हिंदी आज विश्व की एक महत्त्वपूर्ण भाषा है। पर विडंबना है कि इतनी महत्त्वपूर्ण भाषा का ऐसा एक भी व्याकरण नहीं है, जो आधुनिक हिंदी का सर्वांगीण विवेचन-विश्लेषण करता हो। पं. कामताप्रसाद गुरु द्वारा लिखित ‘हिंदी व्याकरण’ हिंदी का एकमात्र सर्वांगपूर्ण व्याकरण है। पर वह सौ-डेढ़ सौ वर्ष पुरानी हिंदी को आधार बना कर लिखा गया है। गुरुजी ने उस समय तक विकसित व्याकरण लेखन की दृष्टि और उपलब्ध व्याकरण लेखन की पद्धति का अधिकतम उपयोग किया है। उसके बाद हिंदी व्याकरण की अनेक पुस्तकें लिखी गर्इं और आज भी लिखी जा रही हैं। पर सभी पुस्तकें तरह-तरह की असंगतियों और भ्रांत धारणाओं से भरी हैं।

भाषा का व्यवहार दो रूपों में किया जाता है- मौखिक और लिखित। मौखिक भाषा की आधारभूत इकाई ‘ध्वनि’ है और लिखित भाषा की ‘वर्ण’। दोनों के बीच मात्र इतना संबंध है कि वर्ण ध्वनि का लिखित रूप है। दोनों एक नहीं हैं। पर हिंदी व्याकरणों में दोनों की चर्चा ऐसे होती है मानो दोनों एक ही हैं। एक व्याकरण लेखक ने तो स्वरों की मात्राओं को भी वर्ण माना है। ‘अनुस्वार’ ( ं ) को सभी व्याकरणों में ध्वनि कहा गया है। अनुस्वार ध्वनि नहीं है। अनुस्वार उस बिंदु का नाम है, जो किसी वर्ण के ऊपर, संयुक्त व्यंजन के प्रथम सदस्य के रूप में आए नासिक्य वर्णों के स्थान पर प्रयुक्त होता है।

हिंदी में संज्ञा शब्दों के तीन भेद हैं- व्यक्तिवाचक, जातिवातक और भाववाचक। पर अधिकतर व्याकरणों में अंगरेजी के आधार पर दो अतिरिक्त भेद दिए गए हैं- पदार्थवाचक और समूहवाचक। सोना, चांदी, लकड़ी, दूध जैसे शब्दों के लिए पदार्थवाचक और भीड़, सभा, सेना, परिवार जैसे शब्दों के लिए समूहवाचक नाम से दो अलग वर्ग क्यों बनाया जाएं, इसकी स्पष्टता अंगरेजी में भी नहीं है। पदार्थवाचक में गिनाए गए सभी शब्द जातिवाचक ही हैं और समूहवाचक में गिनाए गए सभी शब्द भाववाचक। हिंदी में संज्ञा शब्दों के दो ‘लिंग’ हैं- पुल्लिंग और स्त्रीलिंग। हिंदी में ‘लिंग’ एक व्याकरणिक कोटि है। संज्ञा शब्दों के वर्गीकरण का यह एक आधार है। लेकिन हिंदी के व्याकरण लेखकों ने उसे अर्थ (भौतिक लिंग) से जोड़ दिया है।

‘लिंग’ के दो संदर्भ हैं- भौतिक (प्राकृतिक) लिंग और भाषा का लिंग। कुछ भाषाओं में भौतिक लिंग और भाषा के लिंग में कोई अंतर नहीं होता। अंगरेजी की लिंग-व्यवस्था अर्थ के आधार पर है। इसीलिए अंगरेजी में चार लिंग हैं- पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग और उभयलिंग। पर हिंदी की लिंग-व्यवस्था इससे भिन्न है। हिंदी में अर्थ के आधार पर लिंग-निर्णय नहीं किया जा सकता। हिंदी में जो प्राणीवाचक शब्द हैं और पुरुष और स्त्री के लिए अलग-अलग शब्द प्रयुक्त होते हैं, वहां तो पुरुष का अर्थ देने वाले शब्द पुल्लिंग और स्त्री का अर्थ देने वाले शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। पर जो निर्जीव पदार्थ हैं, वहां तो पुरुष-स्त्री का भौतिक भेद होता नहीं है।

असल में संज्ञा शब्दों के पुल्लिंग और स्त्रीलिंग का यह भेद भाषा के अंदर की व्यवस्था है। लिंग शब्द का होता है, उसके अर्थ का नहीं। हिंदी में कोयल, कौवा, गिलहरी, छिपकली, गीध, चील, तीतर, बटेर आदि ऐसे शब्द हैं, जिनसे (एक ही शब्द से) पुरुष (नर) और स्त्री (मादा) दोनों का बोध होता है। परंतु कौवा, गीध जैसे शब्द पुल्लिंग कहे जाते हैं और तीतर, बटेर, कोयल, गिलहरी, छिपकली, चील जैसे शब्द स्त्रीलिंग। यहां यह परिभाषा काम नहीं करती कि पुरुष जाति का बोध कराने वाले शब्द पुल्लिंग और स्त्री जाति का बोध कराने वाले शब्द स्त्रीलिंग। कारण कि हिंदी में लिंग शब्द का होता है, उसके अर्थ का नहीं।

शब्द के लिंग को अर्थ से जोड़ने का परिणाम यह हुआ है कि कई व्याकरण लेखक तीसरे लिंग के रूप में एक उभय लिंग की कल्पना कर बैठे हैं। उन्हें कौन समझाए कि हिंदी की संरचना में उभय लिंग जैसा कुछ है नहीं। हिंदी में कारक, विभक्ति और परसर्ग का मामला सबसे ज्यादा पेचीदा है। कारक और विभक्ति शब्द संस्कृत व्याकरण से हिंदी में आए हैं। कारक की जितनी जटिलता संस्कृत में है, उतनी हिंदी में नहीं है। संस्कृत और हिंदी की संरचना-व्यवस्था परस्पर विपरीत है। संस्कृत ‘योगात्मक’ भाषा है; जबकि हिंदी ‘वियोगात्मक’। योगात्मक भाषा की रूप-रचना जटिल होती है और वाक्य-रचना सरल। इसके विपरीत वियोगात्मक भाषा की रूप-रचना सरल होती है और वाक्य-रचना जटिल। थोड़ा भी संस्कृत जानने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि संस्कृत में ‘शब्दरूपों’ और ‘धातुरूपों’ की भरमार है। वाक्य में रूपों की अपनी भूमिका सुनिश्चित होती है। इसलिए संस्कृत की वाक्य-रचना सरल होती है। संस्कृत में प्रत्यय रूप-रचना के आधार होते हैं। संस्कृत में ‘सुप्’ और ‘तिंङ्’ रूप-साधक प्रत्यय हैं। उन्हीं को ‘विभक्ति’ या ‘विभक्ति प्रत्यय’ कहा जाता है।

हिंदी में ‘विभक्ति’ जैसा कुछ है ही नहीं। पर, हिंदी में अनावश्यक रूप से विभक्ति की चर्चा की जाती है। संस्कृत में जो काम विभक्तियां करती हैं, वह काम हिंदी में ‘परसर्ग’ करते हैं। हिंदी के व्याकरणों में परसर्गों को ‘विभक्ति’, ‘विभक्ति प्रत्यय’, ‘कारकीय चिह्न’ कहा गया है। ‘ने, को, से, का, के, की, में, पर’ के लिए परसर्ग शब्द का प्रयोग जब सुस्थिर है, तो फिर इन्हें ‘विभक्ति’, ‘विभक्ति प्रत्यय’, ‘कारकीय चिह्न’ कहने की क्या आवश्यकता है। इससे अस्पष्टता और भ्रम पैदा होता है। हिंदी में कारक भी संस्कृत की भांति जटिल नहीं हैं। फिर भी, लोग संस्कृत की चाल पर हिंदी में आठ कारकों की रूपावली तैयार करते हैं। यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि हिंदी में ‘शब्द’ और ‘पद’ शब्द समानार्थक हैं। पर संस्कृत की चाल पर हिंदी के व्याकरण लेखक शब्द और पद में अनावश्यक अंतर करते हैं।

काल-विभाजन को हिंदी व्याकरण लेखकों ने बहुत जटिल बना दिया है। व्याकरण की पुस्तकों में चौदह से लेकर सत्रह तक काल के भेद दिए गए हैं- सामान्य वर्तमान काल, पूर्ण वर्तमान काल या आसन्न भूतकाल, तात्कालिक वर्तमान काल, संभाव्य वर्तमान काल, संदिग्ध वर्तमान काल, अपूर्ण भूतकाल, सामान्य भूतकाल, पूर्ण भूतकाल, संभाव्य भूतकाल, संदिग्ध भूतकाल, सामान्य भविष्यत काल, संभाव्य भविष्यत काल, प्रत्यक्ष विधिकाल, परोक्ष विधिकाल, सामान्य संकेतार्थ काल, अपूर्ण संकेतार्थ काल, पूर्ण संकेतार्थ काल। वास्तव में काल, पक्ष और वृत्ति को एक में मिला देने से यह जटिलता पैदा हुई है। ये तीनों क्रिया की कोटियां हैं।

‘काल’ के सिर्फ तीन भेद हैं- वर्तमान, भूत और भविष्यत। इनमें भी वास्तविक धरातल पर दो ही काल होते हैं- वर्तमान और भूत। भविष्यत की तो मात्र कल्पना होती है। हिंदी में ‘है’, ‘हैं’, ‘हूं’, ‘हो’ क्रियाओं द्वारा वर्तमान काल की अभिव्यक्ति होती है, ‘था’, ‘थे’, ‘थी’, ‘थीं’ क्रियाओं द्वारा भूतकाल की और ‘गा’, ‘गे’ जैसे युक्त प्रत्ययों द्वारा भविष्यत काल की अभिव्यक्ति होती है। ‘पक्ष’ द्वारा क्रिया की पूर्णता या अपूर्णता व्यक्त होती है। ‘वृत्ति’ द्वारा किसी कार्य के बारे में वक्ता के मन की धारणा व्यक्त होती है। वास्तविक घटना से ‘वृत्ति’ का कोई संबंध नहीं होता। इसलिए वृत्ति की अभिव्यक्ति करने वाली क्रियाओं से काल का कोई संबंध नहीं है। काल का संबंध तो वास्तविक घटना से होता है। पर व्याकरण लेखकों ने इनके लिए भी एक-एक काल की कल्पना कर ली है।

इसी तरह वह जाता है; वह जा रहा है; वह गया है। ये तीनों वाक्य वर्तमान काल के हैं। वर्तमान काल ‘है’ क्रिया द्वारा सूचित होता है। ‘जाता’, ‘जा रहा’ और ‘गया’ क्रियारूपों द्वारा कोई काल सूचित नहीं होता; बल्कि कार्य की अपूर्णता, पूर्णता और निरंतरता सूचित होती है। पर हिंदी के व्याकरणों ने इन तीनों वाक्यों के लिए तीन कालों की व्यवस्था की है।