सच पूछिए तो न्यूयॉर्क में न होती पिछले हफ्ते तो मुझे अंदाजा नहीं होता कि यह नई बीमारी कितनी जल्दी छोटी-सी चिंता से गंभीर समस्या में परिवर्तित हो जाती है। हुआ ऐसा कि न्यूयॉर्क में मैंने कई दिन मजे से गुजारे अपने बेटे के साथ। मौसम सुहाना था तो रोज टहलने निकलते थे हम इस महानगर के सुंदर सेंट्रल पार्क में और जब पता लगा कि यहां के प्रसिद्ध संग्रहालयों में कई आलीशान प्रदर्शनी थी, तो हम रोज किसी न किसी संग्रहालय में जाकर प्रदर्शन देखते थे। खूब भीड़ हुआ करती थी संग्रहालयों में और उन रेस्टोरेंटों में भी जहां हम दिन भर घूमने-फिरने के बाद खाना खाने जाते थे। ऐसा नहीं है कि कोरोना वायरस की चर्चा शुरू नहीं हुई थी, लेकिन न्यूयॉर्क में मेरे आखिरी दिन तक चिंता का विषय नहीं बनी थी।

चिंता तब बनी मेरे लिए निजी तौर पर जब स्विस एयरलाइंस ने मुझे खबर दी कि मेरी फ्लाइट रद्द कर दी गई है इसलिए कि मुंबई के लिए यात्री बहुत कम थे उस दिन। अगले दिन जब यही हाल रहा तो मुझे ब्रिटिश एयरवेज पर उन्होंने सीट दिलवा दी और सौभाग्य से मैं न्यूयॉर्क से रवाना हो सकी। अगले दिन डोनाल्ड ट्रंप की सरकार ने घोषित कर दिया कि पूरे महीने तक यूरोप के लिए एक भी एयरलाइंस का एक भी विमान नहीं उड़ान भर सकेगा, क्योंकि अमेरिका इस नई महामारी से अपने लोगों को बचाना चाहता है। तब तक खबर यह भी मिल गई थी कि इटली में इतना फैल चुका था कोरोना वायरस कि इस देश ने अपनी सीमाएं बंद कर दी थीं और पूरे के पूरे शहर वीरान हो गए थे।

सरकार का आदेश था कि वही लोग बाहर निकलें अपने घरों से जिनको कोई जरूरी काम हो। ऐसा आदेश अभी तक न्यूयॉर्क के लोगों को नहीं मिला है, लेकिन इतना जरूर हो गया है कि हाथों के सैनिटाइजर दुकानों से गायब हो गए हैं और सिनेमा, स्कूल, संग्रहालय सब बंद करवा दिए गए हैं, कोरोना को रोकने के लिए।

मुंबई पहुंची तो देखा कि हवाई अड्डे के सारे कर्मचारी नकाब पहने घूम रहे थे और अजीब-सा डर फैल चुका था वातावरण में। ताज्जुब हुआ जब घर पहुंची और टीवी पर देखा कि सुर्खियों में ज्योतिरादित्य सिंधिया की ‘घर वापसी’ थी, कोरोना नहीं। अगले दिन प्रधानमंत्री ने लोगों को आश्वासन दिया कि इस महामारी को लेकर किसी को चिंता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि सरकार ने इसे रोकने के लिए तमाम आवश्यक कदम उठा रखे हैं।

क्या यह सच है? विश्वास करना मुश्किल है, इसलिए कि हमारे सरकारी अस्पतालों का इतना बुरा हाल है कि रोजमर्रा की बीमारियों से निपटना भी उनके लिए मुश्किल है। जब कोई महामारी का सामना करना पड़ता है तो अक्सर विफल रहती हैं हमारी स्वास्थ्य सेवाएं। याद कीजिए मुजफ्फरपुर के उन बच्चों के अस्पताल का क्या हाल हुआ था पिछले साल जब बिहार के इस जिले में एन्सेफलायटिस फैल गया था। जब सौ से ज्यादा बच्चे इस बीमारी से मरे, तब बड़े-बड़े टी एंकर मुजफ्फरपुर पहुंचे और इस अस्पताल की बदइंतजामी और गंदगी जगजाहिर हुई। कुछ दिन देश भर में चर्चा रही स्वास्थ्य सेवाओं पर और फिर हम भूल गए जैसे अक्सर भूल जाते हैं। सो पूरी संभावना है कि गरमी शुरू होते ही एन्सेफलायटिस से फिर बच्चे मरने लगेंगे सिर्फ इसलिए कि कोई सुधार अभी तक हुए नहीं हैं।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले सप्ताह आश्वासन दिया कि कोरोना को रोकने के लिए उन्होंने हर जिले में इंतजाम किए हैं कोरोना मरीजों को अलग रखने के लिए। लेकिन उनकी इस बात पर कैसे विश्वास कर सकते हैं हम, जब वे अपने चुनाव क्षेत्र गोरखपुर में एन्सेफलायटिस को नहीं रोक पाए हैं। हर साल मरते हैं बच्चे इस महामारी से। कोरोना अगर फैलना शुरू होता है उत्तर प्रदेश में तो उसको कैसे रोक सकेंगे, जब विश्व के विकसित देश नाकाम रहे हैं?

मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में देश के बेहतरीन सरकारी अस्पताल हैं, लेकिन यहां भी सुविधाओं का गंभीर अभाव है और गंदगी इतनी है कि आवारा कुत्ते-बिल्ली घूमते दिखते हैं मरीजों के कमरों में। कड़वा सच यह है कि नरेंद्र मोदी की सबसे कामयाब योजना स्वच्छ भारत का प्रभाव हमारे अस्पतालों में अभी तक नहीं दिखता है। सो कोरोना वायरस अगर उस तरह फैलने लगती है जैसे यूरोप और अमेरिका में फैलने लगी है तो कौन जाने कितने लोग मर सकते हैं इसके कारण।

इस महामारी को रोक नहीं पाते हैं हम तो इसका सबसे बड़ा असर पड़ेगा देश की अर्थव्यवस्था पर। अभी से इसका असर शेयर बाजार में दिखने लग गया है और उन क्षेत्रों में जहां कमाई होती है पर्यटन से। मुंबई में मैंने थोड़ी बहुत तहकीकात की है न्यूयॉर्क से लौटने के बाद और मालूम यह हुआ है कि इस महानगर के सबसे प्रसिद्ध पांच सितारा होटल भी खाली हो गए हैं। वैसे भी मंदी के आसार कई महीनों से दिख रहे थे सो अब तय है कि हालात सुधरने के बदले और बिगड़ेंगे।

दोष सरकार का है ही, लेकिन कुछ दोष हमारा भी है। हमको अपनी बीमार स्वास्थ्य सेवाएं तब ही क्यों याद आती हैं जब कोई महामारी आ पड़ती है? जिस तरह अन्य चीजों को लेकर हमारे लोग सड़कों पर उतर आते हैं विरोध जताने, उस तरह इन बीमार सरकारी सेवाओं को लेकर क्यों नहीं निकलते हैं? जब तक हम विरोध नहीं करना सीखेंगे ऊंचे स्वर में, तब तक सुधारों की उम्मीद रखना भी बेकार है।