इस महामारी के वक्त लोग टकटकी लगाए विज्ञान की तरफ देख रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि किस देश की कौन-सी प्रयोगशाला में कौन-सा वैज्ञानिक ऐसी दवा खोज लेगा, जिससे यह महामारी सदा के लिए खत्म हो जाए। भारत के लिए भी यह क्रांतिकारी अवसर बन सकता है, बशर्ते हम पूरे दिलो-दिमाग से विज्ञान और वैज्ञानिक सोच को जनता तक ले जा पाएं।
हाल ही में गाजियाबाद के निकट लोनी में तावीज बेचने और उसका चमत्कारी प्रभाव न होने की वजह से मामला हिंसा में बदल गया। मीडिया ने इसे और सांप्रदायिक रूप देकर अंतरराष्ट्रीय बना दिया। अफसोस कि पूरे मीडिया में इस बात पर चर्चा बहुत कम हुई कि आखिर इक्कीसवीं सदी के भारत में यह चमत्कारी तावीज, अंगूठी, गंडा, मंत्र का धंधा चल कैसे रहा है? ठीक इसी समय एक और खबर शुरू होते-होते गायब हो गई। जब सरकार पूरे जोर-शोर से टीके लगवाने की अपील कर रही थी, तब किसी ने यह अभियान शुरू किया कि कोवैक्सीन में गाय के नवजात बछड़े का खून होता है। सरकारी मशीनरी ने तुरंत इसका प्रतिवाद तो किया, लेकिन क्या सिर्फ प्रतिवाद इसका उत्तर है?
क्या टीके और दूसरी दवाएं बनाने पर विस्तार से जनता में जागरूकता की जरूरत नहीं है। क्या जनता को यह बताने की जरूरत नहीं कि अठारहवीं सदी में जब चेचक जैसी महामारी दुनिया के हर देश में लाखों लोगों को लील जाती थी, तब उसके टीके की शुरुआत भी गौशाला से हुई थी। इंग्लैंड के वैज्ञानिक, चिकित्सक जीनर ने पाया कि जब पूरे इंग्लैंड में चेचक का तांडव मचा हुआ था, गाय पालने वाले ग्वाले बिल्कुल सुरक्षित रहे थे। इसका कारण गाय के अंदर चेचक के वायरस के खिलाफ एंटीबॉडीज बन गई थी। उसी रक्त से वैज्ञानिक जीनर ने चेचक महामारी के खिलाफ अभियान चलाया था संभवत: पहली बार टीके के प्रयोग द्वारा उस महामारी पर विजय पाई थी।
भारत में इस टीके के पहुंचने की कहानी भी उतनी ही रोमांचक है। काश ऐसे मौकों पर हमारा मीडिया चिकित्सा जगत की इन उपलब्धियों को बार-बार जनता को बताए तो शायद उनका भ्रम दूर हो। अगर ऐसा हो तो न टीके को दुश्मन मानेंगे, न नपुंसकता की अफवाह पर यकीन करेंगे। देश के आदिवासी पिछड़े इलाकों में ही ऐसा भ्रम नहीं है, तथाकथित पढ़ा-लिखा समाज भी विज्ञान की सही जानकारी न होने के कारण टीके से डर रहा है। कुछ राजनीतिक बड़बोले भी ऐसी ही बातें कर रहे हैं। गौरतलब है कि पोलियो के टीके के खिलाफ भी एक संप्रदाय विशेष में लगातार ऐसा प्रतिरोध बना हुआ था। विश्व स्वास्थ्य संगठन पर यकीन करें, तो ऐसे ही विरोध के कारण पोलियो का विषाणु जहां सारी दुनिया से गायब हो चुका है, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अब भी इसके मामले पाए जाते हैं।
वैसे तो हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली ही इसके लिए जिम्मेदार है, जहां आईआईटी और मेडिकल कॉलेजों से निकले डॉक्टर, इंजीनियर भी अपने विषय की रटी हुई जानकारी तो रखते हैं, जादू-टोने, भविष्यफल, ताबीज, अंगूठी के चमत्कारों से अपना यकीन नहीं हटा पाते। यहीं विज्ञान और वैज्ञानिक सोच को सही ढंग से समझने की जरूरत है। न्यूटन के नियम रट लेना या आणविक सिद्धांतों की बारीकियां समझ लेना वैज्ञानिक सोच की कोई गारंटी नहीं है। विज्ञान के गर्भ से निकली तकनीक मोबाइल आदि का भरपूर उपयोग करना भी वैज्ञानिक सोच का प्रमाण नहीं है। वैज्ञानिक सोच का प्रमाण है, जब आप अपने आसपास होने वाली हर घटना को अपने तर्क से, उपलब्ध ज्ञान की रोशनी में समृद्ध करते, स्वीकार करते और बेहतरी का विकल्प खोजते हैं। दुनिया में समाज ने आज तक जो प्रगति की है वह इसी वैज्ञानिक सोच के चलते ही।
चाहे पहिए का आविष्कार हो या अग्नि का या फिर घर बना कर रहने की सुरक्षा से लेकर बड़े हथियार और जहाज बनाने का। यूरोप के देश, जो पांच सौ वर्ष तक चीन, भारत या मध्य पूर्व की सभ्यताओं से पीछे थे, विज्ञान की इसी जागरूकता और परस्पर प्रसार के कारण तेजी से आगे निकलते गए। यहां तक कि दुनिया भर में यूरोप के देशों ने इसी विज्ञान की बदौलत उपनिवेश भी बनाए। आज भी यूरोप, अमेरिका इसी विज्ञान के बूते दुनिया में अग्रणी बने हुए हैं। वैज्ञानिक खोज, शोध के बूते चीन पेटेंटों के मामले में अमेरिका से भी आगे है।
मगर चीन का हौआ दिखाने के बावजूद वैज्ञानिक सोच को विकसित करने में भारत मीलों दूर हैं। आत्मनिर्भरता, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया के दर्जनों नारों, हुंकारों के बावजूद। कोरोना की दूसरी लहर में लाखों लोगों की जानें चली गई हैं। इसमें सरकारी व्यवस्था की पोल तो खुली ही, कदम कदम पर समाज में व्याप्त अंधविश्वास भी जगजाहिर हुए। कहीं लोग कोरोना विषाणु की पूजा कर रहे थे, तो कुछ इस महामारी को सिर्फ हल्दी की गांठ से या कुछ मंत्रों के उच्चारण से भगाना चाहते थे। पारंपरिक उपचार भी कुछ मामलों में कारगर हो सकते हैं, लेकिन ऐसे महामारी के दौर में ये पारंपरिक विधियां बार-बार गलत साबित हुई हैं, चाहे चेचक, हैजा जैसी बीमारियां हों या सौ वर्ष पहले हुआ स्पेनिश बुखार। मगर हम हैं कि लगातार अपने को महान मानते हुए उसी पर अड़े हुए हैं। काश! हम अपने इस ज्ञान को मौजूदा वैज्ञानिक कसौटी पर कस कर दुनिया के सामने ला पाते! अगर पारंपरिक दवाएं हैं, तो उनको वैज्ञानिक ढंग से मरीजों पर प्रयोग करने और फिर उन सबको प्रकाशित करने में हर्ज क्या है? दुनिया का हर राष्ट्र ऐसा ही कर रहा है।
भारत में तो कोरोना शुरू होते ही हफ्ते भर के अंदर कुछ झोलाछाप डॉक्टर उसकी दवाई लेकर भी आ गए। क्या इस पूरे दौर में कोई भारतीय विज्ञान पत्रिका या मेडिकल जर्नल ऐसा सामने आया है, जो अमेरिका और इंग्लैंड की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं की बराबरी कर सके। हमारे देश में आजादी के बाद से ही उल्टा हो रहा है। आजादी से पहले सीवी रमण, जगदीश चंद्र बोस, मेघनाथ साहा आदि ने शोध के बूते जो सम्मान हासिल किया था, आजादी के बाद उसमें लगातार गिरावट आई है। देश के विश्वविद्यालयों ने शोध में जो प्रतिष्ठा पाई थी, उसमें भी गिरावट जगजाहिर है। जयंत नार्लीकर, सीएन राव, प्रोफेसर यशपाल, सुशील जोशी, पीएम भार्गव जैसे विज्ञान संचालकों ने लगातार विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन इधर की पीढ़ी में यह सब गायब है। इसका परिणाम है कि पूरा देश एक अवैज्ञानिक, अतार्किक धर्मांधता में डूबता जा रहा है।
इसे बदलने का एक ही रास्ता है और वह है शिक्षा। वह चाहे पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया के जरिए दी जाए या स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यक्रम को तुरंत बदल कर। यह सभी विश्वविद्यालयों, मेडिकल कॉलेजों का कर्तव्य है कि वे अपने आसपास होने वाली बीमारियों से अपने विद्यार्थियों को अवगत कराएं, उन पर शोध कराएं। हिंदी पत्रकारिता के प्रशिक्षण कॉलजों में भी विज्ञान पत्रकारिता पर पर्याप्त ध्यान देने की जरूरत है। इससे न केवल विज्ञान का फायदा होगा, बल्कि पत्रकारिता में तथ्यों और उसकी समझ की एक दृष्टि भी पैदा होगी। भविष्य की सभी बीमारियों, महामारियों का इलाज इसी विज्ञान से संभव है।