विनोद के. शाह
सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से चार सप्ताह में उस याचिका पर जवाब मांगा है, जिसमें राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए सरकारी खजाने से मुफ्त उपहार और नगद देने कर घोषणाएं की जा रही हैं। अदालत ने इसे गंभीर मुद्दा माना है।
देश में हर चुनाव के दौरान ऐसी घोषणाएं राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्र में शामिल होने लगी हैं। ऐसी घोषणाओं से न केवल देश का संवैधानिक ढांचा गड़बड़ाने लगता है, बल्कि बुनियादी विकास को किनारे कर दिया जाता है। राज्य कर्जे के बोझ तले दबे जा रहे हैं।
सरकार द्वारा इस खैरात की भरपाई ईमानदारी से टैक्स अदा करने वाले नागरिकों पर लगातार टैक्स बढ़ा कर या नया अधिभार लगा कर की जा रही है।
हाल के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावो में राजनीतिक दल सरकार बनाने के लिए विलासितापूर्ण समाग्री मुफ्त बांटने के लिए बाकायदा घोषणा-पत्र जारी कर रहे हैं। स्कूटर, टैबलेट, मोबाइल, गृहणियों के लिए मुफ्त गैस सिलेंडर, तीन सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली!
इतना ही नहीं, बेरोजगारों को भत्ता, दसवीं पास लड़कियों को दस हजार और बारहवीं पास को बीस हजार रुपए, महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को अकल्पनीय पेंशन और वजीफे के सपने दिखाए जा रहे हैं। इसके पहले ऐसे प्रलोभनों से अनेक राज्यों में सरकारों का गठन हो चुका है। लेकिन इन राज्यों में इस मुफ्तखोरी के दुष्परिणामों से राज्यों की नियमित सेवाएं लड़खड़ा गई हैं।
तमिलनाडु में जनता साड़ी से शुरू हुआ मुफ्त चुनावी वितरण रंगीन टीवी, फ्रिज तक पहुंच चुका है। तीन वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में हुई किसानों की कर्जमाफी की घोषणा और राज्यों में सरकारों के गठन के बाद मध्यप्रदेश राज्य में हजारों उन किसानों को डिफाल्टर घोषित कर दिया गया, जिन्होंने चुनावी घोषणाओं के झांसे में आकर सहकारी बैंकों का कर्ज नियत समय पर जमा नहीं किया था।
सरकार गठन के बाद राज्य की निर्वाचित सरकार ने राजकोष को खाली बता कर चरणबद्ध रूप में कर्जमाफी करने की बात कही थी। बाद में चुनी गई सरकार अल्पमत में आकर सत्ता से बाहर हो गई। इस वादाखिलाफी के कारण अकेले मध्यप्रदेश के चालीस फीसद ऋणी किसान डिफाल्टर घोषित किए गए हैं, जबकि बीस फीसद किसानों ने अपनी साख बचाने के लिए राज्य के सहकारी बैंकों को चौदह फीसद का सूद अदा किया है।
सर्वाधिक मुफ्त योजनाएं बांटने वाले मध्यप्रदेश की स्थिति पर गौर करें तो जन्म से लेकर मौत तक के लिए जनसंख्या के चंद हिस्से को सरकार ने मुफ्त सुविधाओं और उपहारों का बंदोबस्त तो किया है, लेकिन इस मुफ्तखोरी के वास्ते राज्य की नियमित योजनाएं और विकास के कार्य ठप्प हो चुके हैं। राज्य पर ढाई लाख करोड़ से अधिक का कर्जा हो चुका है।
कर्मचारियों को वेतन देने के लिए सरकार को कर्ज लेना पड़ रहा है। चयनित शिक्षकों की नियुक्तियों को लंबे समय से लटका कर रखा गया है। अनेक योजनाएं बजट के अभाव में बंद कर दी गई हैं।
अब प्रदेश सरकार को राजस्व बढ़ाने के लिए शराब की बिक्री को प्रोत्साहित करना पड़ रहा है।
पांच चुनावी राज्य- उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर, जहां मुफ्त की घोषणओं का शोर इस समय सर्वाधिक है, इनकी वित्तीय स्थिति पहले से खराब है। प्रशासनिक खर्चे और कर्मचारियों की तनख्वाह बांटने के लिए इन राज्य सरकारों को कर्जा लेना पड़ता है।
ऐसे में मुफ्त बांटने की घोषणा करने वाले राजनीतिक दल सरकार बनाने की स्थति में आय के स्रोत कहां से उत्पन्न करेंगे? इसका खुलासा भी घोषणा-पत्र में अनिवार्य रूप से किया जाना चहिए। देश के सभी राज्यों में बिजली वितरण कंपनियां जर्बदस्त घाटे में हैं। लेकिन तीन सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली देने की बात राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही है।
अभी अनेक राज्य मुफ्त बिजली बांट रहे हैं, जिससे उन राज्यों में विद्युत का दुरुपयोग बढ़ा है। काश! इन राजनीतिक दलों ने मुफ्त के बजाय किसानों को सिंचाई के लिए दिन में बारह घंटे की बिजली देने की बात कही होती, तो भी पीड़ा भोगते किसानों को कुछ राहत होती।
वर्तमान में उत्तर प्रदेश पर साढ़े छह लाख करोड़ रुपए का कर्ज है, जो कि राज्य की जीडीपी का अठारह फीसद है। राज्य सरकार प्रशासनिक खर्चों और कर्मचारी वेतन पर प्रतिवर्ष कर्जे का चौदह फीसद खर्च करती है। राज्य का कर्जा कम करने, ब्याज में कमी लाने के बजाय सरकार बनाने के लिए मुफ्त बांटने की बात राज्य के कौन-से विकास में सहभागिता करने वाली है?
पंजाब पर वर्तमान में 2.82 लाख करोड़ का कर्ज है। प्रतिवर्ष राज्य बजट का छप्पन फीसद हिस्सा प्रशासनिक खर्चों और कर्मचारी वेतन-भत्तों पर खर्च हो जाता है। शेष चौवालीस फीसद हिस्से से लिए गए कर्ज का ब्याज भी चुकाना है, राज्य के विकास में भी लगाना है और मतदाता के लिए मुफ्त बांटने में भी देना है। उत्तराखंड पर अड़सठ हजार करोड़, तो गोवा पर उन्नीस हजार करोड़ का कर्ज है। ऐसे में कैसे होगा इन राज्यों का भावी विकास!
राज्य सरकारों का दायित्व है कि वे राज्य के नागरिकों के लिए बेहतर सुविधाएं विकसित करें। लेकिन शुद्ध पेयजल, स्वच्छता, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मानवीय प्राथमिक जरूरतों की पूर्ति में भी अधिकांश राज्य सरकारें विफल हो रही हैं।
बुनियादी सुविधाओं को विकसित करने के बजाय राजनीतिक दलों को मुफ्त बांट कर सरकार बनाने का नुस्खा अधिक प्रभावी लगता है। देश की सबसे बड़ी बाईस करोड़ की आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश, नीति आयोग द्वारा वर्ष 2016-17 के जारी स्कूल शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक में सबसे निचले पायदान पर आता है।
राज्य के प्राथमिक स्कूलों में भर्ती सात लाख बच्चे प्रतिवर्ष सरकारी स्कूल छोड़ रहे हैं। पिछले पांच सालों में उत्तर प्रदेश सरकार अपने स्वास्थ्य बजट में मात्र 0.2 फीसद की बढ़ोतरी कर पाई है। पंजाब राज्य में भी शासकीय शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता ठीक नहीं है।
पंजाब सरकार ने जहां बिजली पर सब्सिडी बांटी, तो पिछले पांच वर्षों में उसके शिक्षा बजट में तीन फीसद, स्वास्थ्य बजट में 0.4 फीसद की कटौती भी हुई है। राज्य में अधिक उत्पादकता के बाद भी रोजगार की स्थितियां ठीक नही हैं। उत्तराखंड का शिक्षा बजट पिछले पांच वर्षों में 0.8 फीसद कम हुआ है।
भारतीय रिजर्व बैंक की हाल में प्रकाशित अध्ययन रिर्पोट में चेतावनी दी गई है कि आगामी सात सालों में उत्तर प्रदेश को अपने कर्जे का अड़तालीस फीसद, उत्तराखंड को 57.8 फीसद, पंजाब को तैंतालीस फीसद, गोवा को अट्ठावन फीसद और मणिपुर को तिरालीस फीसद का भुगतान कर देना चहिए।
अन्यथा इन राज्यों पर ब्याज देनदारियां इतनी अधिक होंगी कि बुनियादी सेवाओं और विकास का ताना-बाना ही ध्वस्त हो जाएगा। लेकिन राज्य में सरकार बनाने की दावेदारी कर रहे सभी राजनीतिक दल कर्ज कम करने के बजाय, मुफ्तखोरी से कर्ज बढ़ाने की बात कर रहे हैं।
चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी की घोषणाओं से न केवल विकास प्रभावित हुआ है, बल्कि सामाजिक समरसता बिगड़ रही है। व्यापारी और आम उपभोक्ता पर करों और अधिभारों का बोझ निरंतर बढ़ता जा रहा है।