योगेश कुमार गोयल
पाक्सो कानून के तहत नाबालिग के प्रति यौन उत्पीड़न तथा यौन शोषण जैसे अपराध और छेड़छाड़ के मामले में कार्रवाई की जाती है। इसके तहत बारह वर्ष तक की बच्ची से बलात्कार के दोषियों को मौत की सजा भी सुनाई जा सकती है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 2007 में बाल शोध अध्ययन रिपोर्ट में बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए एक सख्त कानून बनाने की सिफारिश की थी।
उसी के आधार पर यह कानून बनाया गया था। इस कानून का मुख्य उद्देश्य अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को यौन दुर्व्यवहार तथा लैंगिक हमलों से सुरक्षा प्रदान करना और उनमें शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक, सामाजिक विकास को सुनिश्चित करने का अवसर देना भी शामिल है।
चिंता की बात है कि इस कानून के तहत जितने दोषियों को सजा मिल रही है, उससे तीन गुना ज्यादा रिहा हो रहे हैं। इस मामले में सबसे बुरा हाल आंध्र प्रदेश का है, जहां पाक्सो कानून के सबसे ज्यादा आरोपी बरी हो रहे हैं। वहां एक आरोपी दोषी ठहराया जाता है, तो सात मामलों में आरोपी बरी हो रहे हैं। पश्चिम बंगाल में भी एक दोषी तो पांच आरोपी बरी हो रहे हैं। देश भर में करीब चौरानबे फीसद मामलों में ऐसा ही हो रहा है।
इसी पर चिंता जताते हुए पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने पाक्सो अधिनियम के तहत दोषी ठहराए गए एक व्यक्ति की अपील खारिज करते हुए टिप्पणी की थी कि इस कानून के तहत अपराध करने वाले व्यक्तियों के प्रति कोई नरमी नहीं बरती जानी चाहिए। खंडपीठ का कहना था कि यौन उत्पीड़न और यौन हमले की प्रकृति के अनुरूप उपयुक्त सजा देकर समाज को बड़े पैमाने पर संदेश दिया जाना चाहिए।
मगर देश की पाक्सो अदालतों में लंबित मामले प्रतिवर्ष बीस फीसद से ज्यादा की दर से बढ़ रहे हैं। 2012 में बच्चों से बलात्कार के 8,541 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2021 में इनकी संख्या 83,348 हो गई। उत्तर प्रदेश में पाक्सो के सबसे ज्यादा मामले लंबित हैं। वहां नवंबर 2012 से फरवरी 2021 के बीच इस कानून के तहत दर्ज मामलों में से 77.77 फीसद लंबित पाए गए।
पश्चिम बंगाल में 74.6, बिहार में 67.6, महाराष्ट्र में 60.2, गुजरात में 51.5, कर्नाटक में 45.5, हरियाणा में 41.4, झारखंड में 38.6, पंजाब में 36, चंडीगढ़ में 35, आंध्र प्रदेश में 33.5, राजस्थान में 24.9 तथा तमिलनाडु में 19.7 फीसद मामले पाक्सो अदालतों में लंबित हैं। इन मामलों के निपटारे की रफ्तार भी साल-दर-साल धीमी हो रही है।
पाक्सो कानून के तहत एक वर्ष की अधिकतम अवधि में फैसला हो जाना चाहिए, लेकिन देश में पाक्सो का एक मामला निपटाने में औसतन पांच सौ दस दिन का समय लग रहा है। दस फीसद से भी ज्यादा मामलों में तीन साल से ज्यादा समय लग रहा है।
देश की राजधानी दिल्ली में तो ऐसे मामलों को निपटाने का औसत समय सर्वाधिक करीब साढ़े तीन साल (1284 दिन) है, जहां औसतन 593 दिन तो सबूत जुटाने और पुष्ट करने में ही लग जाते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों के यौन शोषण के 42 फीसद मामलों में पुलिस की जांच एक साल तक पूरी नहीं हो पाई थी, इसलिए अदालती कार्यवाही शुरू ही नहीं हो पाई।
प्रोत्साहन इंडिया फाउंडेशन की रिपोर्ट में भी यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ है कि पिछले दस वर्षों में बच्चों से बलात्कार के मामलों में 290 फीसद वृद्धि हुई है, जिनमें से 64 फीसद पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाया है। रिपोर्ट के मुताबिक 2017 से अब तक बच्चों के खिलाफ यौन शोषण के 12,6767 मामले दर्ज हुए, जिनमें 99 फीसद मामलों में पीड़ित मासूम बच्चियां हैं।
2021 में प्रति एक लाख आबादी पर 12.1 बच्चे यौन हिंसा के शिकार हुए, जिनमें 52,836 लड़कियां तथा 1038 लड़के शामिल हैं, जबकि 2020 में प्रति एक लाख की आबादी पर 10.6 बच्चे पीड़ित थे, जिनमें 46,123 लड़कियां और 1098 लड़के थे और 2019 में प्रति एक लाख आबादी पर 10.6 बच्चे यौन हिंसा के शिकार हुए, जिनमें 46,005 लड़कियां और 1330 लड़के पीड़ित थे।
दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने पिछले दिनों खुलासा किया था कि दिल्ली में पाक्सो के करीब 88 फीसद मामले लंबित हैं। सेंटर फार चाइल्ड राइट्स ऐंड सिविक डेटा लैब (एचएक्यू) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार 2012 से 2020 के बीच 19,783 मामलों की पहचान की गई। उनमें असम में 74 फीसद तथा हरियाणा में 60 फीसद पाक्सो के मामले लंबित पाए गए। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के कुछ जिलों में तो मामलों के निपटान की दर सबसे कम थी।
2012 से 2021 तक के आंकड़ों में बच्चों के यौन शोषण के मामलों में 94 फीसद आरोपी पीड़ित या उसके परिवार के परिचित होते हैं, केवल छह फीसद मामलों में आरोपी का वारदात से पहले बच्चे से कोई संपर्क नहीं होता। बच्चियों के यौन शोषण के मुकदमों में 48.66 फीसद परिचत ही आरोपी पाए गए। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार सबसे अधिक दुर्व्यवहार ऐसे व्यक्ति करते हैं, जिन्हें बच्चा नजदीक से जानता और उस पर भरोसा करता हो। डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग ने भी बच्चों को जोखिम में डाला है।
विशेषज्ञों का मानना है कि लोगों में बढ़ती जागरूकता के बावजूद अब भी पाक्सो कानून के तहत बहुत से मामले दर्ज ही नहीं हो पाते। बच्चों पर यौन हमले के प्रभाव के बारे में यूनीसेफ इंडिया में बाल संरक्षण प्रमुख सोलेदाद हेरेरो का कहना है कि जिन व्यस्कों ने बचपन में यौन शोषण का सामना किया है, उनमें हिंसा करने की संभावना सात गुना और आत्महत्या की संभावना तीस गुना ज्यादा होती है।
वरिष्ठ वकीलों और कानूनविदों के मुताबिक पाक्सो में दोष सिद्धि काफी कम होने के पीछे सबसे बड़ा कारण पुलिस की आरोप पत्र में छोड़ी जाने वाली खामियां हैं, जो दोषियों को बचाने में मददगार साबित होती हैं। दरअसल, पुलिस मौके से फोरेंसिक सबूत जुटाने में लापरवाही बरतती है, पीड़ित के बयान भी ढंग से नहीं लिए जाते और कई बार तो पुलिस पीड़ित के अभिभावकों के बयान लेकर ही खानापूर्ति कर लेती है।
मामला लंबा खिंचने पर अक्सर गवाह अदालत में अपने बयानों से पलट जाते हैं। ऐसे में सबसे जरूरी यही माना जाता है कि पुलिस द्वारा बयान दर्ज करने से पहले पीड़ित बच्चे की सही प्रकार से काउंसलिंग हो, लेकिन हमारे यहां यह बहुत ही कम होती है। बहरहाल, देश के लगभग सभी राज्यों में पाक्सो मामलों के निपटारे में जिस प्रकार की शिथिलता देखी जा रही है, उसमें त्वरित अदालतों की संख्या बढ़ाने की जरूरत महसूस होने लगी है, साथ ही त्वरित और निष्पक्ष जांच के लिए पुलिस की जिम्मेदारी भी तय करनी होगी।