महामारी शायद कुछ और समय तक हमारे साथ बनी रहने वाली है। इससे स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा चरमरा जाएगा, लोग संक्रमित होंगे, जानें जाएंगी और परिवार तबाह होंगे। इससे बचाव का एकमात्र तरीका है टीकाकरण। मगर वयस्क आबादी के टीकाकरण के मामले में भारत अन्य जी-20 देशों की तुलना में बहुत खराब प्रदर्शन कर रहा है। 95-100 करोड़ के लक्ष्य के मुकाबले केवल 10,81,27,846 व्यक्तियों को टीके की दो खुराकें मिली हैं।
सांत्वना इस बात की है कि आर्थिक नुकसान की भरपाई हो सकती है। बंद व्यवसायों को फिर से खोला जा सकता है; खोई हुई नौकरी वापस आ सकती है; कम आय को बहाल किया जा सकता है; आहरित बचत को फिर से बढ़ाया जा सकता है; बढ़ते कर्ज को कम किया जा सकता है; उधार लिया हुआ पैसा चुकाया जा सकता है; और ध्वस्त हुआ आत्मविश्वास फिर से बहाल हो सकता है। सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को विकास के रास्ते पर वापस लाया जा सकता है।
सीखने की कमी
हालांकि, जीवन भौतिक अस्तित्व से कहीं अधिक है। जीवन गरिमा के साथ जीया जाना चाहिए। मगर कई कमियां हैं, जो इंसान की गरिमा को छीन सकती हैं। इनमें अधूरी स्कूली शिक्षा भी शामिल है। यह सामान्य बात है कि एक स्कूली शिक्षा प्राप्त व्यक्ति के पास एक अनपढ़ व्यक्ति की तुलना में गरिमा के साथ जीवन जीने के बेहतर अवसर हैं। एक कॉलेज शिक्षा वाले व्यक्ति के पास और भी बेहतर मौका है। अच्छी शिक्षा की नीव स्कूल में ही रखी जाती है। साक्षरता और संख्यात्मकता आधारशिला हैं।
आज भारत में स्कूली शिक्षा की क्या स्थिति है? सीखने की कमी; यह एक स्वीकृत वास्तविकता है, जबकि स्कूली शिक्षा की स्थिति को मापने का यह एक महत्त्वपूर्ण पैमाना है। पता कीजिए कि कक्षा पांच में पंजीकृत बच्चों में से कितने कक्षा दो के लिए निर्धारित पाठ पढ़ सकते हैं? स्कूली शिक्षा के वार्षिक सर्वेक्षण (एएसईआर) 2018 के अनुसार, यह अनुपात 50.3 प्रतिशत था। जब बच्चे सातवीं कक्षा में पहुंचते हैं, तो उनमें से कक्षा दो के पाठ पढ़ने वालों का अनुपात बढ़ कर केवल तिहत्तर प्रतिशत हो जाता है। सीखने की कमी की यह भयावहता एक हथौड़े की तरह पड़ने वाली है।
गहराई से खोजबीन करें। अगर हम सीखने की कमी को लिंग, शहरी/ग्रामीण, धर्म, जाति, आर्थिक वर्ग, माता-पिता की शिक्षा और व्यवसाय तथा निजी/सरकारी स्कूल के आधार पर मापें, तो सामाजिक-आर्थिक पायदान पर नीचे खिसकने के साथ-साथ गिरावट की भयावहता बढ़ती जाती है। गांव में पैदा हुआ एक बच्चा, जो निम्न शिक्षा, निम्न आय वाले माता-पिता, जिनका व्यवसाय खेती या आकस्मिक श्रम है, वह अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित है और एक सरकारी स्कूल में पढ़ रहा है, तो वह एक शहरी, निजी स्कूल में पढ़ रहे और उच्च शिक्षा, ऊंची आमदनी वाले माता-पिता, जो कि प्राय: अगड़ी या उच्च कही जानी वाली जाति से हैं, के बच्चे से बहुत पीछे है। यह एक स्वयंसिद्ध सत्य है, जो अब एएसईआर और इसी तरह के अध्ययनों द्वारा निर्णायक रूप से सिद्ध हो चुका है।
भद्दा मजाक
ऊपर बताई गई सारी स्थितियां भारत के महामारी की चपेट में आने और 25 मार्च, 2020 को हुई पहली तालाबंदी से पहले की हैं। उन दिनों स्कूल बंद थे। उसके सोलह महीने के बाद भी ज्यादातर राज्यों में स्कूल बंद रहे। इस दौरान ऑनलाइन शिक्षा, आंतरिक मूल्यांकन, स्वचालित पदोन्नति का खूब प्रचार किया गया। यहां तक कि कक्षा दसवीं और बारहवीं के विद्यार्थियों को बिना परीक्षा के उत्तीर्ण करने को भी प्रचारित किया गया। उनके ग्रेड भी हमने देखे हैं। माना कि इनमें से कई कदम जरूरी थे, पर क्या इन सबका प्रचार आवश्यक था?
आइआइटी, दिल्ली की प्रो. रीतिका खेड़ा ने यूनेस्को और यूनिसेफ के एक संयुक्त बयान का हवाला दिया है, जिसमें कहा गया था कि ‘स्कूलों को बंद करने के बारे में बाद में और फिर से खोलने के बारे में पहले विचार होना चाहिए।’ क्योंकि हकीकत के आंकड़े गंभीर हैं : केवल छह प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और पच्चीस प्रतिशत शहरी परिवारों के पास कंप्यूटर हैं; केवल सत्रह प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों और बयालीस प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में इंटरनेट की सुविधा है; अधिकतर परिवारों के पास स्मार्टफोन नहीं है। 2020/2021 के भारत में ऑनलाइन पढ़ाई का घमंड भारत के बच्चों के साथ एक भद्दा मजाक है।
खुद फैसला कीजिए
भारत में एक औसत बच्चा सीखने की कमी के साथ पढ़ना शुरू करता है। अगर किसी बच्ची को सोलह महीने या उससे अधिक समय तक कोई सीख नहीं मिली है, तो कल्पना करें कि शिक्षा के पायदान पर वह कितनी तेजी से नीचे आएगी? इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारें लाचार खड़ी नजर आती हैं। एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपने बच्चों को फिसड्डी बना दिया है और आने वाली आपदा से पार पाने के लिए कोई रास्ता खोजने का प्रयास नहीं किया है।
स्कूलों को जल्दी फिर से खोलना चाहिए। उससे पहले बच्चों का टीकाकरण अवश्य कराया जाना चाहिए। हर सूराख से बाहर निकलने का रास्ता टीकाकरण है- चाहे वह अर्थव्यवस्था, शिक्षा, सामाजिक मेलजोल या त्योहारों से संबंधित हो। जब तक हम भारत के सभी लोगों का टीकाकरण नहीं कर लेंगे, हम एक ‘स्टार्ट-स्टॉप’ मोड में ही रहेंगे, जो हमें कहीं नहीं ले जाएगा। अफसोस की बात है कि टीकाकरण अभियान न केवल निर्धारित समय से पीछे रह गया है, बल्कि इसमें कई विसंगतियां भी हैं। 17 मई को, पांच सौ से अधिक प्रसिद्ध विद्वानों, शिक्षकों और संबंधित नागरिकों ने प्रधानमंत्री मोदी को उन विसंगतियों के बारे में लिखा था, जो टीकाकरण के बीच उभरी हैं : शहरी (30.3 प्रतिशत) और ग्रामीण (13 प्रतिशत) के बीच; पुरुषों (54 प्रतिशत) और महिलाओं (46 प्रतिशत) के बीच; गरीब राज्यों (बिहार में 1.75 प्रतिशत) और अमीर राज्यों (दिल्ली में 7.5 प्रतिशत) के बीच।
महामारी अभूतपूर्व थी। यह किसी भी सरकार को प्रभावित कर सकती है। इससे निपटने के लिए जिस सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत सभी अधिकार अपने हाथों में ले लिए और पिछले सोलह महीनों में सभी निर्णय किए, उसके काम को नतीजों के स्तर पर आंका जाना चाहिए। क्या इससे संक्रमण के फैलाव को रोका जा सका, क्या इससे मरने वालों की संख्या पर लगाम लगाई जा सकी और क्या यह दिसंबर 2021 के अंत तक भारत की वयस्क आबादी को पूरी तरह टीकाकरण के अपने घोषित लक्ष्य तक पहुंची? इस दौरान, क्या इसने भारत के बच्चों के लिए कोई विचार छोड़ा? इसका फैसला आप खुद कीजिए।