इस लेख को लिखने से पहले मैंने कोई तीन घंटे दिल्ली की बरसात से भीगी सड़कों पर गुजारे। बरसात के मौसम की पहली भारी बारिश ने इस महानगर की सड़कों का इतना बुरा हाल कर दिया था कि आधे घंटे की यात्रा डेढ़ घंटे की हो गई। गाड़ियों की एक लंबी कतार में जब मेरी गाड़ी चल रही थी बैलगाड़ी की रफ्तार, तो खबर सुनी रेडियो पर कि दिल्ली सरकार ने भारी बारिश के कारण लोगों को सावधान किया है कि आज के दिन सिर्फ जरूरी कामों के लिए घर से बाहर निकला जाए। मुझ तक यह खबर देर तक पहुंची।
मेरा काम इतना जरूरी नहीं था, लेकिन किसी अति-व्यस्त दोस्त ने समय निकाला था मुझसे मिलने वास्ते, इसलिए जाना ही पड़ा। वापसी में बारिश थोड़ी थम गई थी, तो इतना मुश्किल नहीं था घर लौटना, लेकिन खयाल मन में आया कि हर साल क्यों बरसात के मौसम की पूरी तैयारी नहीं कर पाता है प्रशासन? क्यों नहीं टूटी सड़कों की मरम्मत पहले हो सकती है? क्यों नहीं नालों की सफाई पहले से हो सकती है? बरसात का मौसम अचानक तो आता नहीं!
घुटनों तक पानी में चलने को मजबूर थे आम लोग
अगले दिन अखबारों में तस्वीरें छपीं बरसात में गाड़ियों की लंबी कतारों की और उन जगहों की जहां पानी इतना भर गया था कि लोग घुटनों तक पानी में चलने के लिए मजबूर थे। याद आया कि बिल्कुल यही तस्वीरें मैंने पिछले साल भी देखी थीं। याद यह भी आया कि हम मीडियावालों की गलती यह जरूर है कि किसी प्राकृतिक आपदा आने के बाद हम उसको सुर्खियों में कुछ दिनों के लिए रखने के बाद भूल जाते हैं उन प्रशासनिक नालायकी को, जिनकी वजह से ये नजारे बार-बार देखने को मिलते हैं।
दोष हमारा भी है थोड़ा बहुत, लेकिन सबसे बड़े दोषी बैठे हैं सरकारी दफ्तरों और आला मंत्रालयों में। पिछले सप्ताह प्रशासनिक गलतियों के कारण सुनिए और क्या-क्या हुआ। गुजरात में एक पुल टूटा और कई लोगों ने अपनी जानें गंवाईं, क्योंकि उनकी गाड़ियां नीचे नदी में गिर गई थीं। उस दो हिस्से में टूटे पुल को देखा, तो याद आया कि ऐसी तस्वीरें इसी राज्य में कई बार देखने को मिली हैं।
थोड़ी तहकीकात की, तो मालूम हुआ कि पिछले पांच वर्षों में पुलों के टूटने की कोई बारह घटनाएं हुई हैं और पिछले दशक में कोई बीस पुल टूटे हैं गुजरात में। जब मैंने मालूम करने की कोशिश की कि इन हादसों के लिए कितने आला अधिकारी दंडित किए गए हैं, तो पता लगा कि एक भी नहीं दोषी पाया गया है इसलिए कि हर घटना के बाद ‘जांच’ होती है जो इतनी लंबी चलती है कि लोग भूल जाते हैं कि क्या कब हुआ।
पिछले सप्ताह दिल्ली में दो सफाई मजदूर इसलिए मर गए, क्योंकि उनको सीवर की सफाई करने के लिए भेजा गया था बिना उन कपड़ों के जो उनकी जान बचा सकते थे। थोड़ी जानकारी और करने पर मालूम हुआ कि हर साल 60 से 80 मजदूर मरते हैं भारत में सीवर साफ करते हुए। मजदूरों को असुरक्षित तरीकों से सीवरों में भेजना कानूनी तौर पर मना है, लेकिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं इसलिए कि जो ठेकेदार ऐसा करते हैं, उनको दंडित नहीं किया जाता है।
उनके ऊपर बैठे सरकारी अफसर जो ठेके देते हैं, उनको तो जेल भेजने का कभी सवाल ही नहीं उठा है। सफाई मजदूर अक्सर गरीब दलित या आदिवासी होते हैं, जिनके पास पैसा कमाने के लिए और कोई साधन नहीं है। यानी ऐसा होता रहेगा बावजूद इसके कि कानून बने हैं इस गंदे और खतरनाक काम पर पूरी पाबंदी लगाने के लिए।
प्रशासनिक गलतियां जब बार-बार होती हैं, तो उनको गलती नहीं लापरवाही कहा जाना चाहिए। पिछले सप्ताह अमेरिका के टेक्सास राज्य में तकरीबन दो सौ लोग मारे गए इसलिए कि अचानक भारी बारिश हुई, जिसकी वजह से तूफानी बाढ़ आया बर्बादी लेकर। अगर आपने इस हादसे को देखा होगा टीवी पर, तो यह भी देखा होगा कि घटना के फौरन बाद राज्य के गवर्नर और उनकी सरकार के अन्य आला अधिकारियों को पत्रकारों के सामने पेश होना पड़ा और उनसे जवाबदेही मांगी गई। ऐसा होता है विकसित देशों में ताकि ऐसी दुर्घटनाएं बार-बार न होती रहें।
दिल्ली में चार मंजिला इमारत गिरी, कई लोगों के दबे होने की आशंका
हमारे देश में पत्रकार सम्मेलन तब ही बुलाते हैं राजनीतिक और आला अधिकारी, जब उनको अपनी पीठ खुद थपथपाने की जरूरत महसूस होती है। दुर्घटनाओं के बाद ये या तो दिखते नहीं हैं या तब ही सामने आते हैं, जब स्थिति सामान्य कर लेते हैं। नतीजा यह है कि पत्रकार कभी वे महत्त्वपूर्ण सवाल नहीं पूछ पाते जिनके पूछे जाने से जवाबदेही तय की जा सके किसी गंभीर हादसे के फौरन बाद।
समस्या यह है कि खमियाजा भुगतना पड़ता है हमें और आपको। बीते हफ्ते मुझे सिर्फ थोड़ा सा कष्ट हुआ बारिश की वजह से, लेकिन कई मेरे से अधिक बदकिस्मत लोग थे, जिनको घंटों बारिश में सड़कों पर रहना पड़ा इसलिए कि उनको घर जाने के लिए कोई साधन ही नहीं मिला। इस लेख को मैंने लिखा है अपनी शिकायत दर्ज करने के लिए नहीं, बल्कि उनकी शिकायतें दर्ज करने जिन लोगों की आवाज सुनाई ही नहीं देती है प्रशासन के ऊंचे गलियारों में।
इस लेख को इसलिए भी लिखा है कि उन ऊंचे ओहदों पर बैठे जानबूझ कर लापरवाही बरतने वाले लोगों को याद दिलाना चाहती हूं कि देश की राजधानी का अगर इतना बुरा हाल हो जाता है मौसम की पहली बारिश के बाद, तो क्या हाल होता होगा उन छोटे शहरों का, जिनका हाल जानने कोई जाता ही नहीं है। याद रखिए इस लेख को पढ़ने के बाद कि हमारा विकसित भारत का सपना कितना दूर होगा अगर हमारे प्रशासनिक तरीके इतने कमजोर हैं।