संविधान के क्रियान्वयन के तीन मुख्य स्तंभों- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के सजग एवं सतर्क संयोजन द्वारा ही सत्ता का कार्य-निष्पादन सुचारु रूप से चल सकता है। इस आधार पर ईमानदारी से चलने वाला शासन ही जन-हितार्थ योगदान कर सकता है। ऐसा होने पर ही लोकतंत्र की आत्मा से सामान्यजन का सुखद संपर्क स्थापित हो सकता है और शासक-शासित में पारस्परिक विश्वास पनपता है। इस प्रकार के समन्वय से जो अपेक्षा है, वह हमें गांधीजी बहुत पहले ही समझा गए थे- ‘मेरी दृष्टि में सत्ता कोई साध्य नहीं है, परंतु जीवन के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत सुधार सकने का एक साधन है।
राजनीतिक सत्ता का एक खास अर्थ होता है
राजनीतिक सत्ता का अर्थ है राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करने की शक्ति’। इसके शब्दार्थ और भावार्थ से कितने जन-प्रतिनिधि परिचित होंगे और उनमें से कितने इसे व्यावहारिकता में उतारने का प्रयास करते होंगे? गांधीजी के मूल्यों और जीवन-दर्शन का सम्मान करने और तदनुसार आचरण करनेवाले लोग उनके जीवन काल में हर तरफ मिलते थे। उसके बाद के कुछ वर्षों तक देश के हर भाग में, हर शहर-कस्बे और गांव में भी युवाओं के लिए वे अद्भुत प्रेरणास्रोत बन जाते थे। इनमें से जो कुछ सत्ता में आ गए थे, वे भी अलभ्य नहीं हुए थे। उनका और जनता का संपर्क, संबंध और संवाद वैसा ही बना रहा, जैसा स्वतंत्रता आंदोलन के समय रहा था। अब यह तिरोहित हो चुका है।
विभाजित भारत में सत्ता गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के नेताओं को ही प्राप्त हुई और अनेक दशकों तक उनके ही पास रही। प्रारंभ से ही स्वतंत्र देश में नए-नए राजनीतिक दल अस्तित्व में आने लगे थे, विभिन्न विचारधाराएं भी सशक्त ढंग से लोगों के समक्ष रखी जा रही थीं। पक्ष और विपक्ष संसद में स्वरूप ले चुके थे। पंडित नेहरू देश के लाडले थे, सरदार पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, राजगोपालाचारी जैसे लोगों के प्रति देश में असीम आदर था। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस जैसे लोगों के प्रति सम्मानपूर्ण चर्चा घर-घर होती थी। डा राम मनोहर लोहिया वैचारिक प्रखरता के लिए सराहे जाते थे। वे पंडित नेहरू की तर्कसंगत, तथ्य-आधारित और पैसा-पाई तक की आलोचना जिस ढंग से करते थे, वह सभी युवा-वर्ग को पसंद आती थी। लेकिन नेहरू के प्रति प्यार और अपनत्व में कमी नहीं आती थी।
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यह वह वक्त था, जिसमें देश में पक्ष और विपक्ष जानते और मानते थे कि उनका मुख्य कार्य और उत्तरदायित्व राष्ट्र-पक्ष है, जिसके लिए मिलकर कार्य करना है। अटल बिहारी वाजपेयी पंडित नेहरू जैसे सर्वमान्य शिखर व्यक्तित्व की घोर आलोचना करते थे और नेहरू सराहते थे। भाषा की अशालीनता या संसद में अमर्यादित व्यवहार की कोई संभावना किसी को कल्पना में भी नहीं आती थी। युवाओं के बीच इस पर बहस होती थी कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के संबंध में सरकार और अधिक प्रयास करे। शहीदों और बलिदानियों पर युवा वर्ग अत्यंत प्रेरणास्पद चर्चा करता था।
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बड़ी हो रही नई पीढ़ी जानती थी कि आजादी पूरी तरह ‘बिना खडग बिना ढाल’ के ही नहीं मिली है, अनेक अन्य महत्त्वपूर्ण योगदान भी इसके लिए जिम्मेवार थे और धीरे-धीरे वे भी भारत के इतिहास का हिस्सा अवश्य बनेंगे। भारत की स्वतंत्रता का अधिकार पूर्वक निर्णय लेने वाले ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री लार्ड एटली कुछ वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के राज्यपाल को बता गए थे कि अंग्रेजों के जाने के कारणों में मुख्य था आजाद हिंद फौज के प्रति देश में जबरदस्त समर्थन, नौ-सेना का विद्रोह और सेना का समर्थन न मिल सकने की स्थिति का निर्मित होना! इतिहासकार आपसी चर्चा द्वारा शायद ही कभी एकमत हो सकें, लेकिन जनमानस सभी के योगदान को स्वीकारता है। प्रश्न यह है कि संघर्षों से मिली आजादी को संवारने के लिए क्या हम सहमत होकर जनहित में आगे बढ़ने के उत्तरदायित्व का निर्वहन कर पाए?
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पीढ़ियां बदलीं, सत्ता में जाकर लोगों ने देखा कि उनकी शक्ति असीम हो गई है, वे उस चकाचौंध में न केवल गांधी को भूल गए, उनके सिद्धांतों को अव्यावहारिक मानने लगे, वे उन लोगों को भी भूल गए, जिनके मत देने के अधिकार के उपयोग के कारण ही वे सत्ता तक पहुंचे थे। लोकतंत्र की आत्मा को समझने का अधिकांश ने प्रयास ही नहीं किया। यह समझ केवल उनको ही मिलती है जो जनसेवा से अपने कार्य का प्रारंभ करते हैं। जो ऐसा करके आगे नहीं बढ़ते हैं, उनके लिए लोकतंत्र का अर्थ और संविधान का सार केवल अगला चुनाव जीतना मात्र रह जाता है। चुनाव जीतना अब मुख्य रूप से धनाश्रयी हो गया है। जिस पर अकूत धन नहीं है, चुनाव व्यवस्था से स्वत: ही बाहर हो गया है। राजनीतिक दल अब गुण-दोष, उपयुक्तता या अनुपयुक्तता को किनारे रख कर केवल जीतने की संभावना को प्राथमिकता देते हैं।
गांधीजी का वह अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति कई वर्षों से यह सब देख तो रहा था, मगर समझने में उसे समय लग रहा था। उसकी बेचैनी बढ़ने लगी, उसने सत्ता बदलना सीख लिया। मगर आज सामान्य नागरिक ठगा-सा देख रहा है: मंत्रियों, न्यायाधीशों, नौकरशाहों, अनेक छोटे स्तर के अधिकारियों के घर से अकूत धन संपत्ति मिलती है। सुधार की अनेक प्रक्रियाएं चलाई जाती हैं। दशकों चलती रहती हैं। आश्वासन तो सर्वोदयी राज्य का था, अंत्योदय का था, लेकिन भारत का लोकतंत्र क्या उस सबसे निकटता प्राप्त कर रहा है, या लगातार दूर होता जा रहा है? इस देश में आजादी के बाद की युवा पीढ़ी ने अनेक विरोधाभास देखे हैं। संविधान के प्रावधानों पर हर प्रकार के प्रहार होते हुए भी देखे हैं।
भारतीयों की मूल प्रवृत्ति की जितनी गहन समझ गांधी को थी, वह आज भी अद्वितीय मानी जाएगी। आज संवाद की लगातार घटती जा रही स्थिति देश के हित में तो नहीं हो सकती है। भारतीय संस्कृति की यह उपलब्धि रही है यहां के लोगों ने लोकतंत्र की मूल भावना- मिल-बैठकर समाधान निकालना- हजारों साल पहले से ही सीख लिया था। उसी को याद करके हम यह गर्व से कहते है कि लोकतंत्र की जननी भारत ही था, लेकिन स्वयं संवाद द्वारा किसी विवाद का समाधान निकालने का प्रयास लगभग बंद कर चुके हैं। सबसे अधिक चिंता की स्थिति यह है कि इसके लिए सजग और सार्थक प्रयास भी नहीं हो रहे हैं। इस स्थिति को सुधारना वरिष्ठ सम्मानीय जनों का तो दायित्व है ही, संसद और विधायिकाओं का भी है। संवादहीनता की स्थिति देश का हित नहीं कर रही है।