आधुनिक हिंदी आलोचना का इतिहास मुश्किल से सवा सौ साल पुराना है। मगर अब हिंदी आलोचना निष्प्रभावी और निस्तेज होकर दम तोड़ती नजर आ रही है। कविता, कहानी, उपन्यास आदि विभिन्न विधाओं में तो हलचल देखी जा रही है, लेकिन आलोचना के क्षेत्र में लगभग सन्नाटे की स्थिति है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आलोचना में आज एक तरह का दुहराव है और कुछ भी नया सामने नहीं आ रहा। यह स्थिति तब और शोचनीय हो जाती है जब हम देखते हैं कि पिछले किसी भी दौर की तुलना में वर्तमान समय में वैसे लोगों की संख्या काफी अधिक है, जिनके लिए आलोचक या समीक्षक ‘पद’ का इस्तेमाल किया जाता है। आलोचना के इस व्यापक संकट पर ईमानदारी के साथ गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। पर इस मामले में दिक्कत यह है कि एक तरफ ऐसे लोग हैं जो आलोचना के संकट से ही इनकार करते हैं, तो दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे हैं जो इस संकट को स्वीकार तो करते हैं, पर इसके मूल कारणों पर बहस करने से बचते हैं। इसी कारण आलोचना के गंभीर संकट के बावजूद हिंदी में इस पर सारगर्भित विचार-विमर्श संभव नहीं हो पा रहा है।
मुक्तिबोध ने अपने प्रसिद्ध सैद्धांतिक निबंध ‘समीक्षा की सीमाएं’ में लिखा है कि ‘समीक्षा को भी चरित्र की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि लेखक को ईमानदारी की।’ उन्होंने चरित्र और ईमानदारी को आलोचकीय मानदंड बना कर हिंदी आलोचना को नैतिकबोध से संपन्न करने का अथक प्रयास किया। हिंदी आलोचना में इस नैतिकबोध का क्रमश: क्षरण होता गया। आज स्थिति यह हो गई है कि आलोचना का कोई चरित्र ही नहीं बचा है। मुक्तिबोध जिस खतरे को महसूस करके अपने दौर में लिख रहे थे, आज वह वास्तविक बन कर हमारे सामने है। आलोचक के चरित्र का लोप हिंदी आलोचना के संकट का सबसे बड़ा कारण है। आलोचक की जितनी कमतर हैसियत आज है, उतनी कभी नहीं थी।
आज जब रचनाकार कहते हैं कि उन्हें आलोचक की जरूरत नहीं है तो इसका यह मतलब कतई नहीं कि उन्हें आलोचक की वास्तव में जरूरत नहीं है या उनकी रचनाओं की प्रसार संख्या इतनी अधिक है कि उनके लिए आलोचक अप्रासंगिक हो गए हैं। दरअसल, ऐसा कहने के पीछे रचनाकार का वह आत्मविश्वास है कि वह जब चाहे किसी समीक्षक या आलोचक से अपनी पुस्तकों की मनोनुकूल समीक्षा लिखवा या उस पर वक्तव्य दिलवा सकता है। अखबारों और पत्रिकाओं में छप रही समीक्षाओं का हाल तो यह है कि अधिकतर मामलों में रचनाकार ही तय कर रहा है कि उसकी पुस्तकों की समीक्षा कौन लिखेगा। हाथ फैलाए हुए आलोचकों-समीक्षकों की एक पूरी फौज मौजूद है। आलोचक और रचनाकार के बीच तनावपूर्ण संबंध तो अब इतिहास की बात हो गई। उनके बीच आज खूब सौहार्दपूर्ण संबंध है। आलोचक ने रचनाकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। थोड़े-से लाभ-लालच के लिए वह औसत रचनाकार की पालकी ढोने को तैयार खड़ा है।
आलोचक की प्रतिबद्धता पाठक के प्रति न होकर रचनाकार के प्रति हो गई है। वह पाठक की तरफ से नहीं, बल्कि रचनाकार की तरफ से बोलने लगा है। वह पाठक की आवाज न होकर रचनाकार का प्रवक्ता बन गया है। यह एक बड़ा ‘पैराडाइम शिफ्ट’ है। व्यक्तिगत संबंधों पर आधारित आलोचना कर्म ने आलोचक के चरित्र को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। उसका अवसरवाद जगह-जगह उजागर हो रहा है और आलोचना लगभग व्यवसाय बन गई है। आलोचना-कर्म की इससे विडंबनात्मक स्थिति कुछ और नहीं हो सकती कि एक आलोचक जिन कारणों से किसी रचना को खारिज करता है, उन्हीं कारणों के रहते हुए किसी दूसरे की रचना को पसंद करता है। यह स्थिति चाहे जितनी विडंबनापूर्ण क्यों न हो, पर वर्तमान हिंदी आलोचना का यही सच है। आलोचना साहित्य का विवेक है। आज यह विवेक रचनाकारों, संस्थाओं, प्रकाशकों के यहां और न जाने कहां-कहां गिरवी है। ऐसे में आलोचना तो संकटग्रस्त होगी ही। इस स्थिति से निकलने का एकमात्र उपाय है कि आलोचक रचनाकार की जगह रचना को महत्त्व दे और पाठक की ओर से उसका मूल्यांकन करे।
दिनकर जब अपनी भौतिक उपलब्धि के शिखर पर थे, तब ‘उर्वशी’ का प्रकाशन हुआ था। भगवतशरण उपाध्याय ने उसकी विध्वंसात्मक समीक्षा ‘कल्पना’ में लिखी थी। कृति के गुण-दोष से इतर दिनकर पर एक बड़ा आरोप यह लगा कि जिस तरह से उर्वशी का भव्य और समारोहधर्मा प्रकाशन हुआ, वह एक तरह से अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के बल पर साहित्यिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयास है। तबके लिए यह एक असामान्य बात थी और उसका विरोध हुआ। आज यह कितनी सामान्य बात हो गई है। सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल होते ही साहित्यिक प्रतिष्ठा हासिल हो जाती है। दिनकर तो राज्यसभा के सदस्य थे, आज किसी प्रशासनिक अधिकारी या किसी साहित्यिक संस्था के पदाधिकारी को महान कवि या कथाकार घोषित करने के लिए आलोचकों और साहित्यकारों की फौज खड़ी हो जाती है।
इसीलिए आज हिंदी में लेखक बनना सबसे आसान काम हो गया है। अगर आपकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत अच्छी है तो आपके साहित्यकार बनने में कोई बाधा नहीं है। पाठकों की स्वीकृति मिले न मिले, आलोचकों और समीक्षकों की स्वीकृति मिलने में देर नहीं लगती। साहित्यिक महत्त्वाकांक्षा रखने वाले संसाधन संपन्न व्यक्तियों के लिए यह समय हिंदी में स्वर्णकाल है। संसाधनों के बल पर आप इतिहासकार, अर्थशास्त्री या समाजविज्ञानी नहीं बन सकते हैं। कोई बड़ा इतिहासकार आपको इसलिए इतिहासकार के रूप में मान्यता नहीं दे सकता कि आप भौतिक रूप से संपन्न हैं। यह खेल सिर्फ साहित्य में चलता है। क्या विडंबना है कि जो जगह सबसे नैतिक होनी चाहिए वहीं सर्वाधिक अनैतिकता पसरी है। हिंदी में आलोचना जनसंपर्क अभियान का हिस्सा बन गई है। जिस रचनाकार का जनसंपर्क जितना बेहतर है वह अपने आप को उतना ही बड़ा रचनाकार घोषित करवा लेता है। आलोचना की इस प्रवृत्ति का सर्वाधिक शिकार सामान्य पाठक होते हैं।
हिंदी में जिस कदर विपुल लेखन हो रहा है उसमें पाठक के सामने एक बड़ी समस्या यह है कि वह क्या छोड़े और क्या पढेÞ? ऐसे में वह आलोचना की तरफ देखता है, जिसके माध्यम से कोई भी रचना अच्छी या बुरी साबित होती है। चूंकि आज स्वतंत्र आलोचना लगभग समाप्त हो गई है, इसलिए जब पाठक आलोचक द्वारा प्रशंसित तथाकथित अच्छी रचना को पढ़ता है तो उसके मन में क्षोभ उत्पन्न होता है, क्योंकि वह रचना वास्तव में महत्त्वपूर्ण होती नहीं है। फलस्वरूप पाठक इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि सब कुछ प्रायोजित है और कुछ भी अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। तात्पर्य यह कि पाठकीयता और पठनीयता का संकट भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से आलोचना के संकट से जुड़ा हुआ है।
आलोचकों के चारित्रिक पतन के कारण हिंदी आलोचना में एक गतिरोध उत्पन्न हो गया है। यह गतिरोध धीरे-धीरे साहित्य का गतिरोध बनता जा रहा है। जिस तरह दलितों, पीड़ितों और वंचितों की वकालत करना साहित्य का फर्ज है, ठीक उसी तरह सत्ता केंद्रों से दूर, साहित्य की दुरभिसंधियों से परे, साहित्यिक व्यावहारिकता से अनजान दूर-दराज के वास्तविक लेखकों के महत्त्व को रेखांकित करना आलोचना का अनिवार्य दायित्व है। लोभ-लाभ से परे इस अनिवार्य दायित्व का निर्वहन करके ही आलोचना फिर से अपनी विश्वसनीयता कायम कर अपनी गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ा सकती है। आज आलोचक को यह बात अधिक जोर से कहनी चाहिए कि उसे रचनाकार से नहीं, रचना से मतलब है और उसके लिए पाठक महत्त्वपूर्ण है।