सामान्य व्यक्ति और बौद्धिकों की विश्व दृष्टि में अपाट खाई नजर आ रही है। हो सकता है कि यह खाई मुझे ज्यादा गहरी लग रही हो, पर जमीन का टूटना और धंस जाना सभी को दिख रहा है। कुछ समय पहले तक हम एक समतल पर खड़े थे और लगभग एक तरह से जनसंवाद में जुटे थे। कई मानकों पर सहमति थी या कहें कि हमने कुछ मूल मानकों को अपनी सामाजिक और राजनीतिक जीवन शैली का स्वाभाविक हिस्सा-सा मान लिया था। हिंदुस्तान में ही नहीं, पूरी दुनिया में एक प्रकार का तंत्र और सोच हावी थी और वह हमारे आचार-विचार में इस कदर घुल-मिल गई थी कि उसका हर विघटन अप्राकृतिक-सा लगता था।
पिछले कई सालों से, खासकर पिछले एक दशक में, अकाट्य जीवन सत्यों को चुनौती मिलने लगी थी। 1940 से लेकर लगभग 2000 तक लोकतंत्र, मानवाधिकार, उदारवादी मूल्य, सहिष्णुता, वैश्वीकरण, पश्चिमीकरण वगैरह हमारे सार्वजनिक संभाषण का मूलभूत हिस्सा थे। शुरुआती दशकों में इन सभी मूल्यों के चमकते सितारे ईरान और अफगानिस्तान थे। तेहरान, लंदन और न्यूयॉर्क से कम नहीं था और काबुल को पूरब का पेरिस कहा जाता था। 1979 में तेहरान के पहलवी राजवंश को इस्लामिक क्रांति ने सत्ता विहीन कर दिया और यकायक तरक्की पसंद ईरान कट्टरवादी इस्लाम के साथ हो गया।
अफगानिस्तान में भी कुछ ऐसा ही हुआ, 1979 में। काबुल में कम्युनिस्ट सरकार थी और उसकी खिलाफत में मुसलिम गुरिल्ला मूवमेंट शुरू हुआ। सोवियत रूस की फौज कम्युनिस्ट सरकार की मदद के लिए अफगानिस्तान में घुसी और फिर वहीं फंस गई। 1992 तक यह सिलसिला चलता रहा और फिर इस्लामिक कट्टरपंथी काबिज हो गए। पूरब का पेरिस तालिबानी काबुल बन गया।
ज्यादातर विद्वानों ने इन दोनों परिवर्तनों को जिओ पॉलिटिक्स के नजरिए से देखा, जिसमें अमेरिका और सोवियत रूस के बीच चल रहे शीतयुद्ध की बड़ी हिस्सेदारी थी। यह कहना काफी हद तक ठीक भी था, क्योंकि दोनों महाशक्तियां अपने बल प्रदर्शन की होड़ में लगी हुई थीं। तेहरान अमेरिका के पूरे प्रभाव में था और अफगानिस्तान पर रूस का वर्चस्व था। पर दोनों देशों में आधुनिक विचार और जीवन शैली मान्य प्रतीत होती थी। किसी को भी आभास नहीं था कि जमीनी स्तर पर दोनों देश बदल रहे हैं। ईरानी क्रांति ने तथाकथित उदारवादी पाश्चात्य मूल्यों को एक झटके में दरकिनार कर कट्टरपंथी इस्लामिक चोले को अपना लिया। अफगानिस्तान में भी ऐसा ही हुआ। समाज एक दिशा और दशा से ठीक उलट दिशा और दशा में परिवर्तित हो गया। उदारवाद और कट्टरवाद के बीच संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं रही। धीरे-धीरे दुनिया के कई बड़े हिस्से बदलने लगे। पाकिस्तान इनमें पहला था। फिर 2000 आते-आते रूस से अलग हुए कई देशों में मजहबी संघर्ष हुआ, जो खाड़ी के देशों से लेकर अफ्रीका के इलाको में फैल गया। इसके साथ आतंकवाद का जन्म हुआ और वह पल भर में जवान भी हो गया। 11 सितंबर, 2001 को आतंकवाद बड़े धमाके के साथ अमेरिका भी पहुंच गया। सारी दुनिया अब भयभीत थी। उदारवाद के परखचे उड़ गए थे। पर बौद्धिकों को ऐसा नहीं लगा। वे अपने थिंक टैंकों में मेढक बने रहे। देश बदल रहे थे, लोगों की अपेक्षाएं बदल रही थीं, मनोवृत्तियां तब्दील हो रही थीं और माहौल गहरा रहा था, मगर सामाजिक, राजनीतिक विचारक इन परिस्थितियों से निपटने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाए। वे आगे-पीछे सब ठीक हो जाएगा की माला जपते रहे और अपनी पुरानी घुट्टी प्रसाद के रूप में बांटने में जुटे रहे। उनको इस बात का बिल्कुल एहसास नहीं था कि सन 2000 में 1960 की घुट्टी की तासीर खत्म हो चुकी थी।
2014 में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष भारत में दक्षिणपंथ का प्रचंड उदय और फिर अमेरिका जैसे उदारवादी देश में डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी (2016) से साबित हो गया है कि बौद्धिकों के प्रवचन और आम आदमी की सोच में कोई तालमेल नहीं है। एक तरह से देखा जाए तो बुद्धिजीवियों और उदारवादी विचारकों के पैरों तले की जमीन कब खिसक गई, पता ही नहीं चला। वोट के जरिए हो या फिर आतंकवाद पर खामोश समर्थन के जरिए, बहुत हद तक कट्टरवाद का प्रभुत्व हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर पसर रहा है। इसके कई नाम और रंग है- राष्ट्रवाद, विकासवाद आदि, पर लौट-फिर कर बात एक ही है।
उदारवादी बुद्धिजीवी सकपकाए हुए हैं। कुछ तो दहशत में हैं। उनके जीवन काल में चली आ रही और पूर्ण स्थापित तथाकथित वामपंथी उदारवादी वैचारिक शैली का तख्ता पलट हो गया है। वैसे भी जब वे विश्व इतिहास पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि उनके जैसे उदारवाद की सत्ता हमेशा से अल्पकालीन रही है। कट्टरपंथ का बोलबाला इतिहास में लगातार बना रहा है, चाहे वह रोम और ग्रीस का राष्ट्रवाद हो या फिर क्रिश्चियन कू्रसेड और इस्लामिक खलीफाशाही। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, पुर्तगाल, फ्रांस, रूस आदि भी राष्ट्रवाद को बुलंद करके ही आगे बढ़े थे और फिर उदारवादी हो गए। उनका आज वही हाल है, जो हिंदुस्तान में सम्राट अशोक के उदारवाद समर्पण के बाद हुआ था। आशोक के साथ राजवंश खत्म हो गया था और भारत का स्वर्ण काल भी। उसके बाद आने वाले चंद्रगुप्त मौर्य ने राष्ट्रवाद की नींव पर फिर से साम्राज्य खड़ा किया।
पर इन तथ्यों से परे यह भी सत्य है कि देश बदल रहे हैं, उनमें मंथन चल रहा है। एक तरफ अनजाने भय से आम लोग कट्टरपंथ स्वीकार कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ उदारवाद के ‘अस्वाभाविक’, संस्थागत तौर-तरीकों से भी परेशान होकर अपनी आदमीयत की सत्यता के हट गए हैं। अमेरिका में समलैंगिक विवाह से लेकर उदारवादियों की वैचारिक और सामूहिक भ्रष्टता चुनावी मुद्दे बन चुके हैं। डोनाल्ड ट्रंप जब ‘फेक न्यूज’ कहते हैं तो जन साधारण की चुप्पी को जुबान देते हैं, जो उदारवाद को जाली व्यवस्था मानते हैं। दूसरी तरफ वे लोग हैं, जिनको लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आड़ में कट्टरवाद अस्वीकार्य है। उनके अनुसार लोकतंत्र और कट्टरवाद अलग-अलग चीजें हैं। जो कट्टरवादी है वह लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। यह एक तरह से सच भी है, क्योंकि लोकतंत्र में कोई भी विचार या कृत्य किसी पर थोपा नहीं जा सकता। पर ऐसा हो रहा है। जन-सत्ता का धर्म या अर्थ ने नाम पर अपहरण हमारी आखों के सामने दिनदहाड़े हो रहा है।
वास्तव में आम आदमी लोकतंत्र के प्रति समर्पित है, उदारवाद उसकी मूल प्रवृत्ति है। जो लोग कट्टरपंथी नहीं हैं और लोकतंत्र के प्रति कटिबद्ध हैं, उन्हें इस प्रवृत्ति को सहज ढंग से कुरेदना होगा, उसको फिर से प्रवाहित करना होगा। उनके लिए जरूरी है कि वे जनमानस से फिर से जुड़ें और उसकी असुरक्षा को शांत कर मानवीय मूल्यों और भावों से जोड़ें। यह एक बड़ी चुनौती है, जो सीधे मानवता के भविष्य पर असर डालती है।
कट्टरवाद से आमने-सामने का संघर्ष व्यर्थ है। उसका बाहुबल और उनके नारे की ललकार हमेशा भारी पड़ेगी, क्योंकि जोश अमूमन होश खो देता है। उदारवाद होश का वाद है, आदमियत का वाद है। इसीलिए विश्वास से कहा जा सकता है कि आज जो भी है, वह आज ही है। कल उदारवाद का ही प्रभुत्व होगा, क्योंकि उदारवाद ही मानव प्रकृति के अनुसार है, सहज है और हमारी-आपकी की दशा और दिशा सुधारने में सक्षम है। यह सबसे अच्छा और स्वस्थ लोकतांत्रिक तरीका भी है।
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