रीतारानी पालीवाल
स्कूली स्तर की शिक्षा भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराई गई, पर औपनिवेशिक मानसिकता के चलते उच्च शिक्षा के लिए हिंदी माध्यम की समुचित व्यवस्था नहीं की गई। इसके चलते आधी से ज्यादा आबादी शैक्षिक क्षेत्र में लोकतंत्रीकरण का लाभ न उठा सकी।
भारतीय भाषाओं के माध्यम से माध्यमिक शिक्षा पाने वालों को आजादी के दो दशक बाद तक विश्वविद्यालयी स्तर की बहुत ही कम शैक्षिक सामग्री, ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध थीं और वह भी निष्ठावान विद्वानों के व्यक्तिगत प्रयासों से। वह तो साठ के दशक में चलाए गए अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता से मुक्ति के आंदोलनों के बाद प्रशासनिक और तकनीकी शब्दावली आयोग तथा केंद्रीय और प्रादेशिक ग्रंथ अकादमियों की स्थापना हुई और भारतीय भाषाओं में शैक्षिक सामग्री उपलब्ध कराने के लिए इन भाषाओं में विभिन्न विषयों की शब्दावली निर्माण-निर्धारण का कार्य शुरू हुआ।
हिंदी और भारतीय भाषाओं में शैक्षिक पुस्तकें तैयार कराने के लिए ग्रंथ अकदमियां, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय जैसी संस्थाएं बनीं, लेकिन तकनीकी और चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में अंग्रेजी का ही वर्चस्व रहा और पांच दशकों से चला आ रहा है। ऐसे उदहारण भी मौजूद हैं जब आइआइटी कानपुर के एक शोध छात्र के हिंदी में लिखे शोध-प्रबंध को जांचने से इनकार कर दिया गया या नामी-गिरामी मेडिकल कालेज में दाखिला पाने वाले एक छात्र ने अंग्रेजी न समझ पाने की मजबूरी और पिछड़ जाने के भय से निराश होकर अपनी जान गंवा दी।
खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। अब सरकारें जनता को उसकी अपनी भाषा में चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा प्रदान करने की ओर जागरूक हुई हैं। मध्य प्रदेश के बाद उत्तराखंड और तमिलनाडु सरकारें भी इस रास्ते पर चलने का मन बना और अपने मेडिकल कालेजों में अंग्रेजी के अलावा मातृभाषा में शिक्षा की व्यवस्था करने पर विचार कर रहीं हैं, जो चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इसके भलीभांति कार्यान्वित होने पर देश की विभिन्न भाषाओं में यह सुविधा प्रदान करने की दिशा मिलेगी। पर यह तभी फलीभूत हो सकता है, जब सब लोग अपने पूर्वाग्रह त्याग कर पूरे मन से इसे सफल बनाने की दिशा में योगदान दें।
समाज के एक तबके की चिंता है कि कहीं ऐसा न हो कि हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में एमबीबीएस का शिक्षण अंग्रेजी की पाठ्य सामग्री का लिप्यंतरण मात्र बन कर रह जाए। पिछले दिनों एक अखबार में छपे एक लेख ‘एमबीबीएस इन हिंदी लास्ट इन ट्रांसलिट्रेशन’ में मध्य प्रदेश सरकार की मेडिकल कालेजों में हिंदी माध्यम कार्यान्वयन योजना के स्वरूप की संभाव्यता को लेकर डाक्टरों, अस्पतालों और छात्रों के रोजगार कौशल की ओर से चिंता व्यक्त की गई थी।
इन लोगों की चिंता एक हद तक वाजिब और व्यावहारिक भी है। आजादी के बाद पिछले सात-आठ दशकों का इतिहास बताता है कि उच्च शिक्षा में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाने के लगातार सरकारी और वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद हजारों तरह की बाधाएं आज भी विद्यमान हैं। पिछले पांच दशक से उच्च शिक्षा और शिक्षा माध्यम के प्रश्नों से जुड़े रहते हुए लगातार यह अनुभव रहा है कि विभिन्न विषयों के शिक्षकों, शिक्षाशास्त्रियों, विषय विशेष के विशेषज्ञों ने इस क्षेत्र में सिलसिलेवार उदासीनता बरती है।
ये विद्वतजन औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर नहीं निकल सके हैं। दुनिया भर के बृहत्तर बौद्धिक संसार से संपृक्त होने और उसमें सक्रिय भागीदारी करते रहने की ललक में वे न केवल अपने लेखन-अनुसंधान की भाषा अंग्रेजी बनाए रहते हैं, बल्कि अपने बहुजन देशवासियों की जरूरतों के प्रति लापरवाह और उदासीन रहते हैं। अपनी संगोष्ठियों, शोध लेखों की एकमात्र भाषा अंग्रेजी ही रखते हैं। उसे भारतीय भाषाओं में रूपांतरित करके बृहत्तर समाज तक पहुंचाने की जरूरत ही नहीं समझते।
इसी तरह अधिकांश शिक्षक छात्रों के लिए शैक्षिक सामग्री अंग्रेजी में तैयार करने-कराने का दायित्व तो अपना मानते हैं, पर उसके हिंदी रूपांतरण का कार्य पूरी तरह अनुवादक के ऊपर छोड़ कर स्वंय पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। नतीजा, हिंदी माध्यम की सामग्री अक्सर न तो अंग्रेजी माध्यम की पाठ्य सामग्री के स्तर की बन पाती है, न ही उसको नए अनुसंधानों, विकास सरणियों, गतिविधियों के समांतर निरंतर अद्यतन बनाया जा पाता है।
चिकित्सा और तकनीकी क्षेत्रों की पढ़ाई को हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में ढालने के व्यापक स्तर पर अकादमिक प्रयास ही नहीं हुए। इसलिए वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा विशेषज्ञों के सहयोग से बनाई गई शब्दावली इन विषयों की शिक्षा में पहुंची ही नहीं। कुछेक विद्वानों के व्यक्तिगत प्रयासों से लिखी पुस्तकों में इसका प्रयोग अवश्य मिलता है, पर अध्ययन-अध्यापन और व्यावहारिक जीवन में उसका प्रयोग न के बराबर है। दूर-शिक्षा विश्वविद्यालयों की तो स्थापना ही शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से हुई थी और वहां आरंभ से ही हिंदी माध्यम की व्यवस्था भी की गई, मगर मूल सामग्री अंग्रेजी में तैयार करने के बाद उसके हिंदी रूपांतरण में विषय विशेष के अध्यापकों का सहयोग पाना अक्सर टेढ़ी खीर ही रहा है।
मगर आज जब चिकित्सा के क्षेत्र में भारतीय भाषा को माध्यम बनाने की ओर कदम उठाए जा रहे हैं, तो निराश होने की जरूरत नहीं है। जरूरत पूरे मनोयोग से प्रयास करने की है। जापान, चीन आदि देशों ने भी तो आधुनिक चिकित्सा पद्धति को अपनी भाषाओं में अनूदित किया है। दुनिया के अधिकांश देशों की भाषा अंग्रेजी नहीं है, मगर सभी तो यह नहीं कहते कि अपनी भाषा में काम करना या दुनिया भर के नए से नए अनुसंधानों को अपनी भाषा में अपने समाज के लिए उपलब्ध कराना असंभव है।
रूस, जर्मनी, जापान आदि देशों ने अपने यहां अनुवाद की इतनी अच्छी व्यवस्था कर रखी है कि विज्ञान, तकनीकी, चिकित्सा आदि के क्षेत्र में दुनिया भर की हर नई गतिविधि तुरंत अपनी भाषा में उपलब्ध करा लेते हैं। जिस लेख की ऊपर चर्चा की गई, उसमें कहा गया है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की बड़ी तादाद में शब्दावली लैटिन भाषा की है और उन शब्दों को भारतीय भाषा में लाना मुश्किल होगा। मगर यह कोई दुर्निवार समस्या नहीं है। उनके समुचित भारतीय पर्याय अगर भारतीय भाषाओं में नहीं मिलते और आयुर्वेद की शब्दावली भी सहायक नहीं हो पाती, तो उन मूल शब्दों को भारतीय भाषाओं में ग्रहण कर लिया जाना चाहिए, जैसे अंग्रेजी में ग्रहण किया गया है। सभी भाषाएं अनेक विदेशी शब्द ग्रहण करके अपना विस्तार करती हैं।
हिंदी भाषा के व्याकरण, कथन शैली और भाव-विधान में ढल जाने पर कोई विदेशी शब्द पराया या अटपटा नहीं महसूस होगा। चिकित्सकों, चिकित्सा शास्त्रियों, विज्ञान से जुड़े अनुवादकों के सामूहिक प्रयास से यह कार्य सहज संभव है। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के एक जाने-माने हृदयरोग विशेषज्ञ डा. फणिभूषण दास ने स्वास्थ्य संबंधी अनेक पुस्तकें हिंदी में लिखी हैं। इस तरह के अनेक विशेषज्ञ अगर चाहें तो हिंदी माध्यम में चिकित्सा शिक्षा को सफल बना सकते हैं। समस्या शब्दावली की नहीं है, लगन और निष्ठा की है।