अमेरिका के, 2008 के, राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के प्रचार अभियान को देखते हुए डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बराक ओबामा ने कहा था कि ‘आप सुअर को लिपस्टिक तो लगा सकते हैं, मगर वह फिर भी रहेगी सुअर ही।’ उनका वह तंज बहुत मशहूर हुआ था। विकिपीडिया के अनुसार, इस जुमले का इस्तेमाल बीसवीं सदी के मध्य से ही हो रहा है।
यह जुमला मेरे दिमाग में उसी समय से घूम रहा है, जब राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अधिकारियों ने 28 फरवरी को राष्ट्रीय आय से संबंधित घुमावदार आंकड़े पेश किए। संख्याएं झूठ नहीं बोलतीं, संख्याओं की व्याख्याएं झूठ बोलती हैं- जैसा कि हमने बजट 2023-24 पेश किए जाने के बाद के हफ्तों में देखा। वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में 2022-23 के दौरान जीडीपी में सात फीसद की विकास दर रहने का दावा पेश किया था। उसके बाद से मुख्य आर्थिक सलाहकार सहित सरकार के तमाम अधिकारी उसी दावे को दुहराए जा रहे हैं।
उनका दावा सही हो सकता है, मगर सात फीसद की आकर्षक संख्या के पीछे की ठोस सच्चाई यह है कि, 2022-23 की क्रमिक तिमाहियों में, उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुमान के मुताबिक, पहली तीन तिमाहियों में सालाना आधार पर विकास दर क्रमश: 13.2, 6.3 और 4.4 फीसद रही है।
नतीजे मायने रखते हैं
मेरी राय में, अर्थव्यवस्था की सही स्थिति को न तो वर्ष-दर-वर्ष के तिमाही अनुमान दर्शाते हैं और न ही विकास दर का क्रमिक तिमाही अनुमान। आखिरकार, हर तिमाही में हमारे हर प्रयास के नतीजे (आउटपुट) ही मायने रखते हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने तिमाही उत्पादन के मूल्यों को सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में मापा है। कृपया तालिका देखें:

ध्यान रखें कि ये मूल्य पूर्ण मूल्यांकन हैं, न कि साल भर पहले की तिमाही की विकास दर और न ही पिछली तिमाही के दौरान की दरें हैं। अगर अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी, तो फिर कोई कारण नहीं हो सकता कि एक तिमाही में नतीजों (आउटपुट) का मूल्य पिछली तिमाही या पूर्ववर्ती तिमाहियों के नतीजों के मूल्य से कम हो।
मसलन, अगर विनिर्माण क्षेत्र की सेहत अच्छी थी, रोजगार की दर स्वाभाविक रूप से बनी हुई थी और मांग मजबूत थी, तो पहली तिमाही में विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन का मूल्य 6,39,243 करोड़ रुपए से घट कर दूसरी तिमाही में 6,29,798 करोड़ रुपए और तीसरी तिमाही में 6,14,982 करोड़ रुपए कैसे हो गए? यह भी ध्यान रखें कि ‘बिजली, गैस और पानी’ (‘विनिर्माण’ से संबद्ध गतिविधियां) की उत्पादन दर में क्रमिक तिमाहियों में गिरावट आई है।
संख्याएं झूठ नहीं बोलतीं
अगर अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से देखें, तो सरकारी अंतिम उपभोग व्यय अपनी रफ्तार बरकरार नहीं रख पाया है। सकल स्थायी पूंजी निर्माण तीन तिमाहियों में ऊपर-नीचे होता रहा है। निर्यात और आयात ठप है। इसमें मजबूत वृद्धि दर का शायद ही कोई संकेत मिलता है।
दूसरी चिंताजनक संख्याएं निजी अंतिम उपभोग व्यय से संबंधित हैं। आमतौर पर, पहली तिमाही से दूसरी और तीसरी तिमाही तक खपत का आंकड़ा हर तिमाही में लगभग 3,00,000 करोड़ रुपए तक उछलता नजर आता है। 2022-23 की दूसरी तिमाही में निजी खपत बमुश्किल 1,21,959 रुपए और तीसरी तिमाही में 1,68,005 करोड़ रुपए रही। यह वृद्धि गुनगुनी मांग की ओर इशारा करती है। मेरा मानना है कि महंगाई, छंटनी और छंटनी के भय ने निजी उपभोग पर असर डाला है।
31 मार्च, 2023 को समाप्त होने वाली चौथी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। अगर 2022-23 में वार्षिक वृद्धि का सबसे अच्छा अनुमान 7 फीसद है, तो चौथी तिमाही में उपलब्ध ‘जगह’ केवल 4.1 और 4.4 फीसद के बीच के आंकड़ों से भर सकती है।
वास्तविकता की जांच
अर्थव्यवस्था कठिन विपरीत परिस्थितियों का सामना कर रही है: उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में मंदी, मुद्रास्फीति, तंग मौद्रिक नीतियां, संरक्षणवाद और ईंधन की उच्च कीमतें जैसी स्थितियां हैं। यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते लगे प्रतिबंधों से आपूर्ति शृंखलाएं बाधित हुई हैं; घरेलू मुद्रास्फीति; बढ़ती ब्याज दरें और ईएमआइ; नौकरियों और रोजगार में कमी; और राजनीतिक अनिश्चितता का वातावरण है। कोई भी शेखी भरा वक्तव्य इन वास्तविकताओं को छिपा नहीं सकता। 2023-24 के लिए परिदृृश्य उज्ज्वल नहीं है।
फिर भी वृंदगान चल रहा है। यह अत्यंत निराशाजनक है कि आरबीआइ ‘चीयरलीडर्स’ में शामिल हो गया है। आरबीआइ के फरवरी के बुलेटिन के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था ‘वर्तमान विंटेज के मैक्रोइकोनामिक अनुमानों और बाकी दुनिया से अलग हो जाएगी’। इस बैंगनी कथन का आप जो भी मतलब निकालना चाहें, निकालें।
इसके अलावा, आरबीआइ के अनुसार, 2023-24 का बजट ‘भारत की विकास संभावनाओं को दुनिया से अलग करने और बढ़ाने का साधन है।’ यह आरबीआइ की ओर से जारी बयान है, जो मौद्रिक नीति के मामले में खुद को अमेरिकी फेडरल रिजर्व सिस्टम (फेड) से अलग कर पाने में असमर्थ पाता है! अगर आपने बजट पर मेरे तीन स्तंभ (जनसत्ता, 5, 12 और 19 फरवरी, 2023) पढ़े होंगे, तो निश्चित रूप से मुझसे सहमत होंगे कि व्यवस्था संख्याओं पर लिपस्टिक लगा रही है, मगर वे संख्याएं अब भी निराशाजनक हैं।