निशान साहिब को लालकिले की प्राचीर पर देख कर कुछ पुरानी, डरावनी यादें ताजा हो गईं। वह दौर याद आया, जब पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने राज किया था अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में शरण लेकर। इस गुरद्वारे से उसने दो साल तक इतनी अराजकता फैलाई कि आखिर में गुरद्वारे के अंदर सेना भेजने की नौबत आई और भिंडरांवाले और उसकी आतंकवादी सेना के साथ युद्ध करना पड़ा था, जिसमें उसकी मौत हुई। इसके बाद कई महीने पंजाब को सैनिक शासन में रखना पड़ा था, ताकि पंजाब के गांवों में जाकर भिंडरांवाले के समर्थकों और आतंकवादी सिपाहियों को ढूंढ़ने का काम पूरा किया जा सके।
हजारों बेगुनाह पंजाबी युवा भी पकड़े गए थे इस मुहिम में। इसके बाद सिख युवा सीमा पार करके पाकिस्तान जाने लगे आतंकवाद का प्रशिक्षण लेने। वापस जब आए तो पंजाब में इतनी अराजकता फैलाई उन्होंने कि एक दशक तक इस राज्य में विकास नहीं हो पाया।
यहां स्पष्ट करना चाहती हूं कि यह नहीं कह रही हूं कि ऐसा फिर होने वाला है, लेकिन एक जट सिख परिवार में मेरी परवरिश हुई है, सो जानती हूं कि सिखों को बचपन से सिखाया जाता है कि तशदुत का विरोध करना उनका धर्म है। बचपन से सिखाया जाता है कि गुरु गोविंद सिंह ने सिखों को खालसा बनने की शिक्षा दी, ताकि मुगलों की तानाशाही के खिलाफ लड़ सकें।
बचपन से सिखाया जाता है कि अकाल तख्त को मुगल बादशाह के तख्त से ऊंचा बनाया गया था, ताकि बादशाह जान जाएं कि सिखों के लिए उनके वाहेगुरु का तख्त उनके तख्त से ऊंचा है। मुगल बादशाह का तख्त लालकिले में हुआ करता था, सो लालकिला तशदुत का प्रतीक है कई सिखों के लिए। सो, उसकी प्राचीर पर निशान साहिब को देखकर अजीब-सा खौफ बैठ गया है मेरे दिल में।
मैं भविष्यवाणी नहीं कर रही हूं कि फिर से वह आतंकवाद और अराजकता का दौर आने वाला है। इतना जरूर कहना चाहती हूं लेकिन कि पाकिस्तान पूरी तरह कोशिश कर रहा है उस दौर को वापस लाने का। पाकिस्तान के पैसों पर पल रही हैं पश्चिमी देशों में कई खालिस्तानी संस्थाएं, जिनमें से एक का नाम है ‘सिखों के लिए न्याय’ जो मुझे हर दूसरे दिन पत्र भेजती है।
जो पत्र गणतंत्र दिवस के अगले दिन भेजा गया था, उसमें तीन लाख अमेरिकी डॉलर का इनाम घोषित किया गया है उनके लिए, जिन्होंने लालकिले की प्राचीर पर खालसा ध्वज फहराया था। इतने पैसे ऐसी संस्थाओं के पास कहां से आ रहे हैं, वह आप खुद सोच लीजिए। कहना यह चाहती हूं मैं कि किसी न किसी तरह किसानों की समस्याओं का हल भारत सरकार को ढूंढ़ना चाहिए शीघ्र ही।
मेरी राय में भारत सरकार ने शुरू से विरोध करते किसानों के क्रोध को भड़काने का काम किया है, बुझाने का नहीं। शुरू में वरिष्ठ मंत्री टीवी पर दिखे, आरोप लगाते हुए कि नए कृषि कानूनों का विरोध सिर्फ सिख किसान कर रहे हैं और इनके पीछे खालिस्तानी ताकतें हैं।
जब दिखा कि इनके साथ हरियाणा और उत्तर प्रदेश के भी किसान हैं, तो आरोप बदल कर यह लगाया गया कि इनको भड़का रहे हैं कांग्रेस पार्टी के राजनेता। जिस राजनीतिक दल के पास इतनी भी ताकत नहीं है कि लोकसभा के अंदर उसकी सीटें सौ तक पहुंच जाएं, उस राजनीतिक दल को इतनी शक्ति का श्रेय देना बेवकूफी है। लेकिन इसलिए कि ‘गोदी मीडिया’ ने शुरू से सरकार का पक्ष लिया है, किसानों का नहीं, प्रधानमंत्री निवास तक किसानों की शिकायतें पहुंची नहीं हैं अभी तक।
सच तो यह है कि जिन तीन कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन कर रहे हैं, वे शायद इतने बुरे नहीं हैं, जितना किसान उनको समझ रहे हैं। सच यह भी है कि कृषि क्षेत्र में सुधारों की सख्त जरूरत है और इन कानूनों को इस रास्ते पर पहला कदम माना जा सकता है। ऐसा कहने के बाद लेकिन यह भी सच है कि सरकार ने जिस जल्दबाजी और अकड़ के साथ इनको पारित करवाया है संसद में, उससे किसानों का भारत सरकार की नीयत पर शक होने लगा है।
भारत सरकार में विश्वास इतना घट गया है किसानों का कि ग्यारह बार बातचीत करने के बाद भी किसान अड़े रहे हैं कानूनों कि वापसी पर। तो गलती क्या हो रही है सरकार की तरफ से?
विनम्रता से अर्ज करना चाहती हूं कि समय आ गया है कि प्रधानमंत्री स्वयं बात करें किसानों से। किसान बार-बार कह चुके हैं कि वे जानते हैं कि ‘मोदी-शाह’ के अलावा कोई भी मंत्री निर्णय नहीं ले सकता है भारत सरकर में। ऐसा सिर्फ किसान नहीं कहते हैं, मुंबई के बड़े-बड़े उद्योगपति और कारोबारी भी ऐसा कहते हैं, क्योंकि ऐसी छवि बनी हुई है देश भर में मोदी सरकार की। तो क्यों नहीं प्रधानमंत्री अपना हठ त्याग कर किसानों से खुद बात करने के लिए राजी हो जाते हैं?
गणतंत्र दिवस पर जो हुआ उससे साबित हो गया है कि अब कृषि कानूनों से बहुत बड़ी हो गई है यह समस्या। इन कानूनों को अगर अठारह महीनों के लिए स्थगित करने के लिए राजी हो गई है सरकार तो क्यों नहीं इनमें सुधार लाने के लिए भी राजी हो जाती है किसान नेताओं को इस कार्य में शामिल करके।
पंजाब में किसी हाल में दुबारा वह दौर नहीं आना चाहिए, जो हमने अस्सी और नब्बे के दशकों में देखा था। पाकिस्तान को किसी हालत में मौका नहीं देना चाहिए खालिस्तान को बेमतलब, झूठा सपना फिर से जीवित करने के लिए। सिखों की देशभक्ति पर कोई शक नहीं कर सकता, लेकिन उनको भड़काने वालों की लंबी कतार है।