प्रधानमंत्री ने 12 मई को जो प्रोत्साहन पैकेज घोषित किया था, उसका विश्लेषण मैंने पिछले हफ्ते किया था। पांच हिस्सों में वित्तमंत्री ने इस पैकेज का ब्योरा पेश किया, जिसका विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों ने विश्लेषण किया। इसका सर्वसम्मत नतीजा यह निकला कि पैकेज में राजकोषीय प्रोत्साहन का हिस्सा जीडीपी के 0.8 से 1.3 फीसद के बीच है। विस्तृत आंकड़ों के साथ राजकोषीय प्रोत्साहन का आकार मैंने गए हफ्ते 1,86,650 करोड़ रुपए का बताया था, जो जीडीपी का 0.91 फीसद के बराबर है। सरकार में किसी ने भी मेरे इन आंकड़ों का खंडन नहीं किया है।

असली पाप
आगे बढ़ूं, उससे पहले मैं भारत की उस वक्त की आर्थिक हालत की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं, जब कोविड-19 ने देश में दस्तक दी थी। हमने लगातार सात तिमाहियों में जीडीपी वृद्धि दर में गिरावट देखी थी। यह अप्रत्याशित थी। 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित किया था। गंभीर आर्थिक स्थिति से हमने मुंह मोड़ लिया था। अब सरकार महामारी पर दोष मढ़ेगी। हालांकि सच्चाई यह है कि आर्थिक संकट का मूल तो सरकार की गलत नीतियों में मौजूद था।

पूर्णबंदी का शुरुआती फैसला अपरिहार्य था, क्योंकि मार्च में वायरस को तेजी से फैलने से रोकने का एकमात्र उपाय ‘सुरक्षित दूरी’ था, जिसका मतलब ही पूर्णबंदी था। वैकल्पिक रणनीति के अभाव में सरकार एक पूर्णबंदी से दूसरी में चली गई। लगातार पूर्णबंदी के अब गंभीर नतीजे देखने को मिल रहे हैं। इसके अलावा, इसने एक भारी-भरकम मानवीय संकट भी खड़ा कर दिया।

पहली पूर्णबंदी के बाद सरकार का हर फैसला नतीजों के रूप में सवालिया निशान लिए हुए रहा। तीसरी पूर्णबंदी के मौके पर पहली बार प्रधानमंत्री ने अपने को राष्ट्रीय टीवी से अलग कर लिया और बहुत ही होशियारी से सब कुछ राज्यों पर डाल दिया।

लेकिन अर्थव्यवस्था का नियंत्रण राज्यों के हाथ में नहीं है। केंद्र सरकार अब साम्राज्यवादी ताकत की तरह है। सारे अधिकार और शक्तियां प्रधानमंत्री कार्यालय ने हथिया ली हैं। राज्यों को पैसे के लिए, जिसमें उनके वैध और संवैधानिक हक भी शामिल हैं, केंद्र के सामने हाथ फैलाने के लिए छोड़ दिया गया है। दिखावटी ‘मदद’ के तौर पर राज्यों को बिजली कंपनियों को नगदी सुविधा, ज्यादा उधारी सीमा जैसी जो सुविधाएं देने की बात हुई है, वे इतनी जटिल हैं कि कोई भी राज्य सरकार इनके लिए निर्धारित पूर्व शर्तों को पूरा नहीं कर पाएगी और चालू वित्त वर्ष में इन पैसों का लाभ नहीं उठा पाएगी।

खौफनाक शब्द ‘आर’
‘आर’ से शुरू होने वाला खौफनाक शब्द है- रिसेशन यानी मंदी। पिछले चालीस सालों में भारत ने कभी भी ऋणात्मक जीडीपी वृद्धि का सामना नहीं किया। इसका श्रेय मोदी सरकार को दिया जा सकता है, जो कि महामारी को दोष देगी, लेकिन इसकी असली पापी तो मोदी सरकार ही है। आठ नवंबर 2016 (डी यानी डिमॉनीटाइजेशन डे, नोटबंदी दिवस) से लेकर मोदी सरकार ने कितनी गलतियां की हैं, यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है।

महामारी से लड़ने में प्रधानमंत्री भी उसी रास्ते पर चले, जिस पर चीन, इटली, स्पेन, फ्रांस और ब्रिटेन चले। पहला, पूर्णबंदी। उसके बाद जांच, संक्रमितों का पता लगाना, उन्हें एकांतवास में रखना और संक्रमितों का इलाज। चिकित्सा और स्वास्थ्य ढांचे में कई सुधार किए गए। इन कदमों के मिले-जुले परिणाम सामने आए। हमारे यहां सिक्किम जैसा राज्य भी है, जिसमें एक भी कोरोना संक्रमित नहीं है और महाराष्ट्र जैसा राज्य भी है, जहां देश के कुल संक्रमितों के पैंतीस फीसद कोरोना मरीज हैं। यह स्पष्ट है कि विषाणु कोई निश्चित तरीके से नहीं फैलता है, इसके फैलने को लेकर कई ऐसे कारण हैं, जो अभी अज्ञात हैं।

फिर भी, मोदी ने उस रास्ते पर चलने से इंकार कर दिया, जिस पर चलते हुए ज्यादातर देशों ने महामारी के आर्थिक नतीजों का मुकाबला किया। राजकोषीय प्रोत्साहन ऐसा मॉडल है, जिसकी तकरीबन सभी अर्थशास्त्रियों ने वकालत की है। इसका सिर्फ एक अर्थ है- ज्यादा खर्च करना। 2020-21 के लिए व्यय बजट में 30,42,230 करोड़ रुपए खर्च करने का अनुमान है। क्या यह नीचे जा रही अर्थव्यवस्था के लिए पर्याप्त होता, यह एक बहस का सवाल है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि जब अर्थव्यवस्था शून्य से नीचे यानी ऋणात्मक में जा रही हो तो यह निश्चित रूप से पर्याप्त नहीं होता।

हमें एक नए बजट की जरूरत है। एक फरवरी को लगाए गए अनुमानों की अब कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। सरकार को एक जून, 2020 को नया बजट पेश करना चाहिए। कुल खर्च चालीस लाख करोड़ रुपए का होना चाहिए। राजस्व के मौजूदा स्रोतों जैसे कर, गैर-कर और पूंजी प्राप्तियों से अठारह लाख करोड़ रुपए मिल सकते हैं। बाकी के लिए हमें उधार लेना चाहिए। उधारी बजट अनुमानों 7,96,337 करोड़ रुपए से बढ़ कर बाईस लाख करोड़ तक जाएगी।

आखिरी मौका
यदि जैसे जैसे साल गुजरता है और उधारी व राजकोषीय घाटा इस स्तर तक पहुंच जाता है जो असहनीय हो जाए, जिसके दूसरे दुष्परिणाम सामने आने लगें, तो हमें राजकोषीय घाटे के हिस्से का मौद्रीकरण करने में नहीं हिचकिचाना चाहिए, यानी इसका मतलब है नोट छापना। 2008 और 2009 में कई देशों ने ऐसा किया था और वे अपनी अर्थव्यवस्था को और गहरी मंदी में जाने से बचा ले गए थे।
इस विकल्प पर विचार करना भी किसी सदमे से कम नहीं है। मंदी का मतलब होगा और ज्यादा बेरोजगारी (जो पहले से ही चौबीस फीसद है), नौजवानों को काम के लिए और लंबा इंतजार करना होगा, कम मजदूरी और वेतन, और ज्यादा खराब हालत और ज्यादा गरीबी।

भारत की 2020 में जो तस्वीर बनेगी, वह प्रवासी मजदूरों की होगी। प्रवासी मजदूर जो अपनी कड़ी मेहनत से अपना और परिवार का पेट भर रहा है और जो गरीबी रेखा से जरा ही ऊपर है, जिसे अब बिना नौकरी, बिना नगदी, बिना घर और बिना खाने तक सिमटा दिया गया है, जो सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर हैं, कइयों के साथ बच्चे भी हैं जो घर लौटने को मजबूर हैं, चाहे इसका मतलब मरने के लिए ही घर पहुंचना हो।

मोदी सरकार के पास अब आखिरी मौका है। इसे अपने शुतुरमुर्गी घोड़े से बचना चाहिए और खर्च करने, उधारी लेने और मौद्राकरण के रास्ते पर चलना चाहिए। वरना लोग अर्थव्यवस्था को एक दशक पीछे धकेल देने के लिए मोदी सरकार को कभी नहीं भूलेंगे या माफ करेंगे।