बरसों के अनुभव से मैंने जाना है कि अपनी जाति को श्रेष्ठतम मानने (या जातिवादी होने) की भावना बड़ी आसानी से तमाम गुणों के साथ के मेल बिठा सकती है, उन गुणी लोगों में बिनी किसी ग्लानि या शर्मिंदगी के। जाति का हमेशा खयाल रखने वालों में शिक्षाविद, लेखक, पेशेवर दक्षता वाले लोग और राजनीतिक नेता भी थे और आज भी हैं। उदाहरण के लिए, बहुत थोड़े-से लोग विद्वत्ता, मेधा और नि:स्वार्थ सेवा में सी राजगोपालाचारी (राजाजी) की बराबरी कर पाएंगे। मद्रास (जैसा कि तब उस राज्य को कहा जाता था) के मुख्यमंत्री पद के लिए वे स्वाभाविक पसंद थे।
वे एक महान प्रशासक थे, फिर भी एक मामले में गलती कर बैठे। उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रम के एक अंग के रूप में ‘रोजगारपरक प्रशिक्षण’ दिए जाने की वकालत की, लेकिन कौशल/व्यवसाय का चयन विद्यार्थी पर छोड़ देने के बजाय, राजाजी ने इस पर जोर दिया कि विद्यार्थी अपने पिता के पेशे को चुने। राजाजी की योजना जल्दी ही कुला कालवी या जाति आधारित शिक्षा कही जाने लगी। सत्तारूढ़ पार्टी ने विद्रोह कर दिया और उन्हें इस्तीफा देने के लिए विवश होना पड़ा। (राजाजी ने गलती की थी, पर मैं नहीं मानता कि वे जातिवादी थे)।
अभेद्य वर्गीकरण
भारतीय जाति व्यवस्था का स्रोत वर्ण-व्यवस्था है। वर्ण-व्यवस्था हिंदुओं में चारमुखी विभाजन है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। जो रेखाएं उन्हें विभाजित करती हैं वे सपाट, श्रेणीबद्ध और अमिट हैं: एक बार आप ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र परिवार में जन्म ले लेते हैं, तो आप आजीवन उसी श्रेणी में रहेंगे और आपकी संतान को भी जीवन भर उसी श्रेणी में रहना होगा। व्यक्ति की आत्मवत्ता और उसकी गरिमा के लिए इससे ज्यादा घातक और कुछ नहीं हो सकता। हिंदू धर्म के इसी वर्गीकरण के खिलाफ हुए विद्रोह से बौद्ध धर्म और जैन धर्म का आविर्भाव हुआ। अगर वर्ण बुरा था, तो जाति और भी बुरी थी। हरेक वर्ण के भीतर श्रेणियां और उपश्रेणियां थीं और उनमें से हरेक श्रेणी या उपश्रेणी जाति या उप-जाति का प्रतिनिधित्व करती थी।
प्रत्येक जाति या उप-जाति एक बंद घेरे में बदल गई; इसने अपने तकलीफदेह नियम बना लिये; और उन नियमों का उल्लंघन करने पर बहिष्कार या निष्कासन की सजा मिलती थी।जातिगत उत्पीड़न का सबसे बुरा रूप था छुआछूत। अछूत- जो अब दलित कहे जाते हैं- हिंदू समाज से पूरी तरह बहिष्कृत थे। वे न केवल वर्ण-व्यवस्था में सबसे नीचे समझे जाने वाले शूद्रों से भी नीचे थे, बल्कि वास्तव में हिंदू समाज से बाहर थे। उनकी भूमिका थी चारों वर्णों की सेवा करना, और मोची, अंत्येष्टि प्रबंधक, नालियां साफ करने और मृत पशु का चमड़ा उतारने जैसे ‘अस्वच्छ’ काम करना जो सबसे हेय समझे जाते थे। बेशक, दलित अन्य जातियों के लिए सस्ते कृषि-श्रम का स्रोत भी थे।
विद्रोह और समर्थन
वर्ण, जाति और छुआछूत ने हिंदू समाज को हर प्रकार से दुनिया के सर्वाधिक दमनकारी, शोषणकारी और कम उत्पादक समाज-व्यवस्थाओं में से एक बना दिया। यहां ‘कम उत्पादक’ कहने का क्या अर्थ है इस पर गौर करें: अगर करोड़ों लोग शिक्षा, उचित पारिश्रमिक, संपत्ति के अधिकार, सामाजिक गतिशीलता और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित हों, तो वह समाज अपनी पूर्ण आर्थिक संभावना की प्राप्ति कैसे कर सकता है?इनमें से कुछ मुद््दे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान चर्चा का विषय बने थे। बाबासाहेब आंबेडकर दलितों की प्रामाणिक आवाज बन कर उभरे थे। ईवी रामास्वामी (पेरियार) ने गैर-ब्राह्मण जातियों के हितों से जुड़े मुद््दे उठाए: तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मण हिंदू समाज का 97 फीसद हैं! श्रीनारायण गुरु ने तथाकथित निम्न जातियों की एकता और मुक्ति के लिए काम किया।
देश का ध्यान पूरी तरह आजादी के लक्ष्य पर रहा; समाज सुधार के काम हाशिये पर ही रहे। स्वतंत्रता आंदोलन के नेतागण सच्चे देशभक्त थे, स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ, यहां तक कि अपना जीवन भी बलिदान करने को तैयार रहते थे। पीछे मुड़ कर देखने पर, उनकी एक ही कमजोरी नजर आती है, और वह है, जाति में विश्वास। क्रिस्टोफ जैफ्रिलॉट ने एक प्रकाश डालने वाले लेख (इंडियन एक्सप्रेस, 4 अगस्त, 2017) में 1920 के दशक और 1930 के दशक के दरम्यान के महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, केएम मुंशी, राजाजी और दयानंद सरस्वती के भाषणों के अंश उद्धृत किए हैं और यह तर्क दिया है कि उन्होंने वर्ण के श्रेणीक्रम को सही माना था, जबकि यह ‘व्यष्टिपरक मूल्यों के खिलाफ’ था। जैफ्रिलॉट ने दीनदयाल उपाध्याय के 1965 के लेखन और योगी आदित्यनाथ के हाल-फिलहाल के एक भाषण के अंश भी उद्धृत किए हैं।
कुछ नेताओं के विचार समय के साथ परिवर्धित हुए और बदल गए, जबकि कुछ के विचार और प्रतिगामी हो गए। गांधीजी ने कहा, ‘‘मैं आजकल के अर्थ में जाति में विश्वास नहीं करता। यह अनावश्यक है और प्रगति में बाधक है।’’ दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ के भाषण के उद्धरण में कहा गया है ‘‘जो काम खेत में हल करता है वही काम जातियां हिंदू समाज में करती हैं, उसे संगठित और सुव्यवस्थित बनाए रखती हैं।’’
सदियों पुरानी पहेली
जाति व्यवस्था क्यों और कैसे सदियों से चलती रही यह एक पहेली है। क्षत्रियों और वैश्यों ने, जिनके पास शक्ति थी और धन था, क्यों ब्राह्मण को अपने से श्रेष्ठतर स्वीकार कर लिया? गुरु हमेशा ब्राह्मण ही क्यों होता था? जाति व्यवस्था क्या इसलिए कायम रही कि मनुष्य स्वभाव से ही साहचर्य के लिए लालायित रहता है और जाति ने एक सुविधाजनक साहचर्य प्रदान किया जिसमें किसी हद तक भौतिक व सामाजिक सुरक्षा भी थी? शिक्षा और शहरीकरण के कारण जाति क्षीण होते-होते हिंदू समाज की हाशिये की चीज हो जा सकती है, पर जाति अभी हिंदू समाज का मूलाधार है।भारत के संविधान या इसके अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 और 21 के बावजूद जाति और जातिवाद अभी तक कायम हैं। विवाह, सामाजिक संबंधों और राजनीति में सबसे प्रमुख कारक है जाति। सरकारी प्रशासन, निजी क्षेत्र, व्यापार और काम-धंधों में भी जाति का खासा प्रभाव अलग-अलग हद तक दिखाई देता है। कला, संस्कृति और साहित्य की दुनिया में भी गहरे जातिगत विभाजन मौजूद हैं। मेरे खयाल से, जाति एक अभिशाप है जो भारत और भारत के लोगों में निहित संभावनाओं को कम करती है। जाति का उन्मूलन फिलहाल कहीं नहीं दिखता।