कोविड-19 और इसके सामाजिक तथा आर्थिक परिणामों के खिलाफ जंग का नेतृत्व केंद्र और राज्य सरकारें कर रही हैं। हम लोग महज अनुयायी हैं। लेकिन सरकारों के पीछे चलने वालों के नाते हम कई कल्पनाएं कर सकते हैं। पहली कल्पना यह करें कि इस विषाणु को बिना टीके के हराया जा सकता है। इससे हम यह कल्पना कर सकेंगे कि पूर्णबंदी इलाज है और जब तक यह पूरा नहीं हो जाता, तब तक पूर्णबंदी ही विषाणु को फैलने से रोकेगी।
हकीकत यह है कि पूर्णबंदी कोई इलाज नहीं है, न ही यह विषाणु को फैलने से रोकती है। पूर्णबंदी एक अस्थायी विराम है, यह विषाणु के फैलाव को धीमा कर सकती है और यह हमें चिकित्सा और स्वास्थ्य ढांचे को खड़ा करने, जागरूकता फैलाने और जब सबसे ज्यादा लोग संक्रमित होंगे और उन्हें अस्पताल में दाखिल कराने की आवश्यकता होगी, तब इन कामों के यह हमें कीमती वक्त दिला देगी। जिन लोगों ने पूर्णबंदी की मांग की थी, वे अब इसकी असलियत समझ गए हैं। तीन मई को इन कामों को करने के लिए चालीस दिन मिल चुके थे, सवाल है कि सरकारों को क्या और वक्त की जरूरत है?
दूसरी कल्पना यह कि जिन प्रवासी कामगारों को उनके घर जाने से रोका दिया गया था, वे अपने आश्रय स्थलों, एकांतवास के ठिकानों या शिविरों में रहने की स्थितियों से खुश और मिलने वाले खाने से संतुष्ट होंगे। आश्रय स्थलों के निरीक्षण के बाद दिल्ली पुलिस ने जो कुछ पाया, वह हकीकत है और 28 अप्रैल, 2020 के इंडियन एक्सप्रेस में छपी है। ‘‘पंखे काम नहीं कर रहे हैं और पावर बैकअप की सुविधा नहीं है, शायद ही शौचालयों की सफाई की जाती हो, ज्यादातर प्रवासी जाना चाहते हैं, क्योंकि उनके परिवार रह नहीं सकते, नागरिक सुरक्षा कर्मचारियों का बेहूदा बर्ताव, घटिया किस्म का खाना, हाथ धोने के लिए साबुन या सैनेटाइजर तक नहीं, शौचालयों में बदबू, पानी की आपूर्ति सिर्फ सुबह सात बजे से ग्यारह बजे तक, नहाने के लिए सिर्फ एक साबुन और कपड़े धोने के लिए कोई डिटर्जेंट नहीं, मच्छर काट रहे हैं सो अलग।’’ अगर आश्रय गृहों की स्थितियां ये हैं (जहां रहना स्वैच्छिक है) तो इसकी कल्पना मत कीजिए कि एकांतवास और शिविरों में क्या हाल होगा, जहां जबर्दस्ती रखा जा रहा है।
तीसरा, कल्पना कीजिए कि प्रवासी मजदूर (उदाहरण के लिए मुंबई या सूरत में) बिना काम-धंधे के, बिना पैसे के और परिवार को बिना किसी तरह की मदद भेजे छह से दस लोगों के साथ अपने एक किराए के कमरे में खुश हैं। वास्तविकता यह है कि बड़ी संख्या में ऐसे मजदूरों को सरकारों से कोई मदद नहीं मिली है, न नगदी हस्तांतरण, न राशन। उनकी इच्छा सिर्फ घर लौट जाने की है। उत्तर प्रदेश और कुछ दूसरे राज्यों ने समझदारी दिखाई और अपने राज्यों के मजदूरों को वापस लाने के लिए बसें भेजीं, बिहार ने इंकार कर दिया गया और केंद्र सरकार ने 29 अप्रैल तक कुछ नहीं किया था। अब बिहार भी बिना कहीं रुके ट्रेन चलाने की मांग करने वालों में शामिल हो गया है।
चौथा, कल्पना कीजिए कि किसी की नौकरी नहीं गई है और जब तक कामगार अपने काम पर लौट नहीं आएंगे, तब तक उनकी नौकरी बनी रहेगी। इसकी असलियत सीएमआइई ने 27 अप्रैल को अपनी रिपोर्ट में बताई है कि बेरोजगारी की दर 21.1 फीसद पर पहुंच गई है, वह भी तब जब श्रम बल भागीदारी में 35.4 फीसद की गिरावट आ गई थी। वास्तविकता यह है कि जब कोई एमएसएमई एक बार बंद होती है, तो उसे दोबारा चालू कर पाना आसान नहीं होता। उस ईकाई में काम करने वाले कुछ कामगार जो दो से दस हो सकते हैं, कमाने के लिए दूसरा रास्ता तलाश लेते हैं या पलायन कर जाते हैं और अगर वे लौटना भी चाहें तो उनके बकाए वेतन का भुगतान करना होगा।
उस ईकाई को पैसा जुटाना होगा और दूसरों को चुकाना होगा और लंबे समय की बंदी के बाद यह दोनों ही आसान नहीं है। ऐसे में ईकाई की कार्यशील पूंजी खत्म हो जाएगी, बिना क्रेडिट गारंटी के उसे कोई बैंक या एनबीएफसी कर्ज भी नहीं देगी। आपूर्ति का चक्र टूट चुका होगा। अगर निर्माता दुबारा उत्पादन चालू नहीं कर सके तो फिर दुबारा ईकाई को खोलने का मतलब क्या रह जाएगा? जिसने किसी कारोबार को चालू करने के लिए अपना पैसा कभी लगाया ही न हो, वह कारोबार को चलाने या इसे बंद करने के दर्द को कभी समझ ही नहीं पाएगा।
पांचवा, कल्पना कीजिए कि केंद्र सरकार ने 25 मार्च को जो वादा किया था कि वह कारोबारों खासतौर से एमएसएमई की मदद के लिए जल्दी ही वित्तीय कार्य योजना-2 लेकर आएगी, उसे पूरा करेगी। हकीकत यह है कि यह लिखने तक इस बारे में कुछ भी नहीं किया गया है। हमें नहीं मालूम कि वित्तीय कार्यबल ने क्या कोई सिफारिश की है। ‘बड़ा और निर्भीक’ सोचने के लिए बनाई गई नई समिति अभी तक विचार कर रही है। असलियत यह है कि बैंकों के पास पैसा भरा पड़ा है, लेकिन वे एनबीएफसी या एसएमई को देने के बजाय उसे रिजर्व बैंक के पास रखना बेहतर समझते हैं। गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के पास नगदी संकट तेजी से बढ़ रहा है और वे उधार दे नहीं सकती।
छठा, मान लीजिए कि बड़े उद्योग खुद को किसी तरह बचा ले जाएंगे और पहले की तरह फलते-फूलते रहेंगे। वास्तविकता यह है कि बड़े उद्योगों को लग गया है कि पुराना सामान्य अब हमेशा के लिए विदा हो गया है और इसलिए वे नए सामान्य की तलाश में हैं। वे नगदी संरक्षण, पूंजीगत खर्च में कटौती, क्षमता का अधिकतम उपयोग, कार्यबल में कटौती, कर्जमुक्त होने और घर से काम करने को बढ़ावा देने जैसे कदम उठा रही हैं। बड़े उद्योग सिमट भी जाएंगे और इसका परिणाम यह होगा कि प्रतिस्पर्धा और कम हो जाएगी (जैसे दूरसंचार में)।
सातवां, मान लीजिए कि पूर्णबंदी हटने के बाद अर्थव्यवस्था पुरजोर तरीके से वापसी कर जाएगी। वास्तविकता यह है कि नोटबंदी की भारी गलती के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाई, आधे-अधूरे ढंग से लागू किए गए जीएसटी के बाद अर्थव्यवस्था सुधर नहीं पाई और पूर्णबंदी खत्म हो जाने के बाद भी इसमें आसानी से सुधार नहीं आने वाला। सुधार के लिए कड़ी मेहनत, योजनाओं, बहुत ही सावधानी के साथ अमल, पैसे, खुले बाजार, जोरदार गठजोड़ और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत होगी।
लेविस कैरोल को याद करें- वास्तविकता के खिलाफ युद्ध में कल्पना ही एकमात्र हथियार है।