भले यह बहुत पुरानी बात लगती हो, लेकिन याद रखने लायक है कि मुश्किल से तीस साल पहले देश में एक घरेलू एअरलाइन (इंडियन एअरलाइंस), दो फोन सेवा प्रदाता कंपनियां (बीएसएनएल और एमटीएनएल), तीन कारें (एंबेसडर, फिएट और मारूति) हुआ करती थीं और फोन, गैस कनेक्शन, स्कूटर आदि के लिए ढेरों लोग प्रतीक्षा सूची में होते थे। जो दुर्लभ वस्तुएं और चीजें थीं, उनमें सबसे ज्यादा मुश्किल से मिलने वाली विदेशी मुद्रा थी। मास्टर डिग्री की पढ़ाई के लिए मैं सिर्फ सात अमेरिकी डॉलर रोजाना के खर्च पर साल में दस महीने के लिए अमेरिका गया था! 1991 में भारत की अर्थव्यवस्था ऐसी ही थी। राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था, एकाधिकार या सरकारी कंपनियों का दबदबा, आयात नियंत्रण, स्थिर विनिमय दर, लाइसेंस राज और बाजारों पर एक अविश्वास को लेकर राजनीतिक रूप से आम राय थी। कोई भी राजनीतिक दल इसका अपवाद नहीं था। विरोधी वही थे जो वाम खेमे की ओर चले गए थे।

प्रेरित पसंद
1991 के लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत मिलने की उम्मीद नहीं थी। कांग्रेस दो सौ बत्तीस सीटें जीत कर बहुमत के सबसे करीब थी। देश को गंभीर आर्थिक संकट से सफलतापूर्वक निकालने के लिए किसी ने भी सरकार को आधा मौका भी नहीं दिया। प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव, जो एक कैबिनेट मंत्री के रूप में सामान्य माने जाते थे, एक राजनीतिक उस्ताद के तौर पर सामने आए थे। वित्तमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह उनकी प्रेरित पसंद थे। मुझे लगता है कि मेरे पास एमबीए की डिग्री होने की वजह से ही मुझे वाणिज्य मंत्री बनाया गया था।

मंत्रिपरिषद की पहली बैठक में कैबिनेट सचिव नरेश चंद्र को लेकर नरसिंह राव की यह यादगार टिप्पणी थी कि ‘नरेश क्या आपने मंत्रियों के लिए घोड़ा-गाड़ी का बंदोबस्त कर लिया है?’ पहले दस दिन तो सुस्ती के और नीरस रहे और यह डर बना रहा कि क्या (अल्पमत) सरकार विश्वास मत हासिल कर भी पाएगी। वक्त किसी का इंतजार नहीं करता, भारत के प्रधानमंत्री का भी नहीं। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से खाली हो रहा था। डिफाल्ट होने का खतरा सिर पर था। अमेरिकी डॉलर के लिए गैर-सरकारी विनिमय दर तेजी से बढ़ रही थी, डर से निर्यातकों और आयातकों की हालत खराब थी, और इस अंधेरी सुरंग में कहीं रास्ता नजर नहीं आ रहा था। वामदलों की ओर से जोरदार आवाजें उठ रही थीं और समाजवाद की तगड़ी खुराकों की मांग की जा रही थी। शायद ही कोई राजनेता रहा होगा, जिसने आर्थिक उदारीकरण की वकालत की हो।

जो छह लोग चट्टान की तरह खड़े होकर पत्थर पर भगवान राम के पैर पड़ने का इंतजार कर रहे थे, उनमें नरेश चंद्र, एएन वर्मा, मोंटेक सिंह आहलूवालिया, डॉ. राकेश मोहन, एस. वेंकटरमणन और डॉ. सी. रंगराजन थे। जब लोग दसवीं लोकसभा चुन रहे थे, तभी इन्होंने योजनाएं बना ली थीं। पहला कदम अवमूल्यन विस्फोट की संभावना से भरा था। डॉ. मनमोहन सिंह ने हालात को परखते हुए एक जुलाई को नौ फीसद अवमूल्यन कर दिया था। तीन जुलाई को बड़ी चतुराई से प्रधानमंत्री की अपील को दरकिनार करते हुए दूसरा कदम दस फीसद अवमूल्यन का उठा लिया था।

परंपराएं तोड़ीं
डॉ. सिंह ने मुझ पर और आहलूवालिया पर दबाव बनाया। व्यापार नीति में बदलावों के लिए हमने तेरह सूत्रीय पैकेज तैयार किया, जिसका एलान मैंने चार जुलाई को एक संवाददाता सम्मेलन में किया था। व्यापार नीति की घोषणाएं वाणिज्य मंत्रालय के नियंत्रण से बाहर थीं। मैंने राजकोषीय और औद्योगिक नीति, विदेशी निवेश, आयात संबंधी अड़चनों को दूर करने, ज्यादातर आयात लाइसंसों को खत्म करने और व्यापार खाते के लिए रुपए की अपिरवर्तनीयता जैसे मुद्दों पर मिलते-जुलते कदम उठाने के बारे में बताया। मैंने यह भी कहा था कि इन कदमों को प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री का पूरा समर्थन है। वित्तमंत्रालय को इससे मदद मिली थी। उद्योग मंत्रालय ने नए औद्योगिक प्रस्ताव तैयार किए। 24 जुलाई को युगांतकारी बजट पेश किया गया।

एक मजबूत सुधारवादी राजनीतिक ब्रिगेड के ढाई लोगों को संसद में विपक्ष के प्रचंड विरोध का सामना करना पड़ा। उसकी आलोचना में चंद्रशेखर से ज्यादा मुखर कोई नहीं था। हमले को कमजोर करने के मकसद से मैंने वह फाइल उठाई, जिसमें प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने व्यापार नीति उदार बनाने के लिए वाणिज्य मंत्रालय के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी, जो लागू नहीं हो पाई थी। उन्होंने उस पर नजर डाली और उसे मात्र एक प्रस्ताव भर कहते हुए खारिज कर दिया, जिसका मकसद उसे कभी लागू करना नहीं था!

मैं क्रांतिकारी बदलाव करने में जुट गया था। हमने आयात एवं निर्यात संबंधी मुख्य नियंत्रक के दफ्तर को समाप्त कर दिया था। हमने भारतीय व्यापार सेवा भी खत्म कर दी थी। हमने उस लालफीताशाही को भी खत्म कर दिया था, जिसने एक बड़े व्यापारिक देश का लगभग चालीस तक गला घोंट रखा था। साल के अंत में डॉ. सिंह ने आहलूवालिया को मुझसे ‘चुरा’ लिया। आहलूवालिया और डॉ. वाईवी रेड्डी के वित्त मंत्रालय में जाने से मैं उदास था। हालांकि एवी गणेशन के आने से मैं खुश था, लेकिन नागरिक उड्डयन मंत्री माधवराव सिंधिया अपना सचिव ‘चुरा’ लिए जाने से मुझसे खफा हो गए थे!

नई विदेश व्यापार नीति
मैंने अपना दिल नई विदेश व्यापार नीति तैयार करने में लगाया। मेरे निर्देश साफ थे- (1) सौ पेज, इससे ज्यादा एक भी नहीं और (2) आसान अंग्रेजी, जटिल भाषा नहीं। लेकिन नीति और नियमों की पुस्तिका कौन लिखेगा? पूरे मंत्रालय में न कोई इच्छुक था, न ही सक्षम। मैं जरा भी विचलित नहीं हुआ। एक रविवार मैंने व्यापार नीति का पहला अध्याय लिखवाना शुरू कर दिया। जैसे ही हर अध्याय खत्म होता, उसी के अनुरूप गणेशन नियमों की पुस्तिका के अध्याय लिखते जाते। हमने समय से इस काम को पूरा कर लिया था और 31 मार्च, 1992 को नई व्यापार नीति आ गई थी। वे नौ महीने बहुत ही खुशगवार दिन थे। गजब का उत्साह था। तब हमें लगा कि पंख तो हमारे हमेशा लगे हैं, लेकिन हम उड़ना भूल गए थे। तीस साल पहले इसी हफ्ते हम आकाश में उड़ चले थे।