सतीश सिंह

जनसत्ता 28 सितंबर, 2014: आज टेलीविजन रेटिंग पॉइंट यानी टीआरपी शब्द का प्रयोग आम हो गया है, पर इसके वास्तविक तंत्र से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। इसलिए टीआरपी आंकने वाले स्रोत कौन-कौन से हैं और इसके निर्धारण में किन मानकों का प्रयोग किया जाता है जैसे प्रश्न लोगों के मन में उभरना स्वाभाविक है। फिलवक्त टीआरपी, टेलीविजन चैनलों की लोकप्रियता आंकने का एकमात्र तरीका है। इसे दर्शक मीटर भी कहा जाता है। इसकी मदद से टेलीविजन चैनलों की लोकप्रियता को प्रतिशत में एक निश्चित अवधि, जो कि फिलहाल एक सप्ताह है, में दर्शाया जाता है।

लोगों की धारणा है कि एसएमएस के जरिए टीआरपी को मापा जाता है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। इसे मापने का काम करते हैं- विविध मीडिया शोध संस्थान। टैम मीडिया इस क्षेत्र में अग्रणी शोध संस्थान है। ऐसे संस्थान सर्वे और दूसरे विकल्पों का सहारा लेते हैं, जिसमें दर्शक मीटर सबसे महत्त्वपूर्ण विकल्प है। इस मीटर को टेलीविजन सेटों में लगाया जाता है, जिसकी सहायता से पता चलता है कि दर्शक कौन-सा कार्यक्रम देख रहे हैं। चैनलों के सिग्नल या फ्रीक्वेंसी की मदद से भी इस काम को अंजाम दिया जा सकता है, लेकिन भारत में यह तरीका व्यावहारिक नहीं है। लोकप्रियता का पैमाना होने के कारण टीआरपी को टेलीविजन चैनलों के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि लोकप्रियता का सीधा संबंध विज्ञापन से होता है। चूंकि चैनलों की आय का मुख्य स्रोत विज्ञापन है, टीआरपी की महत्ता स्वयंसिद्ध है।

टीआरपी के महत्त्व के कारण आज टेलीविजन चैनलों में ऊलजलूल या अतार्किक कार्यक्रम दिखाने की होड़-सी मची है, जबकि अस्सी के दशक के अंत और नब्बे की शुरुआत तक इस क्षेत्र में दूरदर्शन का एकछत्र राज था। टीवी धारावाहिक या समाचार के दौरान विज्ञापन लंबी अवधि के होते थे। हालांकि बाजार पर एकाधिकार होने के बावजूद, दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम गुणवत्ता की दृष्टि से उत्कृष्ट होते थे। धारावाहिकों में स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ समाज के लिए सकारात्मक संदेश होता था। उस कालखंड में रामायण, महाभारत, भारत एक खोज, बुनियाद, हमलोग, नीम का पेड़, रिपोर्टर आदि जैसे सरोकार वाले धारावाहिक दिखाए जाते थे।

अब चैनलों में गला-काट प्रतिस्पर्धा है। बीते कुछ सालों से टेलीविजन चैनल टीआरपी के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। वे सास-बहू के धारावाहिक, कॉमेडी नाइट्स, सावधान इंडिया, क्राइम पेट्रोल, फीयर फाइल्स आदि मसालेदार कार्यक्रम दिखा रहे हैं। खबरिया चैनलों ने समाचार की संकल्पना को विद्रूप कर दिया है। वे मसालेदार खबरों के साथ-साथ द्विअर्थी संवाद वाले हंसी के कार्यक्रम, सास-बहू और साजिश आदि कार्यक्रम परोस रहे हैं। फिलवक्त इन चैनलों के बीच अपराध से जुड़ी खबरों को नाटकीय तरीके से परोसने की होड़ मची है। सनसनी और वारदात इसी श्रेणी के अपराध पर आधारित समाचार में वर्गीकृत कार्यक्रम हैं, जिन्हें नमक-मिर्च लगा कर दिखाया जा रहा है। टीआरपी बढ़ाने के लिए अपराध पर आधारित कार्यक्रम दिखाने वाले खबरिया चैनलों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। इसमें चैनलों द्वारा न तो खबरों की सत्यता जांची जाती है और न ही रिपोर्टर और चैनल के मालिकों की जवाबदेही तय की जाती है।

गौरतलब है कि टेलीविजन चैनलों के लिए टीआरपी पहले इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि तब मीडिया उद्योग में विज्ञापन को इससे नहीं जोड़ा गया था। टीआरपी एक आंतरिक प्रक्रिया थी। मगर जैसे ही विज्ञापन से इसे जोड़ दिया गया, चैनलों की रणनीति बदल गई। मजेदार तथ्य है कि जिस टीआरपी के लिए टेलीविजन चैनल एक-दूसरे का गला काटने को तैयार रहते हैं, उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। आज गलत टीआरपी रेटिंग के कारण अपात्र चैनलों या कार्यक्रमों को पुरस्कार और विज्ञापनों से नवाजा जा रहा है। टीआरपी मापने वाले टैम मीडिया शोध संस्थान द्वारा अपनाए जा रहे मानकों पर आज सवाल उठाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि टैम मीडिया शोध संस्थान टेलीविजन दर्शकों की गणना करने में सक्षम नहीं है।
देश की बड़ी आबादी के पास टेलीविजन और मोबाइल फोन हैं। दूर-दराज के इलाकों में इनवर्टर या बैटरी से टेलीविजन देखे जा रहे हैं। एसएमएस करना भी वहां के लोगों की दिनचर्या का अहम हिस्सा है। स्पष्ट है कि ग्रामीण लोग कार्यक्रमों और चैनलों की लोकप्रियता का निर्धारण करने में सक्षम हैं, लेकिन जानबूझ कर टीआरपी मापने में उनकी अनदेखी की जाती है। टीआरपी निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाने वाले कॉरपोरेट घरानों ने बहुत-से शहरों को जानबूझ कर इस प्रक्रिया से अलग कर दिया है, ताकि उनके चैनलों की टीआरपी कम न हो।

जाहिर है, टैम मीडिया शोध संस्थान के टीआरपी मापने के मानक आधे-अधूरे हैं, जिससे टीआरपी का आकलन संभव नहीं है। वैसे, टैम मीडिया शोध संस्थान भी इस वस्तुस्थिति से वाकिफ है। संस्थान जानता है कि टीआरपी का सही आंकड़ा जारी करने से उसकी दुकान बंद हो जाएगी। इस धंधे में विज्ञापन एजेंसियों की भी मिलीभगत है। मीडिया घरानों के साथ-साथ विविध उत्पादों के सौदागरों को भी ऐसे संस्थान की जरूरत है।

जब तक इनके हित एक-दूसरे से परस्पर जुड़े रहेंगे, टीआरपी के मानकों में बदलाव नहीं आ सकता। बहुत सारे ऐसे टीवी चैनल भी हैं, जिनका टीआरपी से ज्यादा सरोकार नहीं है, क्योंकि उनका मूल कारोबार कोई और होता है और वे उसे बचाने के लिए खबरिया चैनल चलाते हैं।

वर्तमान परिदृश्य में टैम मीडिया शोध संस्थान इन मानकों के सही प्रयोग से परहेज कर रहा है। वह जानता है कि इन मानकों के लिए आधारभूत संरचना का निर्माण करना खतरे से खाली नहीं है। इस खेल से जुड़े विश्लेषकों का मानना है कि दूर-दराज के गांवों या दूरस्थ प्रदेशों, जैसे अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, जम्मू-कश्मीर जैसी जगहों पर रहने वाले लोगों से बड़े कारोबारियों का हित सधने वाला नहीं है।

टीआरपी का सही आकलन सुनिश्चित कराने के मकसद से सरकार ने एक समिति का गठन किया था, जिसका काम था टीआरपी निर्धारित करने वाले मानकों के साथ-साथ उनके तौर-तरीकों पर कड़ी नजर रखना। इस क्रम में सरकार द्वारा एक संयुक्त समिति का गठन किया गया था, जिसका काम टैम मीडिया शोध संस्थान की गतिविधियों पर नजर रखना था। बाद में संयुक्त समिति को भंग करके ब्रॉडकास्ट आॅडियंस रिसर्च काउंसिल नामक समिति का गठन किया। फिर भी, मामले में कोई सुधार नहीं हुआ।

जिस तरह झूठे, गुमराह करने और अंधविश्वास फैलाने वाले कार्यक्रम टेलीविजन चैनलों द्वारा परोसे जा रहे हैं, वे समाज के लिए किसी मीठे जहर से कम नहीं हैं। फिर भी सरकार हालात पर काबू पाने में असमर्थ है। सरकार द्वारा गठित समिति न तो टीआरपी के निर्धारण और न ही पारदर्शिता लाने की दिशा में सकारात्मक कार्य कर रही है।

हालांकि इन तमाम कमियों के बावजूद टीआरपी की संकल्पना को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसकी मदद से कार्यक्रमों को बेहतर बनाया जा सकता है। मगर बाजार के दबाव में यह रास्ते से भटक गया है। लिहाजा, विज्ञापन जुटाने और श्रेष्ठता साबित करने की होड़ से टेलीविजन चैनलों को परहेज करना चाहिए, ताकि आम जनता गुमराह होने से बची रहे।

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta