मैं पत्रकार हूं इसलिए लोग मुझे बुद्धिजीवी कहते हैं। मुझे अपने लिए पत्रकार शब्द अच्छा नहीं लगता। पत्रकारिता करने में मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही है। वैसे एक अरसे से यह शब्द चलन में हैं, अंग्रेजी के जर्नलिस्ट शब्द का सही अनुवाद भी है, पर मुझे ठीक नहीं लगता है। मैं अपने को खबरनवीस कहना ज्यादा पसंद करता हूं। खबर लिखना, संपादन करना और उस पर टिप्पणी करना मेरा सिर्फ पेशा नहीं, बल्कि मेरे व्यक्त्वि का बड़ा हिस्सा भी है।
कई लोग कहते हैं कि आप हिंदी के ‘पत्रकार’ को छोड़ कर उर्दू के ‘खबरनवीस’ का क्यों इस्तेमाल करते हैं? मेरा जवाब दोटूक होता है- मैं हिंदी और उर्दू में भेद नहीं करता हूं। मेरा जो सहज शब्दकोश है उसमें से मैं अपने काम के शब्द चुन लेता हंू और उनको प्रयोग में लाता हूं। अगर मैं अच्छी संस्कृत जानता होता, और उसको रोजमर्रा की जिंदगी में बरत रहा होता, तो जरूर उसमें से अपने लिए सटीक शब्द चुनता- जैसे मैं अक्सर अंग्रेजी की शब्दावली के साथ करता हूं। पर मैं संस्कृत बोलता नहीं हूं।
हिंदुस्तानी बोलता हूं। मेरे लिए जो सहज है, सटीक है वह मेरी लिखने-पढ़ने की भाषा है। मैं मानता हूं कि अपने विचारों और भावों की भाषा में किसी तरह का लिजलिजापन नहीं होना चाहिए। भाषा दिमाग पर लदा बोझ नहीं है, जो एहसासों को लड़खड़ा दे, उन्हें जुबान पर आने से पहले ही दबा दे। भाषा संदेश का माध्यम है, संदेश नहीं है। भाषा बुद्धि को प्रकट करती है, स्वयं बुद्धि नहीं है।
खैर, पत्रकार कहें या खबरनवीस, बुद्धिजीवी कहें या दानिश्वर, अक्लोदानिश का तकाजा है किपत्रकार स्वंभू बुद्धिजीवी नहीं होता है। वह सड़क से, मैदानों से, संसद से और विभिन्न प्रकार के संपर्कों से सूचना और जानकारी बीनता है और अपने पेशे की रोशनखयाली से उस पर तप्सरा करता है। इसमें बुद्धि जरूर लगती है, पर उससे ज्यादा जरूरी होता है उसका हौसला। पत्रकार हो, चाहे उच्च स्तर का अध्ययन करने वाला विद्वान या फिर शिक्षक, बुद्धिजीवी की सबसे बड़ी पहचान उसका हौसला है।
ग्रीक दार्शनिक सुकरात ने जहर का प्याला पी लिया था, पर अपने खयालात की बुलंदी बनाए रखने का हौसला नहीं छोड़ा था। वास्तव में, बुद्धिजीवी इतिहास का विशाल वृक्ष, ऐसे गुणकारी फलों से लदा हुआ है, जो बुद्धि के बीज और हौसले के उर्वरक का नतीजा है। व्यावहारिक बुद्धि से बुद्धिजीवी परास्त नहीं हो सकता है। उसका अध्ययन व्यर्थ नहीं जाता है। व्यावहारिक अल्प बुद्धि के शोर में बुद्धिजीवी शामिल नहीं होता है। वह उन्माद को अक्सर रास्ता दे देता है, क्योंकि उसको मालूम है कि जब ज्वर उतर जाएगा तो स्वास्थ्यलाभ के लिए वह लौट-फिर के सोच पर ही आश्रित होगा।
बुद्धि का उचित और पूर्ण उपयोग तमाम लोगों में से कुछ विशेष लोगों का हुनर है। सिर्फ हुनरमंद लोग बहस कर सकते हैं और उससे निष्कर्ष निकाल कर नई सोच के पायदान बना सकते हैं। इन पायदानों पर चढ़ कर समाज एक ऊंचाई से दूसरी ऊंचाई पर पहुंचता है।
जो आंदोलित है वह पत्रकार है, बुद्धिजीवी है। सुप्त या व्यावहारिक बुद्धि वाला न वास्तव में पत्रकारिता करता है और न कोई और काम। वह तो बस नौकरी करता है। अपने जमा-खर्च का बही-खाता समेटे रोज दफ्तर जाता है और निर्धारित श्रम करके वापस चला आता है। हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग इस दैनिक फेरे में उलझा है।
वह अपने फेरे से कभी निराश होता है, कभी उत्साहित, तो कभी उसको अपने कर्म पर गुस्सा आता है। पर वह वास्तव में आंदोलित नहीं होता है, क्योंकि नौकरी केतकाजे के बावजूद उसमें बुद्धिजीवी होने का हौसला नहीं है। उसकी आखों की रौशनी उसके दिमाग को रौशन नहीं करती है। वह देखता तो है, पर देखे पर गौर नहीं करता है। ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि बुद्धि उसके जीवन का एक अंग है, उसका पूरा जीवन नहीं है। दूसरी तरफ, बुद्धिजीवी का जीवन उसमें पूर्णत: लिप्त है।
बुद्धिजीवी किताबी कीड़े या पढ़े-लिखे अनपढ़ का दूसरा नाम नहीं है। अध्ययन, कल्पना और व्यावहारिक संरचना उसके रचनात्मक उद्देश्य हैं। जहां आज हम खड़े हैं- सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, आध्यात्मिक या अन्य रूपों में- उसके आधार में सिर्फ और सिर्फ बुद्धिजीवी है। वेदों और शास्त्रों का ज्ञान किसी चक्रवर्ती राजा, प्रतापी सेनापति या राजनीति कुशल नायक की देन नहीं है। यह सब तो परजीवी हैं- इनका पराक्रम किन्हीं और के बूते पर होता है। किसी का खून और हर में बदहवासी इनकी जय की खुराक है।
बुद्धिजीवी स्वजीवी है। वह किसी के लठ्ठे की दीमक या खेत की खर-पतवार नहीं है।
बुद्धि से कमा कर बुद्धि का पालन करता है। उसमें निश्चिंत रहता है। उसे सर पर ताज, कीमती लिबास और महल की शैया की ललक नहीं है। बुद्धि का आहार, बुद्धि का लिबास और बुद्धि स्थित जीवन उसकी फकीरी के मूलतत्व हैं। उसकी फकीरी स्वयं में उत्पन्न होकर दूसरों में बंटती है और फिर खुद में समा जाती है। प्रचार राजा की बैसाखी है, जिसके सहारे वह चलता है। विपरीत प्रचार उसको भयभीत करता है। वह अपने किले के अंधेरे में अनायास ही कैद हो जाता है। बुद्धिजीवी को भय नहीं है, क्योंकि उसकी सोच प्राकृतिक रूप से प्रकाश की तरह फैलती है। किले को भी अपने में समेट लेती है और राजा को बेदखल कर देती है।
मुर्दे बुद्धिजीवी नहीं हो सकते हैं। जो ठंडा हो गया वह आंदोलित क्या होगा? राजा अपनी शानो-शौकत को जिंदा रखने में खुद मुर्दा हो जाता है। राजा आंदोलन नहीं कर सकता है। आंदोलन बुद्धिजीवी की क्रिया है, जो मुर्दे को कब्र तक पहुंचाती है। उसके हर क्षण के आंदोलन से एक तरफ तो ताबूत बनते हैं, तो दूसरी तरफ नई पौध के अंकुर फूटते हैं। उसके लिए दफन करना उतना ही जरूरी है, जितना कि उभारना।
समाज की सांसें साफ हवा से चलती हैं और अगर वह न हो तो दम घुटने लगता है। अपनी क्रिया से राजा उसको कुछ समय तक प्रदूषित कर सकता है, जिसकी वजह से समाज छटपटा जाता है। बुद्धिजीवी आंदोलन की स्वस्थ हवा झल कर प्रदूषण को समाप्त कर देता है।
पत्रकार आंदोलनजीवी है, क्योंकि वह श्रमजीवी है। उसका इंकलाब उसके हौसले से कायम है। अपने दिमाग के हौसले की वजह से वह बुद्धिजीवी है। उसकी सोच उसको हलचल के लिए प्रेरित करती है। सोच हवा है। हवा को कोई बांध नहीं सकता है।