लोकतंत्र में लोग किसी पार्टी (या पार्टियों) को सरकार बनाने के लिए वोट इसलिए देते हैं कि उनका जीवन बेहतर हो सकेगा। बेशक बेहतरी का अर्थ हमेशा एक ही नहीं होता, कई बार जटिल होता है। एक व्यक्ति के जीवन को कोई चीज ‘बेहतर’ बनाती है, पर जरूरी नहीं कि वही चीज दूसरे के जीवन को भी बेहतर बनाए।सामान्य परिस्थितियों में चुनाव रोटी, कपड़ा और मकान के मुद््दों पर लड़े और जीते/हारे जाते हैं। मतदाता जब वोट डालने जाता है तो दूसरे मुद््दे भी उसके दिमाग में आ सकते हैं, लेकिन सामान्य परिस्थितियों में वह रोटी-रोजगार, मजदूरी/आय, पानी और साफ-सफाई की बेहतर सुविधा, बेहतर स्कूल, बेहतर चिकित्सा सेवा, बेहतर सड़कें, बेहतर परिवहन आदि के मुद््दों पर ही वोट देगा। वह बेहतर सुरक्षा और भय, हिंसा तथा उत्पीड़न से मुक्त जीवन के लिए भी वोट देगा।एक बहुदलीय लोकतंत्र में, इकतीस फीसद वोट ने ही विजेता को स्पष्ट जनादेश के काबिल बना दिया- 2014 में विजेता थी भारतीय जनता पार्टी, जो कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ी थी। पूरे देश में ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘अच्छे दिन’ के वायदों की गूंज सुनाई दी।

सुधारों की कसौटी
तीन साल पूरे होने पर यह स्वाभाविक है कि सरकार के कामकाज का आकलन हो। आंतरिक सुरक्षा व कश्मीर पर (7 मई, 2017) और असहिष्णुता के उभार तथा इसके चलते देश के संवैधानिक ताने-बाने को हो रही क्षति पर (14 मई, 2017) मैं पहले ही लिख चुका हूं। हालांकि ये महत्त्वपूर्ण चिंताएं हैं, पर इससे भी ज्यादा चिंता का विषय है अर्थव्यवस्था की हालत और बेहतर जीवन के वायदे पर इसका असर।
अच्छे दिन या बेहतर जीवन सिर्फ रेडिकल तथा ढांचागत आर्थिक सुधारों से संभव है, जिस तरह के आर्थिक सुधार पहली बार 1991-92 में हुए थे। उसके बरक्स मैं तीन कदम गिना सकता हूं जो मोदी सरकार ने उठाए या उठाने के प्रयास किए और जिन्हें आर्थिक सुधार की श्रेणी में रखा जा सकता है:
*जीएसटी कानूनों का पारित होना (उनकी खामियों समेत)।
*दिवालिया संहिता का पारित होना।
*मौद्रिक नीति समिति का गठन और रिजर्व बैंक के लिए मुद्रास्फीति संबंधी लक्ष्य का निर्धारण।
ये तीनों उपाय अभी मंजिल पर नहीं पहुंचे हैं, पर मैं आशा करता हूं कि ये सफल होंगे।
इसके अलावा सरकार ने कुछ वृद्धिगत बदलावों को प्रभावित किया है, जो कि कोई भी सरकार करती। विभिन्न सेक्टरों में एफडीआइ की सीमा को उदार बनाने, दस्तावेजों के स्व-प्रमाणीकरण की इजाजत देने और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के मद््देनजर प्राकृतिक संसाधनों के आबंटन के लिए नीलामी का तरीका अपनाने जैसे कदम इनमें शामिल हैं। (हालांकि राज्य द्वारा खनन की लागत कहीं अधिक बैठती इसका आकलन अभी होना है)।
शोर अधिक, काम कम

एक ऐसी पार्टी/सरकार जिसे साफ बहुमत हासिल हो, तीन साल पूरे करने पर भी उसका आर्थिक रिपोर्ट कार्ड संतोषजनक नहीं है। इसके अलावा, जिन सुधारों के प्रयास किए भी गए उनसे आर्थिक वृद्धि के इंजनों को ऊर्जा नहीं मिली है। जैसा कि मैंने पिछले स्तंभ (21 मई, 2017) में कहा था, सरकार निवेश को पटरी पर लाने (जीडीपी के अनुपात में), या बैंक-ऋण बढ़ाने या रोजगार सृजन में नाकाम रही है। इसमें कृषि क्षेत्र के संकट, शिक्षा तथा चिकित्सा व्यवस्था की ढांचागत समस्याओं, जलापूर्ति की शोचनीय हालत, साफ-सफाई और बिजली वितरण आदि को जोड़ लें, तो तस्वीर बहुत हद तक सुधारों से वंचित अर्थव्यवस्था की नजर आएगी।
दुर्भाग्य से, सरकार की ऊर्जा बेकार की कवायदों में जाया हो रही है। ‘योजना’ को एक बुरा शब्द बनाने के बाद, सरकार ने नख-दंत विहीन नीति आयोग बनाया है। नतीजा: कोई नहीं है जो राज्य सरकारों के बढ़ते घाटे और राज्यों के बजट में अनुचित आबंटनों पर लगाम लगाए, कोई नहीं है जो लंबे समय में हासिल होने वाले लक्ष्यों तथा कार्यक्रमों का खाका खींचे, कोई नहीं है जो मंत्रिमंडल की बैठकों में वैकल्पिक नजरिया पेश कर सके। दूसरी विपत्तिकारक कवायद थी नोटबंदी। नोटबंदी के बाद माफी योजना से 2300 करोड़ रु. का कर-राजस्व प्राप्त हुआ, मगर अब नए नोटों में रिश्वत ली और दी जा रही है, और दो हजार रुपए के जाली नोट पहले ही नमूदार हो चुके हैं। केवल एक तथ्य अभी रहस्य के परदे में है कि अमान्य किए गए नोटों में कितना रिजर्व बैंक के पास वापस आया (जिसकी अब भी गिनती चल रही होगी)!

दूसरे कार्यक्रम या तो महज नारे हैं या आद्याक्षरों को जोड़ कर दिए गए नाम। क्लीन इंडिया (स्वच्छ भारत), मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, डिजिटल इंडिया आदि से अर्थव्यवस्था पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। कुछ बातें तो ऐसी भी हैं, वास्तविकता से जिनकी संगति नहीं बैठती। कुछ शहरों को स्मार्ट शहर बनाने की योजना (जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन को तिलांजलि देने के बाद लाई गई ऐसी योजना जो अभी तक हरकत मेंनहीं आ पाई है) लगभग सारे देश में शहरों की दुर्दशा और वहां की सड़ांध के साथ सह-अस्तित्व नहीं बना सकती। एक लाख करोड़ रुपए की लागत वाली बुलेट ट्रेन जीर्ण हो चुकी रेल पटरियों तथा पुराने परिचालन तंत्र के साथ मेल नहीं बिठा सकती।
एक एजेंडानरेंद्र मोदी में महान होने की इच्छा उफान मार रही है, लेकिन उनकी सरकार के पास आर्थिक सुधार की कोई बड़ी योजना नहीं है। नतीजतन सरकार या तो बड़ी चीजें खराब तरीके से कर रही है (जैसे जीएसटी), या खराब चीजें धमाके के साथ (जैसे नोटबंदी)। मोदी को नई तजवीजों का स्वागत करना चाहिए, भले वे किसी की देन हों। प्रत्यक्ष कर संहिता, सुधार की एक बड़ी तजवीज है। इसी तरह, वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग की सिफारिशों में कई साहसिक तजवीजें शामिल हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र की बदहाल व्यवस्था को नई शक्ल देना सुधार का एक बड़ा कदम होगा। नौकरशाही की पुनर्रचना, सुधार का एक दूसरा साहसिक और आवश्यक तकाजा है। उच्च शिक्षा को विश्व-स्तरीय विश्वविद्यालयों के लिए खोलना एक क्रांतिकारी कदम होगा।केंद्र सरकार के पास अभी दो साल का समय है। नरेंद्र मोदी अपने कार्यकाल के अंतिम दिन तक सक्रिय रहें और दंभ को पास फटकने न दें (जैसा कि वाजपेयी सरकार ने किया था)। तीसरे साल के जश्न से यह संकेत मिल जाएगा कि मोदी और उनकी सरकार के किस दिशा में जाने की संभावना है।