मुद्दा उछलता है, चैनल लपकते हैं, एंकर गरजते हैं, मुद्दे को हैशटेग पर टांग कर बड़ी खबर बनाते हैं। दो दिन तक उसका भजन-कीर्तन कराते हैं और ‘मुद्दे’ पर आपत्ति करने वालों को ठोक कर एंकर बहसों को एक इच्छित दिशा की ओर ‘ठेलते’ चलते हैं। यही नहीं, अपनी बची-खुची ‘आलोचनात्मक क्षमता’ का प्रदर्शन करने के लिए अपने एंकर जन ‘बहसों से अनुपस्थिति’ कांग्रेस को ,लटयन्सों को, लॉबी को, टुकड़े-टुकड़े गैंग को, खान मार्केट गैंग को चलते-चलते लतियाना नहीं भूलते और अंत में सबको धन्यवाद देकर एक ‘डिस्क्लेमर’ दिखा देते हैं कि चैनल में जो विचार आए वे चैनल के नहीं थे, ताकि उनके स्वामी देख लें कि भक्त एंकरों ने ठीक-ठाक से सेवा की कि नहीं।
ऐसे ही मौसम में, सोलह अक्तूबर के दिन जब यह खबर फूटी कि मंदिर की जमीन के मालिकाना हक के विवाद की सुनवाई बड़ी अदालत की बेंच ने पूरी कर ली है, तो ज्यादातर एंकर और रिपोर्टर किन्हीं ‘कार सेवकों’ की तरह ही खुश नजर आए।
कइयों ने तो खबर को कुछ इस तरह से धुना और बुना कि लगने लगा कि अदालत का फैसला जब आए तब आए, हमने तो अपना फैसला सुना दिया है कि मंदिर बनना तय है।
रिपोर्टर जिससे भी पूछते वह एक ही बात कहता कि यह भगवान राम की जन्मभूमि है। हिंदुओं की आस्था का सवाल है। बहुत देर हो चुकी। अब मंदिर को तो बनना ही है। फिर अचानक उदात्त भाव ओढ़ कर कहा जाता कि फैसला जो भी आए सबको मान्य होना चाहिए। विवाद से जुड़े कई मुसलमान नेता भी यही कहते कि फैसला जो भी आए उसे सबको मानना चाहिए!
ऐसी बातें बार-बार दुहराते हुए एंकर किसी नए कारसेवक की तरह प्रसन्न होकर चहकते दिखे कि इतिहास के सबसे लंबे धार्मिक विवाद को अब जल्दी ही विराम मिलेगा। सत्रह नवंबर तक फैसला आ जाना है, क्योंकि यह मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल का अंतिम दिन है। अब तक तो हिंदी एंकर ही ‘मंदिरवादी’ नजर आते थे, इस बार एकाध को छोड़ कर अधिकतर अंग्रेजी एंकर और रिपोर्टर मंदिर बनवाते नजर आए।
इसे कहते हैं ‘टहोका’ पत्रकारिता! पहले सिर्फ हिंदी एंकर ऐसे मुद्दों की खबर को हिंदुत्व की या राष्ट्रवाद की ओर झुका कर उसके लिए जरूरी वातावरण बनाया करते थे, अब अंग्रेजी के एंकर भी ऐसे मुद्दों को अपना ‘टहोका’ देते नजर आते हैं, ताकि तुरंत ‘सर्वानुमति’ का वातावरण बन जाए और विवादी स्वर खामोश हो जाएं! और इन दिनों तो मंदिर के मुद्दे पर एक भी ‘विवादी सुर’ नही बजे! आधिकारिक फैसले से पहले ही एक प्रकार की ‘सर्वानुमति’ का वातावरण बना दिया गया। यह इतने जबर्दस्त तरीके से किया गया कि मंदिर निर्माण के प्रवक्ताओं और एंकरों रिपोर्टरों के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया!
कोई ‘मंदिर’ का ‘इतिहास’ बताने के लिए बाबर-काल में जाता। कोई अंग्रेजी-काल में जाता। कोई अदालत की सुनवाई के मुद्दों को बताता और कोई जिस जगह रामलला विराजमान हैं उसे दिखाता। कोई पास ही में मंदिर निर्माण के लिए तराशे जा रहे पत्थरों को ‘क्लोजअप’ में दिखाता और ऐसे दृश्यों के जरिए दर्शकों को मंदिर निर्माण की दिशा में जल्दी-जल्दी ठेला जाता, ताकि लोग मान लें कि मंदिर बनना तो एकदम तय है, बस फैसले का इंतजार है!
सप्ताह का दूसरा ‘टहोका’ सावरकर को ‘भारत रत्न’ देने को लेकर आया। इसका नतीजा भी ‘पूवार्नुमेय’ (प्रेडिक्टेबल) रहा।
जरा देखें। सावरकर को ‘भारत रत्न’ देने का आइडिया फेंका शिवसेना ने, लपक लिया भाजपा ने और गोद ले लिया एंकरों ने। लगभग सभी एंकरों ने सावरकर को भारत रत्न दिए जाने का ऐसा रोर मचाया कि ‘बैलेंसिग’ करने के लिए ज्योतिबा फुले को भी भारत रत्न देने का विचार हाशिए पर ही रहा आया।
दो दिन की सावरकर-चर्चाओं ने तय कर दिया कि उनको भारत रत्न तो दिया ही जाना है। यों सावरकर के आलोचकों ने उनका खूब चरित्र-चित्रण किया कि किस तरह गांधी की हत्या के एक षड्यंत्रकारी के रूप में सावरकर का नाम आया था, कि किस तरह गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे सावरकर से प्रेरित था।…
ओवैसी ने तो यहां तक कहा कि अगर सावरकर को भारत रत्न देना है, तो नाथूराम गोडसे को भी दिया जाना चाहिए। सावरकर के भक्त कहते रहे कि वे सबसे बड़े देशभक्त थे। जेल में बहुत-सी यातनाएं सही थीं। जेल की दीवारों पर अपने नाखूनों से कविताएं लिखी थीं। अगर वे न बताते कि ‘अठारह सौ सत्तावन’ की लड़ाई ‘आजादी की पहली लड़ाई’ थी, तो हम कैसे जान पाते कि वह ‘आजादी की पहली लड़ाई’ थी। मगर सावरकर के आलोचक भी कम नहीं थे। एक ने कहा कि सबसे पहले मार्क्स ने अठारह सौ सत्तावन को ‘आजादी की पहली लड़ाई’ कहा था! दूसरा आलोचक बोला कि सावरकर की एक जीवनी उन्नीस सौ छब्बीस में ‘सावरकर प्रकाशन’ से छपी। उसके लेखक कोई ‘चित्रगुप्त’ थे, लेकिन जब उन्नीस सौ सत्तासी में दुबारा छपी तो पाया गया कि उसके ‘चित्रगुप्त’ असल में स्वयं सावकरकर थे, इस तरह वे एक ‘चीटर’ थे।
एक सावरकर भक्त ने फरमाया कि जब राजीव गांधी को कांग्रेसी सरकार भारत रत्न दे सकती है, तो सावरकर को क्यों नहीं दिया जा सकता। इतने में भाजपा के बड़े नेता और मंत्री ने एक रिपोर्टर को बता दिया कि सावरकर को भारत रत्न देना सौ फीसद तय है!जब देना तय है, तब बहस क्यों?
इस बीच एनसीपी के नेता प्रफुल्ल पटेल की धुलाई हो गई। एक चैनल को एक दिन कहीं से पटेल और आतंकी दाऊद के रिश्तेदार इकबाल मिर्ची के परिवारी और पटेल के बीच एक महंगी प्रापर्टी के सौदे संबंधी कागजात मिल गए। इसके बाद पटेल दो दिन तक चैनलों में जम कर धुलते रहे। बाद में एक दिन पटेल ने अपना पक्ष रखा, लेकिन उससे पहले तो चैनल उनको अच्छी तरह धोकर सरेआम सुखा चुके थे।

