अब एक महा-झूठ का पर्दाफाश हो चुका है। पिछले सात सालों से नरेंद्र मोदी और उनके मंत्री बड़े मुखर होकर कांग्रेस की सरकारों (पूर्व की सभी सरकारों, विडंबना है कि उनमें वाजपेयी सरकार भी शामिल है) पर हमला बोलते रहे हैं कि उन्होंने पिछले सत्तर सालों में कुछ नहीं किया, कुछ नहीं बनाया। उससे ऐसा लगता था, मानो भारत को आजादी मई, 2014 में ही मिली हो। 23 अगस्त, 2021 को वित्तमंत्री ने एक सूची जारी की, जिसमें उन संपत्तियों का उल्लेख था, जिनके ‘मुद्रीकरण’ का प्रस्ताव रखा गया है। हालांकि, वे यह खुलासा नहीं कर पाईं कि उन संपत्तियों का निर्माण कब किया गया। उसका जवाब है, बदनाम ‘सत्तर सालों’ के दौरान!
उस सूची में निम्नलिखित संपत्तियां शामिल हैं-
26,700 किलोमीटर लंबी सड़कें,
28,698 किलोमीटर लंबी बिजली पारेषण संपत्ति,
छह हजार मेगावाट पनबिजली और सौर ऊर्जा संपत्ति,
8154 किलोमीटर लंबी प्राकृतिक गैस पाइपलाइन,
3930 किलोमीटर लंबी पेट्रोलियम उत्पादों की पाइपलाइन,
दो करोड़ दस लाख मीट्रिक टन वेयरहाउसिंग (भंडारगृह) संपत्ति,
चार सौ रेलवे स्टेशन, 90 यात्री गाड़ियों का संचालन, 265 माल शेड,
कोंकण रेलवे और डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर,
दो लाख छियासी हजार किलोमीटर की फाइबर लाइन और 14,917 दूरसंचार टावर,
नौ प्रमुख बंदरगाह, पच्चीस हवाई अड्डे और इकतीस परियोजनाएं, तथा
दो राष्ट्रीय स्टेडियम।
अपनी कलम के एक झटके से, नरेंद्र मोदी और उनकी वित्तमंत्री ने भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों को लगभग शून्य करने की धौंस दी है। वे इस अनुमान से खुश हैं कि इस तरह सरकार को सालाना एक लाख पचास हजार करोड़ रुपए का ‘किराया’ आता रहेगा और कागज पर संपत्ति का ‘मालिकाना हक’ उनका ही बना रहेगा। उनका यह भी दावा है कि हस्तांतरण अवधि के अंत में भारी नुकसान में चल रही ये संपत्तियां बेहतर स्थिति में सरकार को ‘वापस’ मिल जाएंगी। यही राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) योजना का मूल विचार है।
बिना मकसद और मानदंड के
विनिवेश और निजीकरण की नीति का विकास पिछले कुछ वर्षों में ही हुआ है। 1991 के बाद से सभी सरकारों ने इस नीति को अपने ढंग से दुरुस्त किया है। निजीकरण का एकमात्र लक्ष्य है राजस्व की कमाई बढ़ाना। इससे जुड़े अन्य उद्देश्यों में पूंजी निवेश में वृद्धि, आधुनिक तकनीक का समावेश, उत्पादों के लिए बाजारों का विस्तार, रोजगार के नए अवसर पैदा करना आदि शामिल हैं। इसमें निजीकरण के लिए खोली जाने वाली इकाइयों को चुनने के लिए कुछ मानदंड भी निर्धारित किए गए थे। उनमें से कुछ प्रमुख मानक थे:
- रणनीतिक क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण नहीं किया जाएगा- जैसे, परमाणु ऊर्जा, रक्षा उत्पादन, रेलवे, रणनीतिक बंदरगाह।
- लगातार अत्यंत घाटे में चल रही इकाइयों का ही निजीकरण किया जा सकता है।
- अगर किसी सार्वजनिक उपक्रम के उत्पाद की बाजार प्रतिभूति यानी शेयर निम्नतम स्तर पर पहुंच गए हैं, तो उसका निजीकरण किया जा सकता है।
- किसी सार्वजनिक उपक्रम का निजीकरण तभी किया जाएगा, जब वह प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देगा। अगर उससे एकाधिकार को बढ़ावा मिल सकता है, तो उसका निजीकरण नहीं किया जाएगा।
इन सब मानदंडों को खिड़की से बाहर फेंक दिया गया है और कोई वैकल्पिक मानदंड भी घोषित नहीं किया गया है। हैरानी की बात है कि रेलवे को रणनीतिक क्षेत्रों की सूची से हटा दिया गया है। इसे अब गैर-प्रमुख संपत्ति के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जबकि यूके, फ्रांस, इटली और जर्मनी जैसी बाजार आधारित अर्थव्यवस्थाओं ने रेलवे (या देश की विशाल रेलवे प्रणाली) को सार्वजनिक क्षेत्र में बरकरार रखा है।
एकाधिकार की राह
असली चिंता की बात यह है कि एनएमपी बंदरगाहों, हवाई अड्डों, सौर ऊर्जा, दूरसंचार, प्राकृतिक गैस पाइपलाइन, पेट्रोलियम पाइपलाइन और वेयरहाउसिंग जैसे प्रमुख क्षेत्रों में एकाधिकार (या, अधिक से अधिक, दोहरे अधिकार) को बढ़ावा देगा। निजी नेतृत्व वाले उद्योग और सेवाओं पर आधारित अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भारत अभी बिल्कुल नया है। ऐसी अर्थव्यवस्थाएं अनिवार्य रूप से उस बिंदु पर पहुंच जाती हैं, जहां एकाधिकार का उदय होता है। इस मामले में हम अमेरिका से कई सबक सीख सकते हैं। इस वक्त अमेरिकी कांग्रेस और सरकार गूगल, फेसबुक और अमेजन के एकाधिकार और अनुचित व्यापार-व्यवहार पर अंकुश लगाने के लिए कानूनों और अन्य उपायों पर विचार कर रही हैं। दक्षिण कोरिया ने अपने चेबोल्स पर नकेल कसी है। चीन अपने यहां की कुछ प्रौद्योगिकी कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है, जो ‘खुद को नियंत्रण के दायरे से बड़ी’ मानने लगी थीं। मगर दूसरी ओर हमारे यहां, एनएमपी देश को एक उलटी दिशा में ले जाने का दम भर रही है!
एनएमपी के अंतर्गत रखे गए सार्वजनिक उपक्रमों के चुनाव में किन मानदंडों का उपयोग किया गया, इसका कोई जिक्र नहीं है और न यह स्पष्ट है कि इसके पीछे उद्देश्य क्या हैं। अब डेढ़ लाख करोड़ रुपए प्रति वर्ष का ‘किराया’ वसूलने के उद्देश्य पर ही विचार करें। इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि वर्तमान में चुनी गई संपत्तियों से वार्षिक राजस्व वास्तव में कितना प्राप्त होगा। सरकार को राजस्व ‘लाभ’ (या ‘हानि’) की प्राप्ति महज डेढ़ लाख करोड़ रुपए और वर्तमान वार्षिक राजस्व के बीच के अंतर के रूप में होगी। इससे नौकरियों और आरक्षण पर पड़ने वाले प्रभाव का भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। क्या ‘मुद्रीकृत’ इकाइयों में नौकरियों की वर्तमान संख्या को बनाए रखा जाएगा, और अंतत: बढ़ाया जाएगा? क्या एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण बरकरार रहेगा या समाप्त कर दिया जाएगा?
साजिश की बू
इसका सबसे बुरा असर वस्तुओं की कीमतों पर पड़ेगा। सार्वजनिक उपक्रमों का एक बार मुद्रीकरण हो जाने के बाद बाजार में कीमतों को स्थिर रखने के प्रयासों पर विराम लग जाएगा। अगर इस क्षेत्र में एक, दो या तीन निजी कंपनियां ही खिलाड़ी होंगी, तो मूल्य निर्धारण में मनमानी होना तय है। इस मामले में हमारे सामने सीमेंट का तथाकथित प्रतिस्पर्धी बाजार उदाहरण है, जिसमें इसे हकीकत में बदलते देखा गया है। यूनाइटेड किंगडम में जब बैंकिंग क्षेत्र में भी यही सच सामने आया तो वह हिल गया था। मुझे आशंका है कि हमारे यहां कई क्षेत्रों में कीमतें बढ़ेंगी।
अंत में, जिस ढंग से मोदी सरकार ने इस पूरी प्रक्रिया को पेश किया है, उससे इसमें साजिश की बू आती है। एनएमपी पर कोई मसौदा तैयार नहीं किया गया। हितधारकों, खासकर कर्मचारियों और मजदूर संगठनों के साथ कोई परामर्श नहीं किया गया। संसद में न कोई चर्चा हुई और न आगे कभी होगी। इस पूरी नीति को गोपनीय तरीके से रचा गया और अचानक घोषित कर दिया गया। मीडिया को सरकार के नेताओं और निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों ने अच्छी तरह सिखा-पढ़ा कर तैयार कर दिया था, ताकि वे सरकार की प्रशंसा करने में कोई कोर-कसर न छोड़ें।
दुकान बंद होने से पहले सारा सामान बेचने के लिए चल रहे इस आखिरी महाबिक्री उत्सव में मोलभाव और खरीद के लिए तैयार हो जाइए। इजारेदारों के स्वागत के लिए तैयार हो जाइए।