैं और वे बैठी हुई औरतों की हिम्मत पर मुग्ध होकर उनकी विरोधमुद्रा का गुणानुवाद करने में लगे रहते हैं।

कैमरे आते हैं तो भीड़ बढ़ती है। भीड़ बढ़ती है तो रिपोर्टर उमंग से भर जाते हैं और अतिरंजनापूर्ण भाषा में धरने की तारीफ करते रहते हैं। जब कैमरे चले जाते हैं, तो भीड़ें भी छंट जाती हंै। यह धरना आम रास्ते वाली सड़क को रोक रहा है। एक महीने से अधिक हो गया, मुख्य सड़क का ट्रैफिक बंद है। नागरिकों को परेशानी झेलनी पड़ रही है। लेकिन इस परेशानी की कोई बात नहीं करता!

एक बार पुलिस उनको हटाने की कोशिशें करती है, लेकिन धरने वाले फिर सारी सड़क घेर लेते हैं। जाहिर है कि यह उतना स्वत:स्फूर्त नहीं, जितना बताया जाता है। यह पूरी तरह संगठित आंदोलन लगता है।  एक शाम मणिश्ांकर जी इस धरने में औरतों के साहस का अभिनंदन करते हुए किसी मुकम्मल ‘शेर’ की जगह एक लंगड़ा-सा ‘शेर’ मार देते हैं कि :
‘देखते हैं किसका हाथ मजबूत है!
हमारा या उस कातिल का!!’
इस लंगड़े शेर को सुनते ही रिपोर्टर हिल जाते हैं और पूछने लग जाते हैं कि शेर में यह ‘कातिल’ कौन है?
एक एंकर ‘कातिल कौन है’ को लेकर देर तक बहस कराता नजर आता है और दूसरे चैनल में एक पैनिलस्ट कहता है कि यह भी फैज का शेर है!
हाय! न रदीफ लगा, न कहीं काफिए का होश, न कहीं तान न कोई तुक और भक्त ने उसे फैज के नाम कर दिया! भइए, जब इतना किया था तो इस शेर का अता-पता भी दे दिए होते!
लेकिन विघ्नसंतोषियों को चैन कहां?
जल्द ही वे शाहीनबाग जैसी क्रांतिकारी ‘नई साइट’ की धज बिगाड़ने में जुट गए।
एक चैनल बताता है कि ऐसा आरोप है कि शाहीनबाग का ‘प्रोटेस्ट’ एक ‘पेड प्रोटेस्ट’ है। धरने में बैठने वाली हर औरत को रोज के पांच सौ, सात सौ रुपए मिल रहे हैं। यहां सब कुछ है। बिरयानी भी है। चाय-नाश्ता भी है। ये सब क्या यों ही हो गया है?
एक शाम एक अंग्रेजी रिपोर्टर दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर ही विरोध बनाने और बताने में ‘बिजी’ हो जाती है।
दृश्य में तो सीढ़ियों पर मुठ्ठी भर लोग ही नजर आते हैं, लेकिन वह उसे बड़े प्रदर्शन की तरह दिखाए जा रही है। उसने ‘बोलने वाली जनता’ भी अपने पास तैयार खड़ी कर रखी है।
नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन जितना अपने आप बना, उससे अधिक चैनलों के कैमरों ने बनाया। कैमरे न दिखाएं तो आंदोलन एक दिन में ढेर हो जाए- प्रदर्शनों से उकताया हुआ एक पैनलिस्ट एक चर्चा में कह उठता है!
बात सच नजर आती है। भीड़ कैमरों में दिखने के लिए आती है। कभी खबर न बना सकने वाले आदमी को टीवी कैमरे ‘खबर बनाने वाला’ बनाते हैं। इसीलिए आदमी कैमरों के लिए आता है।
कैमरे हटा दीजिए, फिर देखिए कि किसी आंदोलन के लिए कितने लोग टिकते हैं!
एक शाम कुछ चैनल तुर्कमान गेट को नए शाहीनबाग की तरह बनाने-बताने लगते हैं, लेकिन कैमरों के हटते ही नया शाहीनबाग बिखरता हुआ नजर आता है!
जबसे जम्मू-कश्मीर पुलिस ने एक डीएसपी को दो आतंकवादियों के साथ पकड़ा है, तबसे ‘सुरक्षा’ भी विवाद में फंस गई है। सवाल पूछा जाने लगता है कि इतने दिन तक सुरक्षा का इंतजाम देखने वाला बंदा अभी क्यों पकड़ा गया? इसका जवाब अभी आना है!
शुक्रवार की सुबह शाहीनबाग की कहानी को फांसी की फौरी मांग की कहानी ने ‘टेकओवर’ कर लिया!
एक एंकर एक एक्टिविस्ट के सुर में सुर मिला के कहे जा रही थी : लीजिए अब बाईस जनवरी को फांसी नहीं होगी! एक की दया याचिका ने फांसी को फिर टलवाया!
अगर हमारे कुछ एंकरों और रिपोर्टरों का बस चले तो खुद ही उनको लटका दें! मर्सी पिटीशन उनके ठेंगे से?
एक रिपोर्टर ने जल्लाद से कुछ इस तरह से बात की मानो जल्लाद न हो, कोई आर्टिस्ट हो कि फांसी की तैयारी करते वक्त आपको कैसा लगता है? बताइए, जल्लाद क्या कहे?
सभी चैनल जल्लाद जल्लाद खेलते दिखते हैं!