भविष्य के प्रति सजग और सतर्क नेतृत्व वाला कोई भी ऐसा देश नहीं होगा, जो अपनी शिक्षा प्रणाली में सतत सुधार और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील न हो। सभी देश अपने स्कूलों, विश्वविद्यालयों तथा अन्य शिक्षण संस्थानों में सुधार चाहते हैं, परिवर्तन चाहते हैं, गुणवत्ता बढ़ाना चाहते हैं। शिक्षा परिवर्तन की धुरी है, वह परिवर्तन की निरंतरता को गति प्रदान करती है, भावी पीढ़ियों को परिवर्तन को आत्मसात करने और उसमें भागीदारी करने के लिए तैयार करती है, उसका नेतृत्व करने के लिए प्रोत्साहित करती है। नया ज्ञान तथा सकारात्मक परिवर्तन की संभावनाएं केवल सुसज्जित संस्थानों या बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाओं में प्रस्फुटित और पल्लवित नहीं होतीं, हालांकि वे लगातार अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान करती रहती हैं।
नवाचार और नए ज्ञान की क्षमता के बीज कहीं से, किसी भी समय मिल सकते हैं। सीखने का प्रारंभ तो मां, परिवार और अवलोकन से ही प्रारंभ होता है, औपचारिक शिक्षा इसके पश्चात ही प्रारंभ होती है। हर बालक, युवा और व्यक्ति को विचार, संकल्पना, जिज्ञासा, सर्जनात्मकता प्रकृति-प्रदत्त मिले ही होते हैं। इसे समझने में गांधी जी के जीवन की एक घटना से सभी परिचित हैं। पीटर मारित्जबर्ग रेलवे स्टेशन पर हुए अपमान ने उनके चिंतन-मनन के नए क्षितिज खोल दिए और इस प्रकार व्यावहारिक परिवर्तन के नए बीज अंकुरित कर दिए, जो रंगभेद को जड़ से उखाड़ने के सफल आंदोलन में परिवर्तित हो गए। सत्य के प्रति उनकी निष्ठा उनकी मां से प्राप्त संस्कारों से स्थापित हुई।
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यह कहना कठिन है कि औपचारिक शिक्षा का प्रभाव अधिक पड़ता है या परिवार, समाज और अवलोकन तथा चिंतन-मनन से प्राप्त होता है। प्रतिभा को न पहचाने जा सकने का सबसे बड़ा उदाहरण तो आइंस्टीन का है। ऐसे अनेक अपवाद हैं, लेकिन सर्वग्राही स्तर पर हर बालक और युवा को अवसर प्रदान करने की संभावनाएं उद्घाटित कर सकने की क्षमता वाले स्कूलों तथा उच्च शिक्षा संस्थानों की उपस्थिति सारे विश्व में स्वीकार्य है। मगर यह भी सही है कि स्कूल और उसके योगदान को लेकर समाज का हर वर्ग कभी पूरी तरह संतुष्ट नहीं रहा। वह इनसे ‘और अधिक’ चाहता है और इसी कारण औपचारिक शिक्षा संस्थान मानव जीवन का अनिवार्य और अभिन्न अंग बन गए हैं।
शिक्षा व्यवस्था में सुधार की संभावनाएं होती रही हैं पल्लवित
शिक्षा व्यवस्था या उसके संस्थानों के प्रति असंतोष अनेक प्रकार का हो सकता है, और इससे सुधार की संभावनाएं भी पल्लवित होती रही हैं। इस असंतोष के हर पहलू पर व्यवस्था को सकारात्मक दृष्टि से ही विचार करना चाहिए। अनेक अवसरों पर इसमें से बहुत कुछ उपयोगी प्राप्ति संभव है। रवींद्रनाथ ठाकुर के औपचारिक स्कूली शिक्षा के अनुभव तल्ख रहे, लेकिन उनके कारण ही प्रारंभ से विकल्प तलाश करने का चिंतन उनमें फला-फूला! उन्होंने स्कूल की प्रचलित व्यवस्था का ऐसा मनभावन विकल्प खड़ा कर दिया, जिसकी सराहना हर ओर की गई और आज भी हो रही है। प्रकृति की गोद में अपनी रुचि के अनुसार संकल्पना, विचार, जिज्ञासा और सर्जनात्मकता को खुली छूट मिल पाना सामान्य स्कूल-व्यवस्था में असंभव था, और आज भी वैसा ही है।
जगमोहन सिंह राजपूत का कॉलम समाज: युवाओं के भविष्य की चिंता और चुनौती
भारतीय ज्ञान परंपरा में बालक का विकास मनुष्य और प्रकृति की पारस्परिक निर्भरता की समझ प्राप्त करने के प्रयास से ही प्रारंभ होता था। प्रकृति के निश्चल सौंदर्यपान से ही उसके प्रति आत्मीयता उत्पन्न होती थी, उसके अनावश्यक दोहन या शोषण से व्यक्ति सदा बचता था, उसको सजाने-संवारने में अपने कर्तव्य के पालन के लिए तैयार होता जाता था। आज घनघोर वैश्विक समस्याएं मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ अपने संबंधों की सुंदरता बनाए रखने के लिए आवश्यक कर्तव्य पालन की उपेक्षा के कारण ही भयावह स्वरूप में खड़ी हो गई हैं। समाधान ढूंढ़ने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन सफलता नहीं मिल रही है। वैसे, भारत की पारंपरिक ज्ञान-सृजन परंपरा को आज के संदर्भ में महात्मा गांधी ने सारे विश्व के लिए अत्यंत सरल शब्दों में प्रस्तुत कर समाधान सामने रख दिया था: ‘मनुष्य और प्रकृति में आवश्यकता पूर्ति की पारस्परिकता अनिवार्य है, यहां लालच-जनित संग्रहण केवल आत्मघाती विकल्प हो सकता है!’ दुर्भाग्य से अभी यही हो रहा है, और यही शिक्षा के क्षितिज के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। इसके लिए सबसे पहले लोकतंत्र के तत्त्व समझने होंगे।
बीसवीं सदी का उत्तरार्ध लोकतंत्र
बीसवीं सदी का उत्तरार्ध लोकतंत्र की बढ़ती और विस्तृत उपस्थिति का समय कहा जा सकता है। अनेक नव-स्वतंत्र देशों में लोकतंत्र प्रारंभ तो हुआ, लेकिन पनप नहीं सका। भारत में यह सशक्त स्वरूप में अपनी जड़ें जमा सका, आपातकाल जैसी विकट परिस्थितियों से भी उबर सका। क्यों और कैसे? क्योंकि देश के पास जेपी जैसा व्यक्तित्व उपस्थित था। वे शिक्षित थे, उनके पास विचारों की शक्ति थी, विश्लेषण की क्षमता थी, वे भारत की संस्कृति तथा विरासत से परिचित थे, वे उस भारतीय दर्शन में रचे-पगे थे, जो मानव की वैश्विक एकता को अंत:करण से स्वीकार करता है, इसलिए किसी भी विचारधारा या आस्था के प्रति सम्मान रखता है! वे पश्चिम को समझते थे, उसकी सभ्यता के गहन अध्येता थे, लेकिन भारतीय संस्कृति और प्राचीन ग्रंथों तथा विरासत की श्रेष्ठता का सम्मान करते थे, उसे अपने कुछ अन्य सहयोगियों के समान हेय दृष्टि से नहीं देखते थे।
शिक्षा जब नैतिकता और और मानवीयता से समृद्ध होती है, और शिक्षण संस्थाएं तथा शिक्षक वर्ग कार्य संस्कृति और आचरण के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, तभी राष्ट्र में बौद्धिकता के बढ़ने, सामाजिक सद्भाव के निखरने और जन साधारण का जीवन सरल और सुविधाजनक होने की संभानाएं उभरती हैं। इन स्थितियों में जो नेतृत्व निर्मित होता है, उस पर जनमानस का विश्वास दृढ़ होता जाता और उसकी साख बढ़ती जाती है।