पुरानी कहावत है कि बुरा वक्त अकेले नहीं आता। ऐसा लगता है कि भारत की अर्थव्यवस्था पर अब देवता भी मेहरबान नहीं हैं। अर्थव्यवस्था के बारे में आ रही बुरी खबरों पर जरा नजर डालें- शेयरों के दाम इतने ज्यादा गिर गए हैं कि सूचकांक पंद्रह महीने के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए हैं। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक इस महीने 25 अक्तूबर तक 35,460 करोड़ रुपए निकाल चुके हैं। इस साल अब तक छियानबे हजार करोड़ रुपए बाहर निकल चुका है। रुपया गिरता जा रहा है और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में, डॉलर के मुकाबले इसकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। इस साल यह सोलह फीसद तक गिर चुका है, और आने वाले वक्त में यह और गिरेगा। कच्चे तेल के दाम (ब्रेंट) सतहत्तर अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए हैं। वैश्विक अनिश्चितता, खासकर मध्यपूर्व में चल रही अशांति से ये दाम और ऊपर जा सकते हैं। पेट्रोल और डीजल के रोजाना बढ़ रहे दामों ने उपभोक्ताओं पर ऐसा बोझ डाला है, जिसे बर्दाश्त कर पाना मुश्किल हो रहा है।
रुपए में गिरावट, बढ़ते दाम
रुपए के अवमूल्यन और पेट्रोलियम उत्पादों के बढ़ते दामों ने उपभोक्ताओं की जेब में छेद कर डाला है। इसका नतीजा यह हुआ है कि दूसरी वस्तुओं और सेवाओं की खपत पर बुरा असर पड़ा है। इस साल बारिश भी औसत से कम हुई है। करीब छत्तीस फीसद जिलों में बारिश नहीं के बराबर हुई। किसान आंदोलन कर रहे हैं। ज्यादातर कृषि उत्पादों का बाजार मूल्य घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे है। मुट्ठी भर राज्य ही ऐसे हैं, जहां खरीद केंद्र हैं और वे भी पर्याप्त नहीं हैं। इसलिए कुछ ही किसानों को एमएसपी का लाभ मिल पाया है। कारोबारी निर्यात की हालत पिछले चार साल से बहुत खराब है और अभी तक यह 2013-14 के 315 अरब डॉलर के स्तर से ऊपर नहीं निकल पाया है। इस साल के पहले छह महीनों में यह करीब 160 अरब डॉलर था।
कम निवेश, कर्ज संकट
सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआइई) के आंकड़े बताते हैं कि जुलाई-सितंबर, 2018 के दौरान सिर्फ डेढ़ लाख करोड़ के निवेश प्रस्ताव आए, औसत से काफी कम। सीएमआइई के आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि 5394 परियोजनाएं ठप पड़ गई हैं।
उद्योगों को दिए जाने वाला कर्ज अगस्त 2018 में 1.93 फीसद के स्तर पर भी मुश्किल से ही पहुंच पाया। चालू वित्त वर्ष के ज्यादातर महीनों में साल दर साल वृद्धि एक फीसद से भी कम रही। बैकों का एनपीए दस लाख करोड़ को पार कर चुका है। वित्तीय क्षेत्र के संकट को बढ़ाते हुए एक महत्त्वपूर्ण एनबीएफसी- इंफ्रास्क्ट्रचर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड (आइएलएंडएफएस) ने पूरे वित्तीय क्षेत्र को गंभीर संकट में डाल दिया है। दिवालिया मामलों को बहुत सुस्त रफ्तार से निपटाया जा रहा है, और 180 दिन की तय अवधि में कोई बड़ा मामला नहीं निपटाया गया।
रोजगार के मोर्चे पर भी हालत खराब है और यह बदतर होने की ओर ही है। सीएमआइई के आंकड़े बता रहे हैं कि अगस्त में बेरोजगारी की दर 6.3 फीसद थी, जो सितंबर 2018 में बढ़ कर 6.6 फीसद हो गई। यह तो तब है जब श्रमिक भागीदारी की दर, जो 2016 में छियालीस फीसद से ज्यादा थी, अब गिर कर 43.2 फीसद रह गई है।
व्यापक आर्थिक अस्थिरता
देश की वित्तीय स्थिति चिंता का विषय है। बजट में कुल कर राजस्व में 19.15 फीसद वृद्धि का जो अनुमान लगाया गया था, उसकी तुलना में इस साल अप्रैल से सितंबर के बीच कर संग्रह वृद्धि सिर्फ 7.45 फीसद ही रही, और पिछले साल भी इसी अवधि में कर संग्रह की स्थिति यही थी। अगर बजट लक्ष्य को हासिल करना है तो मौजूदा वित्त वर्ष के बाकी बचे महीनों में कुल कर संग्रह वृद्धि में 28.21 फीसद का इजाफा होना चाहिए, जो एकदम असंभव है। विनिवेश कार्यक्रम ठप पड़ गए हैं। अस्सी हजार करोड़ रुपए के बजट लक्ष्य के मुकाबले सरकार अब तक सिर्फ 9686 करोड़ रुपए ही जुटा पाई है। आखिर इसमें ऐसी क्या खामी रही होगी, जिसकी वजह से विनिवेश कार्यक्रम पिट गया, यह अभी तक साफ नहीं हो पाया है।
बजट में यह अनुमान लगाया गया था कि सरकारी उपक्रम इस साल सरकार को एक लाख सात हजार तीन सौ बारह करोड़ रुपए का लाभांश देंगे। सरकार ने तेल कंपनियों पर पेट्रोल और डीजल पर एक रुपए का बोझ उठाने का जो जबर्दस्ती का दबाव बनाया, उसकी वजह से अक्तूबर से दिसंबर की तिमाही में तेल कंपनियों को साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए का नुकसान होगा। ऐसे में उनका लाभांश वितरण कम हो जाएगा। और, अगर आइएलएंडएफएस को बचाने में एलआइसी ने अपनी रकम झोंक दी तो यही हालत उसकी भी होने वाली है।
सरकारी कार्यक्रमों की हालत ऐसी है कि उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। इसका उदाहरण है, बीमा आधारित चिकित्सा देखभाल योजना यानी आयुष्मान योजना। इसमें दस करोड़ परिवारों (यानी पचास करोड़ लोगों) को शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन अब तक इस योजना के लिए सिर्फ दो हजार करोड़ रुपए दिए गए हैं। ऐसे ही दूसरे कार्यक्रम हैं- मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना, पेयजल मिशन, स्वच्छ भारत, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और ग्राम ज्योति योजना।
चालू खाते का घाटा (कैड) इस साल सितंबर के आखिर तक पैंतीस अरब डॉलर तक पहुंच गया है। इस घाटे में कमी आने की कोई उम्मीद नहीं है, बल्कि साल के आखिर तक यह अस्सी अरब डॉलर यानी जीडीपी के तीन फीसद तक पहुंच सकता है। सरकार ने पिछले महीने जो कदम उठाने का एलान किया था, लगता है वे एकदम बेअसर रहे हैं।
एफडी और कैड पर दबाव से ब्याज दरें बढ़ेंगी। बांड यील्ड और मजबूत हुई हैं। ऐसे में आरबीआइ नीतिगत दरें बढ़ाने के बारे में सोच सकता है। अगर, जैसी कि आशंका है, उधारी दरें बढ़ती हैं तो इससे निवेशकों और उपभोक्ताओं दोनों को नुकसान पहुंचेगा, इससे आर्थिक गतिविधियां और मंद पड़ेंगी। इन समस्याओं और ऐसी ही दूसरी समस्याओं से निपटने के लिए दक्ष आर्थिक सलाहकारों और पेशेवरों की जरूरत है। रघुराम राजन, अरविंद पनगढ़िया और अरविंद सुब्रह्मण्यम के जाने के बाद सरकार के पास अंतरराष्ट्रीय ख्याति का कोई आर्थिक सलाहकार नहीं रह गया है। आर्थिक प्रबंधकों के बारे में कम कहना ही बेहतर है। वे ब्लॉग लिखने और गलत का बचाव और समर्थन करने में व्यस्त हैं। जाहिर है, अर्थव्यवस्था इस कदर चौपट हो चुकी है कि इसे अब कोई संभाल नहीं सकता।