संसद में पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री ने कहा कि कुछ लोग हैं इस देश में, जिनको आंदोलनजीवी कहा जा सकता है। यानी आंदोलन चाहे किसी मुद्दे को लेकर हो इनके चेहरे वहां दिख जाते हैं। राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की जोर की हंसी सुनाई दी प्रधानमंत्री के इस बात के बाद, लेकिन अगले दिन तक कई राजनीतिक पंडितों ने ध्यान दिलाया नरेंद्र मोदी को कि आंदोलन करना भारतीय राजनीति का अहम हिस्सा रहा है आजादी की लड़ाई के समय से। सबसे ज्यादा आंदोलन किए थे गांधीजी ने, तो क्या उनको आंदोलनजीवी कहा जा सकता है?

सो, प्रधानमंत्री ने जब लोकसभा में अपनी बात रखी, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि आंदोलनकारियों और आंदोलनजीवियों में जो अंतर है उसको पहचानना जरूरी है। उनके कहने का मतलब शायद यही था कि आंदोलनकारी अच्छे हैं और आंदोलनजीवी बुरे। सवाल यह है प्रधानमंत्री जी, कि इनमें फर्क तय कौन करेगा? आपके मंत्री? आपके अधिकारी?

इनके हाथों में अगर रहता इस अंतर को तय करना, तो क्या ऐसा नहीं हमेशा होगा कि जब आंदोलन होते हैं मोदी सरकार की शान बढ़ाने के लिए, तो उनको सही ठहराया जाएगा और जब आंदोलन होते हैं मोदी सरकार के विरोध में तो उनको गलत ठहराया जाएगा। यह सवाल महत्त्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि जबसे नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध करने मुसलमान निकले थे पिछले साल, तबसे मोदी के भक्तों की प्रतिक्रिया रही है आंदोलनकारियों को हमेशा बदनाम करने की।

शाहीनबाग की बुजुर्ग दादियों को जिहादी कहा इन लोगों ने। शाहीनबाग प्रतीक बन गया देशद्रोह का और गृहमंत्री के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हुआ इसके खिलाफ। मैं उन मुट्ठीभर पत्रकारों में थी, जिन्होंने इन महिलाओं से मिलने के बाद कहा कि ठंड में रात-दिन सड़क पर अपना आंदोलन इसलिए जारी रखा था, क्योंकि उनको वास्तव में चिंता थी कि इस कानून के बाद अगर एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) लाया जाता है, तो मुसलमानों को अपनी भारतीयता साबित करनी होगी। इसके बाद मुझे इतनी गालियां सुननी पड़ीं मोदी के भक्तों से कि क्या बताऊं।

किसानों ने जब अपना आंदोलन शुरू किया नए कृषि कानूनों के खिलाफ तो बिल्कुल यही हुआ उनके साथ, जिन्होंने कोशिश की उनके पक्ष में बोलने की। आंदोलन को बदनाम करने के लिए मोदी के भक्तों ने सिख किसानों को खालिस्तानी कहा, लेकिन इस बार वे आंदोलन को बदनाम करने में सफल नहीं रहे, इसलिए कि सिख किसानों ने याद दिलाया कि उन्हीं के भाई और बेटे तैनात हैं भारत की सीमाओं पर देश को दुश्मनों से सुरक्षित रखने के लिए। बदनाम करने के प्रयास बंद हुए, लेकिन दिल्ली की सीमाओं पर कंटीले तार और लोहे की बड़ी-बड़ी कीलें लगाई गर्इं, जैसे राजधानी को देश के दुश्मनों से बचाने की आवश्यकता सामने आई हो।

जब सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ कुछ विदेशी लोगों ने आवाज उठाई तो भारत सरकार और भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं ने कोशिश की इनको खालिस्तान समर्थक साबित करने की। यह कोशिश अभी तक जारी है और संसद में प्रधानमंत्री ने खुद कहा है कि एक नए किस्म का एफडीआई आ रहा है भारत में, जिसको फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी कहा जा सकता है।

विदेशी विनाशकारी विचारधारा। इसके बाद शुरू हुई ट्विटर के खिलाफ बयानबाजी। मोदी के भक्तों ने खूब हल्ला मचा रखा है और कइयों ने ट्विटर पर ही कहा है कि वे अब कू पर अपनी बातें रखेंगे, ट्विटर पर नहीं, क्योंकि ट्विटर भारत सरकार का कहना नहीं मान रहा है। कू एक भारतीय सोशल मीडिया साइट है।

इन सब चीजों को देख कर सच पूछिए तो मैं हैरान रह गई हूं। मैंने पत्रकारिता में पहला कदम रखा था इंदिरा गांधी के दौर में, सो यकीन मानिए जब मैं कहती हंू कि उनके बाद अगर कोई प्रधानमंत्री अति-शक्तिशाली देखा है इस देश ने तो उसका नाम है नरेंद्र मोदी। इसलिए समझ में नहीं आता है कि उनकी सरकार क्यों इन दिनों ऐसे पेश आ रही है जैसे वह अपने साए से भी डर गई है।

विपक्ष का हाल इतना मरियल है कि मोदी की किसी भी नीति का विरोध होता है उस तरफ से, तो इतना कमजोर होता है कि परवाह की कोई बात नहीं। मीडिया ज्यादातर अब कब्जे में हैं मोदी सरकार के। ऊपर से सर्वेक्षण बताते हैं कि मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता चरम सीमा पर है और उनको छोटी-मोटी चुनौती भी नहीं दे सकता है कोई। तो डर किस बात का है इतना कि हर हफ्ते किसी नए तथाकथित दुश्मन से लड़ने निकल जाते हैं मोदी के सिपाही?

ग्रेटा थनबर्ग और रिहाना से युद्ध क्या समाप्त हुआ कि अमेरिका की उपराष्ट्रपति की भानजी मीना के पीछे पड़ गए मोदी भक्त। जब एक जानेमाने सोशल मीडिया योद्धा ने मीना हैरिस को कहा ट्वीट करके कि उसने अपना हिंदू-विरोधी चेहरा दिखा दिया है, उसने जवाब में मजाक करते हुए ट्वीट किया ‘डूड मैं हिंदू हूं। धर्म की आड़ लेकर आप अपनी फासी विचारधारा मत फैलाया करो’।

मीना हैरिस के बाद बारी आई ट्विटर की। जिस जगह हावी रही है पिछले सात वर्षों से भारतीय जनता पार्टी की ट्रोल सेना, उसी जगह को बदनाम करने में लग गए हैं अब मोदी के भक्त। हो क्या रहा है प्रधानमंत्री जी? कौन-सी घटना हुई है, जिसके कारण आपके और आपके भक्तों को इतना डर अचानक लगने लगा है? कौन-सा राजनेता है भारत देश में, जो आपको चुनौती दे सकता है?

क्या जरूरत है आंदोलनजीवी जैसे आरोप लगा कर आंदोलनों को बदनाम करने की? आंदोलन जिस देश में होते हैं सरकार के खिलाफ, वे साबित करते हैं कि उस देश में लोकतंत्र अभी जिंदा है और कौम भी। आंदोलन सिर्फ उन देशों में नहीं होते, जहां चुने हुए राजनेता नहीं, तानाशाह होते हैं।