विकास नारायण राय
जनसत्ता 5 अक्तूबर, 2014: अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने एक अंगरेजी अखबार में अपनी विरूपित छवि की नुमाइश का विरोध किया, तो अखबार के स्तंभकारों ने इसे वैश्विक चलन के अनुरूप एक सेलिब्रिटी की प्रचार-भूख और मीडिया के व्यावसायिक दोहन के परस्पर संतुलन का आम मामला बताया। दो दशक पहले तक न्यायिक फैसलों में भी बलात्कार जैसे घिनौने अपराध को पीड़ित स्त्री के यौनिक चरित्र से जोड़ने का चलन था। आज भी यौनिक अपमान का निशाना बनने वाली स्त्री के कपड़ों पर सवाल खड़े करने वालों की कमी नहीं है। दरअसल, यह परिदृश्य मुख्यत: लैंगिक आदतों का है, जो बदली जा सकती हैं।
सामाजिक पूर्वग्रहों और धारणाओं को बदलना बेहद जटिल होता है, जबकि आदत और सभ्याचार में यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत कम कठिन है। लैंगिक नजरिए में बदलाव, पुरुष और स्त्री के परस्पर सत्ता संबंधों की बुनियाद को चुनौती देने वाली कवायद ठहरी। लिहाजा, आश्चर्य नहीं कि स्त्री के प्रति भेदभाव समाप्त करने के तमाम कानूनी और प्रचारात्मक प्रयास कम नतीजे हासिल कर पा रहे हैं। ऐसे में, कठोर लैंगिक संरचना वाले समाज में कहीं असरदार होगा विषमकारी आदतों पर समुचित ध्यान देना। व्यक्तियों की ही नहीं, संस्थाओं की भी। पुरुषों की ही नहीं, स्त्रियों की भी, क्योंकि दोनों ही समाज से एक जैसे सांस्कृतिक मूल्यों को ग्रहण करते हैं। खासकर ऐसी आदतें, जो स्त्री की समानता में बौद्धिक या पेशेगत विश्वास होने के बावजूद, जाने-अनजाने अचेतन में गहरे पैठी विषम धारणाओं की शिकार हो जाती हैं।
मसलन, परिवार में स्त्री के योगदान को पुरुष के बराबर स्थान मिलने में बेशक वक्त लगेगा, पर स्त्री के साथ मारपीट और अपमानजनक भाषा की आदत कहीं सहजता से छुड़ाई जा सकती है। इसी तरह भाइयों से बहनों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा दिला पाना फिलहाल टेढ़ी खीर हो, पर बहनों को बेवजह रोकने-टोकने की उनकी आदत सुधारी जा सकती है। खापों के गोत्र-विवाह निषेधों का तुरंत कोई हल नहीं होने पर भी इज्जत के नाम पर विद्रोही जोड़ों की हत्याएं करने की उनकी आदत को थामा जा सकता है। कार्यस्थलों पर महिलाओं को सामान्यतया निर्णय और नेतृत्व के केंद्र में लाना आज भी दूर की कौड़ी लगता हो, पर हर रोजगारदाता व्यक्ति, संगठन, संस्थान या दफ्तर की कार्यशैली में महिलाओं की शालीनता-सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली बाध्यकारी आदतें अनिवार्य रूप से शामिल की जा सकती हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी हाल में ऐसी ही दो लैंगिक आदतों को चिह्नित किया। पंद्रह अगस्त को लाल किले से संबोधन में उन्होंने लड़कियों पर रोक-टोक की नियमावली लादने वाले अभिभावकों को याद दिलाया कि उन्हें अपने बिगड़े लड़कों से भी नियमित पूछताछ करने की आदत डालनी चाहिए। दूसरा अवसर प्रधानमंत्री जन धन योजना शुरू करने का रहा, जिसके अंतर्गत सभी के, हर स्त्री के भी, दो बैंक खाते खोलने का प्रावधान है। मोदी का तर्क था कि इससे स्त्री का अपनी कमाई/ बचत पर स्व-नियंत्रण रहेगा, जिसे घर में उसका पति या पुरुष अभिभावक हड़प जाता है। प्रधानमंत्री की इंगित इन आदतों की दुरुस्तगी असंभव नहीं है। क्रमश:, पारिवारिक परामर्श की पेशेवर प्रणाली को घर-घर पहुंचा कर और बैंकों में स्त्री के पक्ष में समुचित तकनीकी कट-आॅफ लगा कर स्त्री के सशक्तीकरण की यह कारगर पहल व्यवहार के धरातल पर भी उतारी जा सकती है।
अन्य सुधार योग्य लैंगिक आदतों में सबसे प्राथमिकता पर भाषा के ‘मदार्ने’ तेवरों को लिया जाना चाहिए। खासकर लोक-मीडिया के दायरों में इस्तेमाल होने वाले लैंगिक मुहावरों और अभिव्यक्तियों के संदर्भ में। इसलिए नहीं कि यही भाषाई लिहाज से सबसे बड़े दोषी हैं, बल्कि इसलिए कि सामाजिक मूल्यों को संप्रेषित करने वाली बोलचाल की भाषा पर मीडिया की भाव-भंगिमाओं का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। देखा जाए तो मीडिया की यौन उत्पीड़न के खुलासों में व्यापक दिलचस्पी के चलते ही स्त्रियों में अपने अनुभवों को सार्वजनिक रूप से साझा करने की हिम्मत बढ़ी है। एक पीड़ित स्त्री के लिए यह जानना बेहद आश्वस्तिकर और उत्प्रेरक होता है कि उसकी जैसी कितनी ही और हैं, जो न्याय के लिए आवाज उठा पा रही हैं। काश कि यह मीडिया लैंगिक भाषा को लेकर सौ फीसद संवेदी भी हो!
ऐसे सुधार हासिल करने के लिए अभ्यास कायर्शालाएं जांचे-परखे मंच हैं। भाषा के स्तर पर सबसे बड़े दोषी राजनेता नजर आते हैं, पर वे भी इस आदत-सुधार मुहिम में शामिल हो सकते हैं। आखिर उनका भी बहुसंख्यक तबका स्त्री विषमता और उसके अपमान की सीधी राजनीति से गुरेज करता है।
चूंकि राजनेता सार्वजनिक स्पेस में ज्यादा बोलते हैं, कुछ ज्यादा ही फिसलते और पकड़े जाते हैं। लेकिन लैंगिक भाषा, जिस भी लहजे में राजनीतिक मंचों से बोली जाती है, आखिर किसी न किसी सामाजिक दिशा का संकेतक ही है। तापस पाल (तृणमूल कांग्रेस) और आदित्यनाथ (भाजपा) की महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाने की सार्वजनिक घोषणाएं बताती हैं कि विधायिका में महिला आरक्षण की बहस के बावजूद राजनीति इस दिशा में वैसे ही फंसी हुई है जैसे समाज। संसद में तेलंगाना राज्य की बहस जब ज्यादा गरम हो गई, तो एक पक्ष ने दूसरे को चूड़ियां भेंट कीं। कायरता को चूड़ियों से जोड़ने की मर्दों की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी स्त्रियों में इन्हें पहनने की।
स्पष्ट है कि भाषा में बराबरी की दिखावटी आदतों से बुनियादी समीकरण नहीं बदलेगा, क्योंकि लैंगिक दुनिया में मर्दानगी का प्रभुत्व ही स्त्री के प्रति भाषा के अपमानजनक विन्यास को गढ़ता है। लैंगिक बराबरी की भाषा बोलने का चलन न घरों में है और न समाज में। अपनी पसंद से जीवनसाथी चुनने वाली लड़कियों के कुचले चीत्कार को बलात्कार का नाम दे दिया जाना प्रचलन में था ही, आजकल पितृसत्ता की सांप्रदायिक राजनीति करने वाले लव जिहाद का मवाद सरेआम उड़ेलने में लगे हैं। इस तरह लड़की की इच्छा पर परिवार और समाज का ही नहीं, राज्य, कानून और राजनीति का शिकंजा भी कसा जाना सहज हो चला है।
अगर ‘आहत’ पितृसत्ता ऐसी विद्रोहिणी का कत्ल कर दे, उस पर तेजाब फेंक दे या उसे ‘बरामद’ कर जबरन अन्यत्र शादी कर दे तो भी इस शैतानियत के प्रति नफरत पैदा करने वाली शब्दावली नहीं बनी है। जघन्यता की इन पराकाष्ठाओं को मीडिया में तटस्थ भाव से ‘शान के लिए हत्या’ या ‘ठुकराए प्रेमी का कृत्य’ या ‘शुद्धि’ ही कहा जाता है। कौन नहीं जानता कि ‘बरामद’ हुई लड़की से पितृसत्ता अपने हिसाब से बुलवाती है। इस परिदृश्य में झांके बिना मीडिया रिपोर्टिंग तथ्यपरक ही हो सकती है, वस्तुपरक नहीं।
‘सती’ मामलों को क्रूर हत्याएं बता कर और उन्हें मर्दों की संपत्ति पर एकाधिकार के चलन से जोड़ कर मीडिया सिद्ध कर चुका है कि लैंगिक क्षेत्र में सही मुहावरों का प्रयोग कितना प्रभावी सिद्ध हो सकता है। जीवंत मीडिया-विमर्शों में स्त्री के विरुद्ध हिंसा का दायरा केवल यौनिक हिंसा तक सीमित न रह कर लैंगिक हिंसा के तमाम आयामों की पड़ताल करता है। जबकि सत्ता राजनीति का ढांचा और पद्धति प्राय: मर्दवादी है और वहां सारा विमर्श यौनिक हिंसा पर ही केंद्रित रखा जाता है। ऐसे में राजनीतिक परिदृश्य के लिए वांछित लैंगिक मुहावरे गढ़ने में मीडिया की भाषा की जरूरी भूमिका रहेगी ही।
धूमिल जैसे प्रगतिशील साहित्यकार ने कविता में मर्द बन कर ही ललकार लगाई- जिसकी जिसकी पूंछ उठाई मादा पाया। लैंगिक अदायगी में शान और इज्जत ‘मर्दानी’ ही हो सकती हैं। अपमानजनक नहीं लगना चाहिए कि निडर औरत के लिए सबसे बड़ा विशेषण ‘मर्दानी’ हो? आजकल इस शीर्षक की एक दृढ़ निश्चयी स्त्री चरित्र पर आधारित फिल्म धूम-धड़ाके से चल रही है और इसके समांतर मीडिया के एक खासे वर्ग में हिंसा का डट कर मुकाबला करने वाली हर औरत को ‘मर्दानी’ कहने का पुराना चलन नए जोश से चल पड़ा है।
मर्दानगी के माहौल की नियमित शिकार स्त्री के लिए ‘मर्दानी’ का विशेषण बेशक उपहासभरी भाषा है, पर फिलहाल और कोई भाषा है भी नहीं। जब औरत के लिए समाज में बराबरी नहीं है, तो बराबरी की भाषा न होने का रोना हमें कहीं नहीं ले जाएगा। हां, इसके उलट, समाज में बराबरी की भाषा की आदत पर काम करने से निश्चित फर्क पड़ेगा।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta
f