एक सौ अड़तीस करोड़ की आबादी वाले देश में प्रति व्यक्ति अट्ठानबे हजार रुपए की आय बेहद अपर्याप्त है, मध्यवर्ग के आकार का अनुमान लगा पाना मुश्किल है। इसमें पहली अड़चन तो पारिभाषिक है। कौन-सा आयवर्ग है जिसके आधार पर मध्यवर्ग की गिनती की जा सकती है? सिर्फ एक फीसद आबादी के पास कुल दौलत का तिहत्तर फीसद हिस्सा है। यह मानते हुए कि किसी भी विकासशील देश में सबसे नीचे की बीस फीसद आबादी को गरीब मान लिया जाना चाहिए, जो सात फीसद बच जाते हैं, उन्हें मध्यवर्ग कहा जा सकता है। सिर्फ चौदह देश ऐसे हैं, जो दस करोड़ से ज्यादा आबादी वाले हैं।

दूसरी बाधा जीवन की गुणवत्ता को लेकर है, जिसे मध्यवर्ग के जीवन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। अट्ठानबे हजार रुपए प्रति व्यक्ति आय वाला व्यक्ति किस तरह जीवन जी सकता है? आठ हजार रुपए महीने कमाने वाले के लिए घर, खाना, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य, फुरसत, मनोरंजन और फिर कुछ बचत जैसी जरूरतें पूरी कर पाना मुश्किल है। ये वे जरूरते हैं जो सबकी होनी चाहिए। इसलिए मध्यवर्ग में गिने जाने के लिए आमद इस राशि की कम से कम दोगुनी या तिगुनी होनी जरूरी है। मुझे लगता है कि यह संख्या आयकर देने वालों की संख्या से ज्यादा नहीं होगी। 2018-19 में कर अदा करने वालों की संख्या तीन करोड़ उनतीस लाख थी, कुल आबादी का मुश्किल से 2.4 फीसद।

न देखा न सुना
मान लीजिए, मध्यवर्ग के आकार को लेकर हम एक अनुमान लगाते हैं कि यह तीन से दस करोड़ के बीच होगा। इसमें हम छह करोड़ का आंकड़ा ले लेते हैं। इनमें कारोबारी, किसान, जज, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, अभिनेता, लेखक और दूसरे पेशेवर हैं।

इस लेख का विषय यह है कि छह करोड़ का यह जो मध्यवर्ग है, वह कर क्या रहा है? 1930, 1940 से लेकर 1980 तक हजारों ऐसे लोग थे, जो खुशी-खुशी अपने को मध्यवर्ग का कहते थे। वे राजनीति सहित सार्वजनिक जीवन में सक्रिय थे। वे संसद, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकाय चुनाव लड़ते थे। इनमें से किसी न किसी को नगर निकायों, सहकारी समितियों और स्थानीय निकायों, स्वयंसेवी संगठनों, खेल निकायों में कार्यकारी का पद मिल जाता था। इन्हीं में वक्ता, लेखक, कवि, अभिनेता और कलाकार होते थे। वे प्रासंगिक और सामयिक मुद्दों पर चर्चा करते थे। इनमें से ही संपादकों को पत्र और कभी-कभी मुख्य लेख लिखा करते थे।

साधन से ज्यादा नहीं
आजादी की लड़ाई के दौरान मध्यवर्ग ने ही सबसे संपन्न बौद्धिक साधन के रूप में सेवाएं दी थीं। इस वर्ग के सैकड़ों लोग राजनीतिक नेताओं के मित्र और विरोधी थे। वे सत्ता में बैठे लोगों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलते थे। उनके विचार सार्वजनिक संवाद को आकार दिया करते थे। बंगाल में उन्हें भद्रलोक कहा जाता था। तमिलनाडु में वे द हिंदू और दिनामणि पढ़ते थे, संगीत समारोहों और सिनेमाघरों में भीड़ लगा देते थे और धार्मिक उत्सवों जैसे थेप्पम और थेर (रथ) की अगुआई करते थे। महाराष्ट्र में वे मराठी साहित्य और रंगमंच के संरक्षक थे। केरल और कर्नाटक में वे चर्च और मठों में सक्रिय थे। मध्यवर्ग वाकई चीजों के बीच था।

मध्यवर्ग की भागीदारी बढ़ने से ही राजनीति समृद्ध और सभ्य बनी और यह भागीदारी हमेशा उम्मीदवारों के रूप में ही नहीं होती थी, बल्कि जनमत बनाने वालों के रूप में भी होती थी। इसमें से मध्यवर्ग के नेता जैसे अच्युत मेनन, वीरेंद्र पाटील और संजीवैया जैसे दक्षिण में थे और ऐसे ही कई उत्तर में भी। अपने विचारों के जरिए मध्यवर्ग ने सरकार के खिलाफ लोगों के संघर्ष जैसे किसानों के मुद्दे, मजदूर आंदोलनों, छात्र आंदोलनों में मध्यस्थता भी की। मध्यवर्ग ने संवेदना, तर्क, निष्पक्षता और समानता जैसे मूल्यों को पेश किया और यह सुनिश्चित किया कि इन मूल्यों का सम्मान बना रहे।

दुखद है कि वह मध्यवर्ग अब साफ हो गया लगता है। अब यह न सिर्फ अर्थशास्त्रियों के वर्गीकरण के लिए बचा रह गया है, बल्कि लगता है कि यह व्यावहारिक रूप से जीवन की हर गतिविधि से पीछे हट गया है। क्लबों, समाजों, खेल संस्थाओं, सहकारी समितियों, ट्रेड यूनियनों, मंदिरों के ट्रस्टों और समाज की हर संगठित संस्था पर पूरी तरह से राजनीतिकों ने कब्जा जमा लिया है। शायद यही कारण है कि जिसकी वजह से सार्वजनिक जीवन खासतौर से राजनीति कटुतापूर्ण और पैसे के खेल में बदल गई है और चर्चा का स्तर एकदम फूहड़ हो चुका है।

छोटे गणराज्यों में बंटा
सिंघु और टिकरी पर सौ दिन से भी ज्यादा समय से चल रहे किसान आंदोलन को लेकर मध्यवर्ग की उदासीनता निराशा पैदा करती है। सिर्फ निर्भया कांड के वक्त को छोड़ दें तो मध्यवर्ग ने जेएनयू और एएमयू में पुलिस दमन, शाहीनबाग और अन्य जगहों पर सीएए विरोध और सबसे शर्मनाक तो यह कि उन लाखों प्रवासी मजदूरों के दुख और पीड़ा, जो 25 मार्च 2020 को पूर्णबंदी के बाद सैकड़ों किलोमीटर अपने घरों को लौट रहे थे, से अपनी दूरी बना ली।

हरियाणा और कर्नाटक में मजदूर यूनियनों के संघर्ष को नजरअंदाज कर दिया गया। पुलिस की गोलीबारी और मुठभेडें भी उनके अवचेतन को झकझोरतीं नहीं लगती। सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, कवियों की मनमानी तरीके से गिरफ्तारियां या विपक्षी नेताओं का उत्पीड़न भी उनके आत्मसंतोष को हिलाता नहीं दिखता। यह ठीक वैसा ही है जैसे मध्यवर्ग ने अपने को दरवाजे वाले छोटे-छोटे गणतंत्रों में कैद कर लिया हो।

सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त इसका उदाहरण है। चुनावों के वक्त यह कारोबार पनपता है जैसा कि पश्चिम बंगाल और पुदुचेरी में हुआ है! फिर भी दलबदल कानून में बदलाव किए बिना चुनावों की अधिसूचना जारी हो रही है और शायद ही कहीं विरोध की सुगबुगाहट है।

लगता है मध्यवर्ग ने तीन बंदरों वाली कहानी की शिक्षा को अपने जीवन में उतार लिया है- बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो। मुझे डर है कि यह गायब मध्यवर्ग जल्द ही लोकतंत्र को मार देगा।