रूस यूक्रेन पर जिस तरह से हमले करता जा रहा है, उससे मैं बेहद दुखी हूं। जब आप इस स्तंभ को पढ़ रहे होंगे, तब तक यह युद्ध बत्तीसवें दिन में प्रवेश कर चुका होगा। जब मैंने वैश्विक घटनाक्रमों में दिलचस्पी लेनी शुरू की, तभी पोप जान (तेईसवें) के कहे इन छह शब्दों ने मेरे ऊपर गहरी छाप छोड़ी थी- ‘और युद्ध नहीं, फिर कभी युद्ध नहीं’।

वाकई तबसे दुनिया में कई युद्ध हुए- बड़े, छोटे, कम और ज्यादा चलने वाले, अपनी जमीन पर, सीमा पर, दूरदराज की जमीन पर, छद्म युद्ध आदि। बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के इन युद्धों से एक जो शाश्वत सत्य उभर कर आया है, वह यह कि युद्ध के अंत में विजेता कोई नहीं होगा। युद्ध किसी भी समस्या का कोई समाधान पेश करता नहीं लगता। 1971 में भारत की निर्णायक जीत के बावजूद भारत और पाकिस्तान क्षेत्रीय विवाद को लेकर एक-दूसरे के शत्रु बने हुए हैं। अफगानिस्तान को ‘आजाद’ कराने के लिए दो महाशक्तियों के बारी-बारी से लगने के बाद भी यह देश पूरी तरह से तालिबान के कब्जे में है।

सब एक जैसे
कथित रूप से रूस से कम्युनिस्ट पार्टी से मुक्ति पा लेने के तीस बरस बाद भी रूस के शासक पूर्व सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी के पूर्व सदस्य हैं। व्लादिमीर पुतिन मई 2000 से सत्ता में हैं और सत्ता पूरी तरह से उनकी मुट्ठी में है। पुतिन के शासन में रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया, यूक्रेन से अलग हुए ‘गणतंत्रों’ दोनेत्स्क और लुहांस्क को मान्यता दे दी, जार्जिया से दो इलाकों- अबखाजिया और दक्षिण ओसेतिया- को बलपूर्वक अलग कर दिया और गृहयुद्ध कुचलने के लिए सीरिया को लगातार मदद देता रहा। हालांकि ऐसा कोई कारण नहीं था, जिसके लिए दुनिया यूक्रेन पर रूसी हमले को लेकर तैयार रहती।

यह स्वीकार करने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि पिछले बीस सालों में रूस ने जो कुछ किया है, वह सब पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका ने बीसवीं सदी में किया था। सत्ता बदलवा देना अमेरिकी राष्ट्रपतियों का सबसे पसंदीदा शगल रहा। नागरिक असंतोष को भड़काना, सैन्य तख्तापलट की रणनीतियां बनाना, राजनीतिक हत्याओं की साजिश रचना, कठपुतली सरकार को बिठा देना, आर्थिक प्रतिबंध थोप देना- कुछ भी वर्जित नहीं था। सबसे ज्यादा निंदनीय और गैरन्यायोचित लड़ाई अमेरिका ने वियतनाम में लड़ी थी। 2003 में अमेरिका ने इराक पर इस झूठ को आड़ बनाते हुए हमला कर दिया था कि सद्दाम हुसैन ने जनसंहारक हथियार जमा कर लिए थे।

कारण कोई कारण नहीं
यूक्रेन को लेकर जो सामने आ रहा है, वह दिल दहला देने वाला है। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण कुछ हद तक नाटो के लगातार विस्तार में तलाशे जा सकते हैं। शीतयुद्ध खत्म होने के वक्त पश्चिमी जर्मनी की जगह एकीकृत जर्मनी अस्तित्व में आ गया था और तब अमेरिकी विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने रूस को भरोसा दिया था कि नाटो जर्मनी से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगा।

जर्मनी की सीमा रूस से पांच हजार चार सौ उनचालीस किलोमीटर दूर है। 1999 से नाटो चौदह नए देशों को अपना सदस्य बना चुका है। जैसे ही जार्जिया और यूक्रेन ने तीस सदस्यों वाले नाटो की तरफ अपना झुकाव दिखाना शुरू किया और इस संगठन ने भी इसमें दिलचस्पी दिखानी शुरू की, तभी रूस ने लाल लकीर खींच दी। अगर ये दोनों देश नाटो में शामिल हो गए तो रूस की सीमाओं से नाटो लगातार दिखाई देता रहेगा। नाटो जर्मनी से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगा, इससे अलग नाटो रूस के करीब पहुंच चुका होता।

रूस की अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता जायज थी और उसे अमेरिका या किसी भी अन्य नाटो देश से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला, पर किसी ने उसकी खींची लाल लकीर का उल्लंघन भी नहीं किया था। दरअसल, जब रूस ने क्रीमिया (जो यूक्रेन का हिस्सा था) और जार्जिया के दो क्षेत्रों को अपने में मिला लिया था, तब अमेरिका और नाटो देशों ने इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया। तब रूस के लिए कोई कारण नहीं रह गया था कि वह यूक्रेन पर दबाव बढ़ाता और विनाशकारी युद्ध छेड़ता।

युद्ध के कारण यूक्रेन जिस तरह तबाह होता जा रहा है, वह खौफनाक है। यूक्रेन की आबादी चार करोड़ चालीस लाख है। इसमें से पैंतीस लाख लोग पलायन कर गए हैं। पैंसठ लाख लोग बेघर हो गए हैं, जिनमें आधे तो बच्चे हैं। शहरों में भारी तबाही हुई है, बंदरगाह शहर मारियूपोल मलबे के ढेर में तब्दील हो चुका है। लाखों लोगों के पास खाना, पानी और दवा तक नहीं है। हजारों लोग मारे जा चुके हैं। फिर भी यूक्रेन के राष्ट्रपति और उनकी जनता निडरता के साथ मुकाबला कर रही है और हथियार डालने से इनकार कर दिया है। जब भी युद्ध खत्म होगा कोई विजेता नहीं होगा।

निश्चित रूप से रूस तो नहीं जीतेगा। वह यूक्रेन पर कब्जा भी नहीं कर पाएगा। इसके उलट, रूस ने अपने लिए एक स्थायी दुश्मन पड़ोसी खड़ा कर लिया, वह अपने हजारों नौजवान सैनिक खो देगा, अरबों रूबल सैन्य साजोसामान पर फूंक देगा, कई प्रतिभावान नौजवान रूसी, देश छोड़ कर चुपचाप निकल जाएंगे और यह देश आर्थिक संकट में फंस जाएगा। रूस न तो सुरक्षा हासिल कर पाएगा, न सम्मान।

भारत की स्थिति
एक भारतीय के नाते मैं असहाय महसूस करता हूं। भारत सरकार की नीति के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम। मेरे विचार से कोई भी तर्क युद्ध को न्यायोचित नहीं ठहरा सकता। इसलिए विदेश मंत्री के तैयार किए छह सिद्धातों के बावजूद भारत यह क्यों नहीं कह सकता कि युद्ध अन्यायपूर्ण है? भारत रूस से यह अपील क्यों नहीं कर सकता कि वह नागरिक ठिकानों और घरों, स्कूलों और अस्पतालों पर बम बरसाना बंद करे? क्यों नहीं प्रधानमंत्री मास्को और कीव की यात्रा करके युद्ध विराम के लिए मध्यस्थता करते, जैसे कि इजराइल के प्रधानमंत्री मध्यस्थता करने की कोशिश कर साहस दिखा रहे हैं?

आखिर ऐसा क्या हो गया, जिसकी वजह से भारत कोई भी पहले करने या दखल देने में अपने को असहाय पा रहा है?
यह लेख विदेश नीति की आचार संहिता के विद्वतापूर्ण विश्लेषण के इरादे से नहीं लिखा गया है। ये मेरे निजी विचार हैं और मैंने कई विचारवान लोगों से सुना है- चुनौती भरे नाजुक वक्त में चुप्पी साध लेने और वैश्विक मंच पर मतदान के दौरान बार-बार की गैरहाजिरी ने भारत को कमजोर कर दिया है।