थोड़ी ही देर में इतना बदल गया है दोस्तों अपने इस महान भारत देश की राजनीति का माहौल कि जहां कल तक प्रधानमंत्री आत्मविश्वास के साथ कहते फिर रहे थे कि 2002 में वे क्या करने जा रहे हैं, अब 2019 के आम चुनाव में भी उनकी जीत तय नहीं दिख रही है। कल तक जो उनके समर्थक थे, आज उनके खिलाफ लिख रहे हैं, उनकी गलतियां गिना रहे हैं। इन तब्दीलियों को देख कर मैंने मोदी के विकल्प के बारे में सोचना शुरू किया और देखा किस तरह तेलंगाना और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों के बीच चुपके से मुलाकातें हो रही हैं और किस तरह सोनिया गांधी इतरा के चलने लग गई हैं। चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का विकल्प सिर्फ कांग्रेस है, मैंने इस दल के हाल में हुए चौरासीवें अधिवेशन पर खास ध्यान दिया। इसलिए भी ऐसा करना मुनासिब था, क्योंकि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला बड़ा सम्मेलन था। गौर से इस अधिवेशन में कांग्रेस के वरिष्ठ राजनेताओं के भाषण सुने और बहुत ध्यान से राजनीति और अर्थव्यवस्था पर उन पर्चों को पढ़ा जो इस अधिवेशन में पारित किए गए थे। लेकिन इनको पढ़ने के बाद निराश हुई, खुश नहीं। इसलिए कि 2014 के आम चुनावों में इतनी बुरी तरह हारने के बाद भी साफ जाहिर है कि कांग्रेस ने कुछ नहीं सीखा है। सो राजनीतिक तौर पर फैसला लिया है कांग्रेस ने कि वह उन सब राजनीतिक दलों के साथ हाथ मिलाने को तैयार है जो नरेंद्र मोदी को हराना चाहते हैं। जब मोदी ने खुद कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा दिया था तो क्यों नहीं कांग्रेस मोदी-मुक्त भारत का नारा लेकर जाए जनता के पास? इस राजनीतिक निर्णय पर कौन एतराज कर सकता है?

निराशा हुई मुझे तब जब मैंने कांग्रेस के विचार पढ़े अर्थव्यवस्था पर। इसलिए कि अर्थव्यवस्था ही सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा है आज के भारत में। मोदी अगर हारते हैं 2019 में तो इसलिए हारेंगे कि आम भारतीय के जीवन में आर्थिक तौर पर कोई खास फर्क नहीं आया है उनके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद। वही बेरोजगारी है, वही बिजली-पानी की समस्याएं, वही आवास का अभाव, वही शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं में सुधारों का अभाव। लेकिन ये सारी समस्याएं मोदी को विरासत में मिली थीं। सो कांग्रेस के लिए बहुत जरूरी था पिछले चार सालों में नई सोच की शुरुआत करना, नई नीतियों पर विचार करना। आखिर राहुल गांधी ने वादा किया है इस अधिवेशन में कि उनके नेतृत्व में नई कांग्रेस का जन्म होगा। लेकिन उनके आर्थिक विचार बिल्कुल नहीं बदले हैं। इसलिए वे वही नीतियां लेकर आएंगे, जिनकी वजह से भारत की गिनती दुनिया के गरीब देशों में होती थी उनके पूर्वजों के दौर में और आज भी। यहां याद कराना चाहूंगी आपको कि भारत की तस्वीर 2014 में कैसी थी। हर दूसरा बच्चा कुपोषित था, 58 फीसद जनता का दैनिक गुजारा 200 रुपए से कम आमदनी पर होता था और सत्रह करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे थे। ऊपर से सरकारी स्कूल और अस्पताल इतने बेकार थे कि गरीब लोग भी प्राइवेट सेवाओं पर निर्भर थे। इसलिए जब मोदी चुनावी मैदान में आए परिवर्तन और विकास का नारा लेकर, लोगों को बहुत अच्छा लगा। ऊपर से जब ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा भी उनकी चुनाव सभाओं में गूंजने लगा तो इस देश के मतदाताओं ने तय किया कि मोदी को पूर्ण बहुमत देकर दिल्ली भेजेंगे, ताकि उनके रास्ते में कोई भी बाधा न पैदा हो।

राजीव गांधी के बाद मोदी पहले प्रधानमंत्री बने, जिन्हें पूर्ण बहुमत मिली। इसलिए वे बहुत बड़े पैमाने पर सुधार ला सकते थे हर क्षेत्र में। ऐसे सुधार जिनसे आम लोगों के जीवन में चार वर्षों में ऐसा परिवर्तन दिखने लगता कि उन्हें विश्वास हो कि 2019 में मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाने में ही देश का भला है। मोदी यह जानते थे, लेकिन मालूम नहीं, उनको क्या हुआ प्रधानमंत्री बनने के बाद कि विकास और परिवर्तन की बातें भूल कर उन्होंने हिंदुत्ववादियों के हवाले कर दिया देश को। गौरक्षकों को खुली छूट दी है भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में। उन्होंने ऐसा आतंक मचा रखा है कि किसानों ने पशु पालना ही बंद कर दिया है। कैसे पाल सकते हैं पशु, जब उनको इधर से उधर लेकर जाना ही इतना खतरनाक हो गया है? पशुओं के मेलों का हाल इतना बुरा हो गया है कि पिछले साल पुष्कर के मेले में नब्बे फीसद कम पशु दिखे।

इन सब बातों के बावजूद उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने मोदी के नाम पर बहुमत दिया भाजपा को विधानसभा चुनावों में पिछले साल। चुनाव परिणाम आने के बाद मोदी और अमित शाह ने मालूम नहीं क्यों, तय किया योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना। योगी ने सत्ता में आते ही ‘लव जिहाद’ के नाम पर ‘एंटी-रोमियो स्क्वॉड’ बनाए, जिन्होंने आतंक फैलाने का एक नया जरिया शुरू किया। कानून व्यवस्था मजबूत करने के नाम पर योगी ने अपने पुलिस वालों को एनकाउंटर यानी मुठभेड़ करने की पूरी इजाजत दी है, जिनमें ज्यादातर मारे गए हैं दलित और मुसलिम युवक। योगी आदित्यनाथ की इन नीतियों से उनकी लोकप्रियता इतनी कम हो गई है कि अपना गढ़ गोरखपुर हार चुके हैं अब। ऐसा होना ही था, क्योंकि वोट मोदी को मिला था परिवर्तन और विकास के लिए, हिंदुत्व के लिए नहीं। इसलिए आज अगर राजनीतिक पंडित तय कर चुके हैं कि मोदी 2019 में नहीं बन सकेंगे प्रधानमंत्री तो दोष मोदी का अपना है। लेकिन हारते हैं तो नुकसान होगा देश का। कांग्रेस का दौर अगर आता है वापस या खिचड़ी सरकारों का, तो भारत लंगड़ाता हुआ चलेगा इक्कीसवीं सदी में।