आज पंद्रह अगस्त है, सो हिसाब लेने का वक्त। कितना परिवर्तन और विकास देखा है हमने पिछले पंद्रह अगस्त के बाद? देश का हाल बेहतर हुआ है या बदतर? आर्थिक तौर पर कितना नुकसान किया है कोविड की भयानक दूसरी लहर ने? उस भयानक दूसरी लहर को काबू में लाते समय मोदी सरकार ने समझदारी और क्षमता दिखाई या नाकाबिलियत? सवाल और भी हैं, लेकिन मेरी नजर में सबसे बड़े यही हैं। इनको पूछने के बाद जब इस लेख को लिखने बैठी तो साफ दिखा कि सात वर्षों के कार्यकाल में जितना बुरा यह साल रहा है मोदी के लिए, उतना बुरा पहले कोई और नहीं था।

शुरू करते हैं जनवरी से, जब प्रधानमंत्री ने सीना तान कर वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम को नसीहत दी कि भारत ने जैसे कोविड को हराया है, उससे दुनिया सीख ले सकती है। इस बात को कहा मोदी ने यह भूल कर कि टीकों के जो ऑर्डर पिछले साल दिए थे विकसित देशों ने, हमने नहीं दिए। आत्मनिर्भरता का भूत सवार था मोदी पर, सो इंतजार करते रहे अपने ‘वोकल फॉर लोकल’ टीकों का। अब भी उन आला अधिकारियों को दंडित नहीं किया गया है, जिन्होंने इतनी बड़ी गलती की थी। जब राज्य सरकारों ने हल्ला मचाना शुरू किया टीकों के अभाव को लेकर, तो मोदी ने अपना पल्ला झाड़ कर टीकों की खरीदारी मुख्यमंत्रियों के हवाले कर दी। क्या उनके सलाहकारों में एक भी नहीं था, जो उनको बता सके कि विदेशों से बड़े पैमाने पर टीके खरीदने की क्षमता सिर्फ भारत सरकार रखती है?

इतने में आ पहुंची कोविड की दूसरी लहर ऐन उस समय, जब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बंगाल जीतने में लगे हुए थे। बंगाल हारने के बाद ही उनको दिखा कि लोग न सिर्फ कोविड से मर रहे थे, आॅक्सीजन की गंभीर कमी से मर रहे थे, अस्पतालों में बिस्तर न मिलने की वजह से मर रहे थे, दवाइयां न मिलने की वजह से मर रहे थे। इतने लोग मर रहे थे रोज कि श्मशानों में दिन-रात चिताएं जल रही थीं। उस समय न प्रधानमंत्री दिखे, न गृहमंत्री।

जब लहर थोड़ी शांत होने लगी, तो प्रधानमंत्री दिखे अपने वर्चुअल रूप में आंखें पोंछते हुए। लेकिन इसके फौरन बाद शुरू किया उन्होंने अभियान सत्य को दफनाने का। दिल्ली में सरकारी दफ्तरों के सामने, बस अड्डों पर और पेट्रोल पंपों पर बड़े-बड़े पोस्टर अचानक दिखे, जिनमें उनके चेहरे के साथ लिखे थे बड़े अक्षरों में ये शब्द- ‘धन्यवाद मोदी जी’। वाराणसी जब गए मोदी किसी उद्घाटन के लिए तो कह दिया कि इस राज्य की सरकार ने कोविड पर काबू पाने के लिए सबसे अच्छा काम किया है। गंगाजी में लाशें? रेतीली कब्रों में लाशें? सब झूठ है जी। झूठ फैला रहे हैं वे लोग, जो भारत का विरोध करते हैं।

ये वही राष्ट्रविरोधी लोग हैं, जिन्होंने किसानों का साथ दिया। वही लोग, जिन्होंने शाहीन बाग में प्रदर्शन करती ‘जिहादी’ मुसलिम महिलाओं का समर्थन किया था। कोविड की बातें करने के बजाय हम बातें करने लगे राष्ट्रवाद की और ऐसा राष्ट्रवाद, जिसने भारतीय जनता पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं को हिम्मत दी जंतर मंतर पर मुसलमानों को ‘काटने’ की बातें करने की। जिनका नारा था ‘हिंदुस्तान में रहना है तो जय श्रीराम कहना है’। इस तरह की बातें रोज सुनाई देती हैं सोशल मीडिया पर इन दिनों और जो करते हैं गर्व से कहते हैं कि वे मोदी भक्त हैं। ऐसे लोगों को शरण मिलती है ऊपर से किसी ताकतवर राजनेता की। नहीं मिल रही होती तो उन जंतर मंतर वाले नारेबाजों पर राष्ट्रद्रोह के आरोप क्यों नहीं लगे हैं अभी तक?

रही बात अर्थव्यवस्था की, तो उस पर मंदी ऐसी छाई हुई है कि विशेषज्ञ मानते हैं कि 2022 तक छाए रहेंगे ये बादल। आम लोगों से जब मैं बात करती हंू, तो बेझिझक कहते हैं कि उनकी नजरों में सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है, बीमारी नहीं। इतने लोग बेरोजगार हुए हैं इस साल कि करोड़ों की तादाद में शहरों को छोड़ कर अपने गांव चले गए कोविड की दूसरी लहर के शुरू होते ही। जब काम ही नहीं है शहरों में, तो और क्या कर सकते थे?

हिमाचल के एक ड्राइवर से मैंने जब पूछा कि सरकार की तरफ से क्या मदद मिली है उसके गांव के लोगों को, तो उसने कहा, ‘मेरी मां को दो हजार रुपए की एक किश्त आई है उन छह हजार रुपयों में से, जो गरीब परिवारों को हर वर्ष मिल रहे हैं। इतने थोड़े पैसों से कैसे गुजारा चलेगा?’ कहने को तो भारत सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर रही है बड़ी-बड़ी गरीब कल्याण योजनाओं पर, लेकिन यथार्थ यह है जमीन पर कि उनका असर इतना मामूली है कि जो लोग पिछले साल तक गरीब नहीं माने जाते थे, अब गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गए हैं।

तो आज लालकिले से देश के ‘प्रधान सेवक’ अपनी सरकार की गलतियां स्वीकार करेंगे क्या? जनता के जख्मों पर मलहम लगाने की कोशिश करेंगे क्या? मेरा अपना अनुमान है कि ऐसा बिलकुल नहीं करेंगे। उल्टा इस बात को साबित करने की कोशिश करेंगे कि भारत में चल रहा है दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान। इस बात को साबित करने की कोशिश करेंगे कि जितना उनकी सरकार कर सकती थी इस कठिन दौर में किया गया है।

शाबाशी देंगे अपने आपको और अपनी सरकार को। इसको कह रही हूं मैं इसलिए कि इस लेख को लिखने से पहले मैंने अंदरूनी दिल्ली का एक चक्कर मारा और देखा यह कि तकरीबन हर मोड़ पर, हर गली में लगे हुए हैं पोस्टर, जिनमें प्रधानमंत्री से हम धन्यवाद कह रहे हैं मुफ्त टीकों के लिए, मुफ्त अनाज के लिए, मुफ्त इलाज के लिए। यानी ‘मोदी है तो मुमकिन है’।