मैं कल रात सो नहीं पाया था। देश की चिंता सोने नहीं दे रही थी। वैसे तो देश में उत्सव, महोत्सव, अमृत उत्सव मन रहे थे और हर व्यक्ति अब्दुल्ला की तरह दीवानगी की हदें तोड़ने पर उतारू था, पर किसकी लड़की विदा हो रही थी और कौन दूल्हा बन कर गली में ऐंठ रहा था, समझ में नहीं आ रहा था। सब एक साथ हंस रहे थे और रो भी रहे थे।
किसी ने बैंड बुलवा लिया था, किसी ने रुदाली, बिना पूछे कि उसके पैसे कौन भरेगा। कोई और गले में ढोलक डाले उसे नगाड़े की तरह ठोंक रहा था। खोखली लकड़ी पर चढ़ा चमड़ा मेरे संस्कारों की थाप है, वह कह रहा था। यह क्या विदेशी बैंड बजा रहे हो, स्वदेशी बीन बजाओ। सांप बाहर आ जाएंगे। फन फैला कर नाचेंगे, मजा आएगा, उसने कहा था और फिर हमारी तरफ मुड़ कर बोला था, तुम तो भैंस हो। तुम बीन नहीं समझोगे।
मैं वास्तव में नहीं समझ पा रहा था कि दिवाली में दशहरा क्यों मनाया जा रहा था। एक से पूछा, तो वो बोला, अभी रावण मरा नहीं है। दस सिर हैं उसके। वक्त लगता है। आपने रावण को तो खूब वक्त दिया था, इतने सिर उगाने के लिए, पर जब हम उनको काटने निकले हैं, तो आप हड़बड़ी मचा रहे हैं! एक एक कर के खत्म करेंगे। दस दिन भी लग सकते हैं और सौ साल भी। वैसे आपको मालूम होना चाहिए कि बहुतेरे इंसानों ने रावण को अपने में छिपा रखा है। हमारे गुप्तचर हर तरफ लगे हुए हैं, उन लोगों को तलाशने के लिए, जिन्होंने रावणों को शरण दी हुई है।
देखिए, उसने इशारा किया था, हमने पूरी गली में दीये जलवा दिए हैं, जिससे रोशनी में हम रावणों को पहचान कर पकड़ लें। मैंने उन्हें टोका था, अभी तो दोपहर है। सूरज चढ़ा हुआ है। उसके आगे दीये की रोशनी क्या है? उसने झल्ला कर कहा था, आप फिजूल किस्म की बात करते हैं, मौका मिला नहीं कि खुरपेच करने लगे। जरा बुद्धि लगाइए- सूरज को अगर दीये की लौ मिल जाएगी तो उसकी रोशनी बढ़ नहीं जाएगी? छोटी-सी बात है और आप बौड़म की तरह सिर खुजाए पड़े हैं।
अच्छा, आपको नहीं मालूम है, इसीलिए बता रहा हूं- संसार भर में सौर ऊर्जा की लौ अपने दीये ने ही लगाई है। अब आप जाइए और दशहरा-दिवाली में भेद मत करवाइए। टुकड़े-टुकड़े वाले नहीं, जोड़ने वाले बनिए। दिवाली, दशहरा सब एक है। आप निरंतर रावण को ढूंढ़ते रहिए, मारते रहिए। लक्ष्मी जी से हम भेंट कर लेंगे। दिवाली मना लेंगे। आप परेशान मत होइए।
मैं कल रात इसलिए भी नहीं सो पाया था, क्योंकि देश की चिंता के साथ-साथ मुझे अपनी चिंता भी सता रही थी। मैं देश के लिए क्या कर सकता हूं, यह तो मुझे मालूम था, पर देश मेरे साथ क्या करेगा, मुझे समझ में नहीं आ रहा था। मैं उत्सव से सहमा हुआ था। उसकी भीड़ से अलग होकर छिप जाना चाहता था, पर डरता था कि कहीं वे मुझे छिपा हुआ रावण न समझ लें। विडंबना यह कि मैं खत्म नहीं होना चाहता था पर जारी भी नहीं रह सकता था। देश की चिंता मेरी चिंता बनती जा रही थी, जिसमें मुझे जीते जी प्रवेश करना था।
वैसे मैं कोई दरोगा नहीं हूं, जो शहर की चिंता में दुबला हो जाऊं। मैं एक मामूली शहरी हूं। खाकी से बचता हूं, कानून के साथ चलता हूं। वर्दी वालों पर अपने अमन चैन के लिए आश्रित हूं। पर अब मेरे लिए वर्दी पहचानना मुश्किल हो गया था। उसके रंग आए दिन गिरगिट के रंगों की तरह बदल रहे थे। चिर परिचित पुरानी वर्दियां आए दिन फाड़ दी जा रही थीं। जब बीन बजती थी, तो सांप फन ही नहीं फैलाते थे, बल्कि अपनी पुरानी केचुल भी उतार देते थे। नई खाल, यानी नई वर्दी में आ जाते थे। हमको उन्हें पूजना था, क्योंकि जब तक वे पुजते रहेंगे, वे डसेंगे नहीं। फर्क आ गया था।
पुराने भारत में वे देवता थे। ब्रह्मांड उनके फन पर टिका था। सहनशील थे और सहज भी। नीलकंठ ने उनको गले से लगा रखा था। वे नाग थे। आस्तीन के सांप नहीं थे।
एक सुप्रसिद्ध, सुसंस्कृत उत्सव विज्ञानी नई वर्दी और तेल लगे लठ से लैस होकर हाल में हमारे घर पधारे थे। आसान ग्रहण करते ही उन्होंने लठ के एक छोर को मजबूती से अपनी मुट्ठी की गिरफ्त में लिया था और दूसरा छोर हमारे कंधे पर टिका दिया था। मुस्करा कर बोले थे, आप लठ से भयभीत मत होइए। इससे प्रेम करना सीखिए। वो कहते हैं न, भय बिन होय न प्रीत। बस यही सिद्धांत है हमारा। अगर आप गौर करेंगे तो देखेंगे कि यह लठ नहीं, प्रेम प्राप्त करने का साधन है। सर्वविदित है कि बेल को फैलने के लिए सहारा चाहिए। आप हमारे लठ को अपने कंधे पर जमा रहने दीजिए और आप देखेंगे कि आपकी प्रेमलता तुरंत पुष्पित हो जाएगी।
हमने उनके वनस्पति ज्ञान पर मोहब्बतन कोई ऐतराज नहीं किया था। उलटे, लठ पकड़ कर लटक गए थे। लाठी के तेल में हमारी सर्वहारा क्रांति पकौड़े की तरह तल कर कुरकुरी हो गई थी। हमने फौरन चाय मंगवाई और प्रीत की रीत पर मीठी चर्चा शुरू कर दी थी।