नंदितेश निलय

मनुष्य ने अपनी सभ्यता और संस्कृति गढ़ी। धर्म बनाया और अपनी आस्था जताई। जिस स्थान को उसने रहने के लिए चुना वह उसका देश बना, राष्ट्र बना। पहले उसने धर्म के जरिए अपनी पहचान को तलाशने की कोशिश की, फिर बाद में उसने उस भूमि से भी अपने अस्तित्व को जोड़ा। हिंदुस्तान की मिट््टी में पलने वाले हर नागरिक के लिए देश की संकल्पना भावपूर्ण रही है। तमाम धर्मों को समेटे भारत एक राष्ट्र बना रहा। पर यह प्रश्न भी संसार में हमेशा उठता रहा कि देशभक्ति क्या होती है? राष्ट्रवाद क्या है? हिंदू धर्म की भी व्याख्या की गई। भारत पूरी दुनिया को मानवता का संदेश देता रहा है। यह बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक का देश न कभी था, न है और न ही कभी बनेगा।

महात्मा गांधी, विवेकानंद के जन्म से छह साल पहले पैदा हुए थे। उनका राष्ट्रवाद अत्यधिक प्रतीकात्मक और गहरा था। वह एक तरह से सेवा के माध्यम से मुक्ति की तलाश था। धर्म और रामराज्य में उनका दृढ़ विश्वास था। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि ‘मेरा हिंदू धर्म मुझे सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाता है।’ जब सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने उनसे पूछा कि ‘उनका धर्म क्या है?’ गांधी ने उत्तर दिया, ‘मेरा धर्म हिंदू है, जो मेरे लिए मानवता का धर्म है और इसमें मेरे लिए सभी धर्म शामिल हैं।’ बाद में उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में अपने एक निबंध में धर्म के अपने विचारों को विस्तृत किया- ‘मैं हिंदू क्यों हूं?’

विवेकानंद और गांधी ने राष्ट्र-निर्माण और आत्म-जागरूकता के संबंध में सटीकता और स्पष्टता के साथ हिंदू धर्म को व्यक्त किया है। मगर एक राष्ट्र के विचार को पहचानने और उससे जुड़ने के लिए, एक बच्चे की परवरिश और विकास बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं और यह पर्यावरण और परवरिश पर बहुत निर्भर करता है। नैतिक विकास सिद्धांत के अपने विभिन्न चरणों के माध्यम से, कोहलबर्ग भी नैतिक विकास में परिवार के पालन-पोषण और तर्क के महत्त्व की पहचान करते हैं।

विवेकानंद का राष्ट्रवाद अध्यात्मवाद से अलग नहीं है। वे अधिक मानवीय थे, और उनके विचार सार्वभौमिक मूल्यों के अनुरूप थे। उनका राष्ट्रवाद उस गौरवशाली भारत में निहित था, जिसे औपनिवेशिक राज्य में भुलाया जा रहा था। उन्होंने कहा, ‘प्रत्येक राष्ट्र के पास देने के लिए एक संदेश है।’ विवेकानंद का राष्ट्रवाद आध्यात्मिक हिंदू धर्म था, जो मानवतावाद और सार्वभौमिकता में विश्वास करता था। हम यह मान सकते हैं कि विवेकानंद का राष्ट्रवाद निस्वार्थ सेवा, मानवीय गरिमा और राष्ट्रीय एकता के लिए साहस का प्रतीक था। यहां तक कि सभी राजनीतिक दल और वैश्विक नेता भी अपने जोखिम पर विवेकानंद की उपेक्षा कर सकते हैं।

हिंदू धर्म, राष्ट्रवाद और देशभक्ति का प्रश्न हमेशा से एक भारतीय नागरिक के निर्माण की ओर इशारा करता है। आज आजादी की पचहत्तर साल बाद यह प्रश्न और भी प्रासंगिक हो जाता है। धरसाना सत्याग्रह से पहले सरोजिनी नायडू देशभक्ति पर महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को समझने के लिए उत्सुक हो गईं, तो बापू ने उन्हें एक झंडा देकर धीरे से कहा- ‘इसे मजबूती से पकड़े रहना’। सरोजिनी नायडू ने धरसाना सत्याग्रह के दौरान लाठी चलने के बावजूद उस झंडे को नहीं छोड़ा। झंडा उनकी मुट्ठी में कसा रहा और देशभक्ति उनके दिल में। महात्मा ने देशभक्ति को परिभाषित किया। यद्यपि गांधी मानवतावादी विचारों के पोषक थे और वसुधैव कुटुंबकम् उनका दर्शन था, लेकिन इसके साथ वे यह भी मानते थे कि मानव जाति के विकास में सार्वजनिक जीवन के अनेक स्तर मिलते हैं, जैसे परिवार, जाति, गांव, प्रदेश और अंत में राष्ट्र। मानवीय मूल्यों से बनता व्यक्ति इन स्तरों से उठ कर अंत में विश्व बंधुत्व के अंतिम आदर्श को प्राप्त करता है।

गांधी के समकालीन विवेकानंद के लिए देशभक्ति मां की सेवा करने के समान थी। उन्होंने कहा कि कोई भी अपने देश के सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, अगर वह अपनी मां को नहीं खिला सकता है। वे पूछते हैं ‘कोई दूसरों की मां का भला कैसे देखभाल कर सकता है अगर वह अपनी मां की सेवा नहीं करता? अपनी मातृभूमि की सेवा करने में हमें कभी विफल नहीं होना चाहिए।’

देशभक्ति का अर्थ मानक शब्दकोश में बताया गया है- किसी का देश के प्रति प्यार। राजनीतिक दर्शन और विशेष रूप से स्टीफन नाथनसन देशभक्ति में शामिल सूक्ष्म मुद्दों की खोज करते समय कुछ पर प्रकाश डालते हैं। स्टीफन का मानना है कि विशेष ध्यान, देश की भलाई के लिए चिंता और किसी विचार या चीज को बढ़ावा देने की इच्छा, जो देश को लाभ पहुंचा सकती है, यही देशभक्ति का सार है। अगर देशभक्ति देश के लिए जीना-मरना है तो फिर राष्ट्रवाद अपने देश के प्रति लोगों के दृष्टिकोण और उसकी राष्ट्रीय पहचान की देखभाल का मसौदा है। राष्ट्र शब्द मन में आते ही एक नक्शा बन जाता है और उसकी भाषा, संस्कृति, पहचान उभरती है। अगर देशभक्ति प्रेम और सेवा है, तो राष्ट्रवाद नागरिक की पहचान है और इसकी सबसे विस्तृत सीमा मानवतावाद है। यानी राष्ट्रवाद और देशभक्ति संयुक्त रूप से देश के प्रति प्यार और कृतज्ञता का प्रतीक हैं।

हमारे देश में, जहां कर्मयोग या विवेकानंद की कर्मयोगी छवि को प्राथमिकता दी जाती है और अभ्यास किया जाता है, वहां हमेशा देश को आत्म-प्रवृत्त बंधनों और हठधर्मी दुखों से मुक्त करने का एक मौका होता है। विवेकानंद जिस चीज के लिए खड़े थे, वह हिंदू धर्म का सार था और यह अनिवार्य रूप से राष्ट्रवाद की भावना को अधिक मानवीय और सार्वभौमिक स्तर पर ले जाता है। स्वामी का मानना था कि हिंदू धर्म मनुष्य की अंतर्निहित दिव्यता और सभी अस्तित्व की एकता के वेदांत संदेश के बारे में है। आध्यात्मिक मार्ग केवल सत्य और शांति की ओर ले जाता है, और विवेकानंद इसमें विश्वास करते थे। उनके लिए धर्म एक ऐसी चीज थी, जो सभी लोगों को एकजुट करती है और उनका उत्थान करती और उन्हें हठधर्मिता से मुक्त करती है। उन्होंने कहा, ‘सिद्धांतों की परवाह मत करो, हठधर्मिता, संप्रदायों, चर्चों, मंदिरों की परवाह मत करो; जो भी है वह आध्यात्मिकता है और जितना अधिक यह प्रत्येक व्यक्ति में विकसित होता है, वह भलाई के लिए उतना ही अधिक शक्तिशाली है।’

विवेकानंद और गांधी दोनों ने हिंदू धर्म को भाग्यवाद, कर्मकांड या संप्रदायवाद से मुक्त रूप में स्वीकार किया और यह धर्म से अधिक जीवन शैली या नैतिक आचरण था। गांधी का राष्ट्रवाद प्रकृति और आत्मा में समावेशी था और लोगों के जीवन स्तर को बढ़ाने के अलावा और कुछ नहीं था। देशभक्ति, राष्ट्रवाद और हिंदू धर्म संबंधी गांधी और विवेकानंद के विचारों में संकीर्णता और स्वार्थ के लिए कोई जगह नहीं थी। अच्छा करो और अच्छा बनो, यही उनका हर जगह निहित संदेश था।

भारतीय संविधान का भाग-चार, जिसे हमें याद रखना चाहिए कि भारत एक कल्याणकारी राज्य है। तो आइए, आजादी के पचहत्तरवें साल में हम फिर से विवेकानंद और महात्मा गांधी के संदेशों को सर्वोदय या सभी के कल्याण के रूप में सुनने की भावना से याद करें। मानवतावाद में ही सब कुछ निहित है। जो मनुष्य बना और जिसने मानवता के मूल्यों को बचाए रखा, वही देश को भी सुन और समझ सका। उसने रवींद्रनाथ ठाकुर को भी गाया और इकबाल को भी याद रखा। महात्मा गांधी को भी, स्वामी विवेकानंद को भी।