हमें सात-आठ अगस्त 1942 को मुंबई (तब बंबई) के गवालिया टैंक मैदान की याद दिलाई जा रही है। तब महात्मा गांधी ने जोरदार आह्वान में ‘करो या मरो’ का नारा दिया था और कहा था- अंग्रेजो भारत छोड़ो। आज दिल्ली सीमा पर सिंघू गवालिया टैंक मैदान बन चुका है। यहां कोई महात्मा नहीं है, लेकिन हर किसान अहिंसक विरोध के जोश से भरा हुआ है। आह्वान वैसा ही है- ‘करो या मरो’ और किसानों ने सरकार से कृषि कानूनों को रद्द करने को कहा है।

वार्ता का दौर फिर विफल रहा है। दिन की रोशनी की तरह यह साफ है कि सरकार पहले ही से सब तय कर चुकी है। वह कानूनों को रद्द करने का समर्थन नहीं करेगी, वह तीन मुख्य मांगों को छोड़ कर सिर्फ छोटे-मोटे प्रावधानों में प्रस्तावित संशोधन ही करेगी और वह राज्यों को भी अपने यहां विधानसभाओं के जरिए इनमें कोई संशोधन करने की अनुमति नहीं देगी। दूसरी ओर, आंदोलन कर रहे किसानों का जोर इन तीन मांगों पर है-

– कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) के मुकाबले अनियंत्रित निजी ‘बाजारों’ को इजाजत न दी जाए,
– न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानूनी तौर पर गारंटी दी जाए,
– कृषि उत्पादों की खरीद और व्यापार में कॉरपोरेट के प्रवेश को इजाजत न दी जाए।

जब तीस दिसंबर को वार्ता खत्म हुई, जो चार जनवरी को फिर होनी है, उसके बाद सरकार ने दावा किया कि वह किसानों की दो मांगों पर सहमत हो गई है- एक, बिजली सबसिडी पर कोई असर नहीं पड़ेगा और दूसरी यह कि पराली जलाने वाले किसानों पर कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। मुख्य मांगों से ये दोनों मुद्दे बिल्कुल अलग हैं, इसलिए आंदोलनकारी किसानों और बेरहम सरकार के बीच दूरी बनी हुई है।
सुधार तो हों, पर कौन से?

सारे अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि कृषि उत्पाद विपणन में सुधारों की जरूरत है। एपीएमसी कानून कमजोर और अपर्याप्त इसलिए नहीं हैं कि इनसे किसी को फायदा नहीं होता है, बल्कि इसलिए कि इनसे देश भर के सिर्फ बहुत ही थोड़े से किसानों का भला होता है। एपीएमसी व्यवस्था की कमजोरी का जवाब इसे कमजोर कर देना नहीं है, बल्कि देश के छोटे कस्बों और बड़े गांवों में हजारों ऐसे किसान बाजार बनाना है, जहां आकर किसान एमएसपी पर अपनी फसल बेच सकें और वजन, नमी, गुणवत्ता आदि गैर-मूल्य पहलुओं के कारण शोषण से बच सकें। कांग्रेस ने 2019 के चुनावी घोषणा पत्र में इसी का वादा किया था। सरकार एपीएमसी व्यवस्था को शक्तिहीन करने और एपीएमसी के सिद्धांत को विस्तार देने में फर्क को समझ नहीं पा रही है।

एमएसपी के मामले में भी ठीक यही तर्क लागू होता है। एमएसपी एक दोषपूर्ण तरीका है, क्योंकि किसानों का बहुत छोटा-सा तबका ही एमएसपी पर अपनी फसल बेच पाता है, और वह भी सिर्फ गेहूं, धान, सोयाबीन, गन्ना और कपास की फसल। जवाब यह है कि कारपोरेटों को तथाकथित सौदे के जरिए सीधे फसल खरीदने की इजाजत न दी जाए, बल्कि कानूनी रूप से यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी एमएसपी से कम पर न तो कोई अधिसूचित फसल खरीद सकेगा, न बेच सकेगा।

संविधान जो कहता है
आंदोलनकारी किसानों के पक्ष में एक मजबूत तर्क है। प्रधानमंत्री ने भारत के संविधान के समक्ष माथा टेका है। यह पर्याप्त नहीं है। जब भी उन्हें संदेह हो, उन्हें यह छोटी-सी पुस्तक पढ़ लेनी चाहिए। अगर वे इसे पढ़ें और सूची दो की अनुसूची सात को देखें तो उन्हें उसमें दर्ज राज्यों के लिए आरक्षित ये निन्मलिखित विधायी विषय देखने को मिल जाएंगे-

एक बार जब हम इन प्रविष्टियों को पढ़ लेते हैं, तो मौजूदा मानव-जनित संकट का समाधान अपने आप निकल आता है और वह यह कि इन विषयों को राज्यों पर छोड़ दिया जाए। हर राज्य विधानसभा को यह फैसला करने दिया जाए कि उसकी जनता की जरूरत क्या है और उसके लिए उसे कौन से कानून बनाने चाहिए। चाहे वह पंजाब का मॉडल हो और चाहे वह बिहार का मॉडल हो। अगर पंजाब के किसान शुल्क अदा करने के बाद अपनी फसल को नियंत्रित बाजारों में बेचना चाहते हैं तो उन्हें ऐसा करने दिया जाए।

अगर बिहार के किसान एपीएमसी कानून नहीं चाहते हैं और अपनी फसल को बेचना चाहते हैं (जैसा कि धान की फसल को 1850 रुपए प्रति क्विंटल एमएसपी पर बेचने के बजाय आठ सौ रुपए के भाव पर बेच देते हैं) तो उन्हें बेचने दिया जाए। राज्य में मौजूद कानून को लेकर केंद्र सरकार को क्यों परेशान होना चाहिए? अगर केंद्र सरकार को यह फिक्र है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत आपूर्ति के लिए भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के पास पर्याप्त अनाज हो, तो केंद्र एफसीआइ की पहुंच का दायरा बढ़ाए और इसे खरीद, भंडारण और वितरण के लिए और ज्यादा कार्यकुशल जरिया बनाए। कोई भी राज्य एफसीआइ के कामकाज के खिलाफ नहीं है।
सफल नहीं होगा ट्रंपवाद

लगता है, मोदी सरकार अपनी बहुमत-प्रेरित सर्वोच्चता पर ताकत के साथ डटे रहने की कसम खा चुकी है। यह ‘मोदी है तो मुमकिन है’ जैसे अपने विकृत नारे की जिद जैसा ही है। मोदी हमेशा अपने मन की नहीं कर सकते हैं, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। यह वही है जिसे मैं ट्रंपवाद कहता हूं। और देर-सबेर हर ट्रंप सत्ता से बाहर होगा। लगभग दो हजार साल पहले संत तिरुवल्लुवर ने कहा था कि अगर किसान अपने हाथ जोड़ लेते हैं, तो जो लोग जिंदा रहने के लिए तैयार न हों, वे भी जी नहीं सकते।…(कुराल 1036)

विनम्रता के मामले में कोरोना विषाणु ने दुनिया को कई सबक दिए हैं। मुझे लगता है कि किसानों का आंदोलन हमारे वर्तमान और भविष्य के शासकों को शासन चलाने, संसद में कानून पास करने और लोगों की इच्छा के अनुरूप शासन चलाने को लेकर नम्रता के सबक सिखाएगा। मोदी को जब भारत पर राज करने का अधिकार मिला है, तो उन्हें नम्रता के साथ ऐसा करने देना चाहिए।