नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल का दूसरा साल पूरा हुआ पिछले सप्ताह। आमतौर पर 26 मई को सुनने को मिलती हैं ढेर सारी तारीफें मोदी के ‘नेतृत्व’ की। पिछले साल भी ऐसा हुआ, बावजूद उस पूर्णबंदी के, बावजूद भूखे-प्यासे प्रवासी मजदूरों के अपने गांवों तक पैदल जाने के सैंकड़ों दर्द भरे किस्सों के। मोदी को किसी ने दोष नहीं दिया था, बल्कि उनके भक्तों की तादाद बढ़ गई थी और उनकी शान भी। उनके आलोचक और विरोधी भी मान गए थे कि उन्होंने नेतृत्व दिखाया और निर्णायकता भी। याद है मुझे, कितनी बार सुनने को मिले ये शब्द : मोदी न होते तो लाशों के ढेर लग गए होते सड़कों पर। जब कोरोना के उस पहले दौर ने जान का उतना नुकसान अपने देश में नहीं किया, जितना कई विकसित पश्चिमी देशों में हुआ था, तो इसका श्रेय मोदी को दिया गया।
इस साल जमाना ऐसा बदल गया है कि 26 मई को न कोई जश्न मनाया भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों ने और न ही प्रधानमंत्री की प्रशंसा सुनाई दी। देश-विदेश में कसीदों के बदले मोदी की इतनी निंदा सुनने को मिल रही है आज कि जबसे करोना का यह दूसरा दौर आया है भारत सरकार के आला अधिकारी और मोदी के भक्त उनकी बिगड़ी हुई छवि की मरम्मत करने में लगे हुए हैं। मेरे पत्रकार बंधुओं में जो कभी उनके सबसे कट््टर प्रशंसक थे, वे भी दबी जबान कहने लग गए हैं कि जब नेतृत्व दिखाने की सबसे ज्यादा जरूरत थी, प्रधानमंत्री ऐसे गायब हुए हैं कि अब दिखने को मिलता है सिर्फ उनका वर्चुअल रूप। वह भी दिखने लगा बहुत बाद में जब आक्सीजन के अभाव से अस्पतालों में मरने लगे थे लोग, जब गंगा किनारे रेतीली कब्रें दिखने लगी थीं और जब दुनिया देख चुकी थी कि ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सेवाएं न होने के बराबर हैं। ऊपर से आरोप लगाने लगे थे जाने-माने वैज्ञानिक और डॉक्टर कि भारत सरकार मृतकों को लेकर झूठ बोल रही है।
बहुत बुरे दिन देखे हैं हम सबने जबसे यह साल शुरू हुआ है, लेकिन जितना बुरा समय है मोदी के लिए, शायद ही विश्व के किसी बड़े राजनेता के लिए दिखा है। दुनिया में कई राजनेता हैं, जिनको कोरोना ने चुनौती दी है, लेकिन इतनी तेजी से नहीं। देश-विदेश के सर्वेक्षण दिखा रहे हैं कि उनकी लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है पहली बार। साबित-सा हो गया है कि जिस राजनेता की काबिलियत पर उनके दुश्मनों ने भी कभी शक नहीं किया था वे नाकाबिल साबित हुए हैं। हैरान करने वाली बात यह भी है कि अभी तक भारत सरकार ने उन दो सौ करोड़ टीकों का आदेश नहीं दिया है, जिनके बिना हम इस महामारी को हरा नहीं पाएंगे।
जिन देशों के राजनेताओं ने पिछले साल ही पैसे देकर टीकों के आदेश दे दिए थे उन मुट्ठी भर कंपनियों को, जो टीके बनाती हैं उन देशों में, आज सामन्यता दिखने लगी है। अपने प्रधानमंत्री ने पिछले सप्ताह स्वीकार किया बुद्ध पूर्णिमा के दिन बौद्ध समाज को वर्चुअल रूप से संबोधित करते हुए कि टीकाकरण ही अकेला हथियार है कोरोना को हराने के लिए। लेकिन पिछले महीने जब श्मशानों में शवों की कतार लगने लग गई थी, उन्होंने अपना ‘टी-टी-टी’ वाला नुस्खा दोहराया। यानी ‘टेस्ट, ट्रेस, ट्रीट’।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अब भी इस उपाय में विश्वास जता रहे हैं और यह भी कहना नहीं भूलते कि अपने राज्य में कोरोना को हरा चुके हैं। गंगा किनारे रेतीली कब्रों को जैसे वे अभी तक देखे ही नहीं हैं। मोदी की साख अगर गिरी है तो उतनी ही गिरी है उनके दो सबसे करीबी समर्थकों की। योगी कम से कम दिखते तो हैं टीवी के उत्तर प्रदेश सरकार के इश्तहारों में, देश के गृहमंत्री तो इन दिनों दिखते ही नहीं हैं।
क्या इसलिए कि शर्मिंदा हैं कि बंगाल में उनका सरकार बनाने वाला दावा झूठा निकला? या इसलिए कि मोदी उनसे खुश नहीं हैं? ऐसी अफवाहें सुनने को मिल रही हैं दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में, शायद इसलिए कि आपदा के समय गृह मंत्रलाय की जिम्मेदारी होती है हल ढूंढ़ने की। लेकिन जबसे बंगाल में चुनाव प्रचार शुरू हुआ था इस साल के शुरू होते ही, तबसे गृहमंत्री बड़ी-बड़ी सभाओं को संबोधित करते ही दिखे, गृह मंत्रालय में नहीं।
अजीब इत्तेफाक था कि जिस दिन मोदी के दूसरे कार्यकाल का दूसरा साल पूरा हुआ, उसी दिन किसानों ने काला दिवस मनाया, याद दिलाने के लिए कि उनका कृषि कानूनों का विरोध चलते छह महीने पूरे हो गए हैं और अभी तक भारत सरकार उन तीन कानूनों को वापस लेने की बात तक करने को तैयार नहीं है। इतने बुरे वक्त में प्रधानमंत्री के अपने हित में है कि किसी न किसी तरह किसानों की समस्याओं का समाधान निकाल कर दिखाएं। इन कानूनों को वापस लिए बिना कोई हल नहीं दिखता है, इसलिए कि उनकी सरकार में अब विश्वास नहीं रहा है किसानों का। बात सारी विश्वास की ही तो है। जो विश्वास था भारतवासियों का अपने प्रधानमंत्री के नेतृत्व में वह फिलहाल गायब-सा हो गया है।
इस विश्वास को जब तक नहीं दोबारा हासिल कर पाएंगे, तब तक मोदी के ये बुरे दिन समाप्त नहीं होंगे। लेकिन समस्या यह है कि इस विश्वास को पाने के लिए जो सबसे जरूरी चीज है, वह है टीकाकरण का विशाल अभियान, जो अभी तक दूर क्षितिज पर भी नहीं दिखता है, इसलिए कि इतने बड़े देश के लिए इतने टीके अब आएंगे कहां से? जब अभाव दिखा तो मोदी ने जिम्मेदारी डाल दी मुख्यमंत्रियों पर, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। सवाल है सिर्फ मोदी की रहबरी का। बताइए प्रधानमंत्रीजी ‘काफिला क्यों लुटा?’