वे कह रहे थे कि मैं धूप में बैठ कर सठिया रहा हूं। सठियाने की एक वजह उम्र है। यह बात सच है कि अब तक दर्जनों मदनोत्सव मेरी निगाह के सामने से गुजर चुके हैं। उनकी मैं सिर्फ गवाही ही नहीं दे सकता हूं, बल्कि उसमें अपनी भागीदारी पर लंबा तफ्सरा भी कर सकता हूं। जाड़े की धूप मुझे तब भी अच्छी लगती थी और आज भी मैं उसका मुरीद हूं।
कल तक धूप की मादकता मुझे आकर्षित करती थी। थोड़ी-सी देर में मैं उसकी खुमारी में गुम हो जाता था। जैसे-जैसे कुनकुना ताप फैलता था, वैसे-वैसे मैं शीतल होता जाता था। नसों में दौड़-भाग कम से कमतर हो जाती थी, क्योंकि जाड़े की धूप सौम्य होती है और गर्मी की आक्रामक। वह तन-मन के रस को निचोड़ लेती है। सर्दी की धूप रस भर देती है। मन शांत झील की तरह हो जाता है, जिसकी लहरें किनारों की ओर लपलपाती नहीं हैं, बल्कि धीरे-धीरे थपकी मार कर उसे सुला देती है।
ऐसा माना जाता है कि साठ के बाद सठियाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। धूप में बैठने से शायद यह प्रक्रिया और परिपक्व होती जाती है। बीती हुई उम्र के काले बाल भी धूप में पक कर सफेद होते हैं। धूप अपनी मंदी आंच में तन-मन को पकाती है। हर व्यक्तित्व को वह उसका विशिष्ट स्वाद और सुगंध देती है। इसलिए अगर किसी को चखना है, तो उसको धूप में गुनगुनाना हो जाने के बाद चखना चाहिए। उसकी सोंधी खुशबू देर तक मन पर घुमड़ती रहेगी।
उम्र और सठियाने में कोई रिश्ता नहीं है। बहुत से तो छोटी उम्र में ही गफलत का शिकार हो जाते हैं। धूप और उम्र में जरूर एक अभिन्न संबंध है। धूप खाए बिना जीवन असंभव है। जहां गर्मियों की धूप से बचा जाता है, वहीं जाड़ों में बाहर निकल कर उसको आलिंगन में लेने का मन करता है। साल भर की खुराक चंद दिनों में लेने के लिए हम आतुर हो जाते हैं।
खुली, खुशहाल धाम अपनी हलकी तपिश से ग्रंथियों को आहिस्ता से पिघला कर बेझिझक दौड़ते फिरने के लिए कायल कर देती है। बसंत फिर से सामने दिखने लगता है। दिमाग का कोहरा और शरीर के अवरोध समापत हो जाते हैं। पौष-माघ का घाम कायाकल्प कराता है। ठंडी मिट्टी में सुप्त पड़े बीजों को बड़ी काया देता है। दक्षिणायन का सूर्य वास्तव में चमत्कारी है।
माना जाता है कि दिसंबर के मध्य से जनवरी की संक्रांति तक देव सो जाते हैं। इस एक महीने में शुभ कार्य नहीं किया जाता है। यह विश्राम का समय है। ऊर्जा को फिर से अपने में संचालित करने का वक्त है। देव जब उठते हैं तो शुभ कार्यों की चहल-पहल पुन: शुरू हो जाती है। देवों के साथ उमंग भी जाग जाती है। नव-अंकुरित भावों की द्योतक है सर्दी और उसकी धूप। बसंत के यौवन का शिशु काल है।
वैसे धूप में बैठे उम्रदार सठिया नहीं रहे हैं। पुरानी व्यस्त जिंदगी से हट कर वे ऊर्जा स्रोत से फिर जुड़ रहे हैं। बातचीत, शगलबाजी और प्रस्तुत यथार्थ पर क्रियाशील होकर वे दिशा ज्ञान पाने का प्रयास कर रहे हैं। बीते को बिसार कर, अनुभव को सहचर बना कर वे नवजीवन की उत्पति करते हैं। धूप खाना वास्तव में एक तरह का नियोग है।
कहते हैं, जब आदमी साठ का हो जाता है, तो वह गफलत में रहने लगता है। अभी हाल हुई चीजें वह फौरन भूल जाता है, पर सालों पहले हुई छोटी से छोटी घटना उसको याद आने लगती है। शरीर शिथिल होने लगता है और जिंदगी में कुछ कर गुजरने की चाह खत्म हो जाती है। उसका सारा ध्यान अपना वक्त काटने में लग जाता है; दूसरे शब्दों में, वह मौत की दहलीज पर खड़ा अपने बुलावे का इंतजार करने लगता है। इस इंतजार में जाड़े की धूप खूब काम आती है। उससे कुछ तो गर्मी शरीर में पैदा हो ही जाती है, जिससे जिंदा होने का एहसास थोड़ी देर के लिए आ जाता है।
पर यह मान्यता ठीक नहीं है। दक्षिण भारत में साठवें जन्मदिन को बड़ी धूम से मनाया जाता हैं। शास्त्रों के अनुसार मनुष्य की आयु एक सौ बीस साल की है। पहला चरण साठ साल पर समाप्त होता है और इकसठवें साल में उसका पुन: जन्म होता है। साठ वाले की दोबारा शादी रचाई जाती है (मौजूदा पत्नी से) और उसको फिर से जीवन में जुटने के लिए प्रेरित किया जाता है। शास्त्रों में सठियाने की बात नहीं है। वानप्रस्थ की व्यवस्था जरूर है। बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास का यह श्रेष्ठ काल माना गया है।
खाली बैठना विशिष्ठ अनुभव है। जब कुछ करने को नहीं होता, तो बहुत कुछ हो जाता है। तनाव रहित होकर शांत भाव से चहलकदमी करने से तमाम गांठें सहज रूप से खुल जाती है। नए प्रयोजन उपस्थित हो जाते हैं। जाड़ों की धूप उनको ठीक तरह से भाप देकर उपभोग के लायक बना देती है। वस्तुत: साठ के होकर हम जिंदगी से और सठ जाते है- गुनगुने होकर बहुत कुछ नया गुन-बुन जाते हैं।