कहा जाता है मेरे बारे में कि मैं निष्पक्ष पत्रकार नहीं हूं। कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी का मैं कुछ ज्यादा विरोध करती हूं और नरेंद्र मोदी की भक्ति जरूरत से ज्यादा। यह आरोप कुछ हद ठीक भी है। मैंने कांग्रेस पार्टी का विरोध किया है दशकों से, लेकिन इस विरोध के कारण हैं, जिनको मैं सही मानती हूं। जबसे मैं पत्रकार बनी हूं तबसे मुझे कांग्रेस में बुराइयां ज्यादा दिखी हैं, अच्छाइयां बहुत कम। एक तो वंशवाद के खिलाफ हूं पूरी तरह, लेकिन कारण और भी हैं। इत्तेफाक से मेरी पहली नौकरी स्टेट्समैन अखबार में लगते ही इंदिरा गांधी ने इमरजंसी लगा दी थी, जिसके लगते ही जाने-माने पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया था, सिर्फ इसलिए कि उन्होंने श्रीमती गांधी के उस कदम को गलत बताने की हिम्मत दिखाई थी।
इमरजंसी की आड़ में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को अपने बेटे संजय के हवाले कर दिया था और सरकार को भी। मंत्रियों को हटाने का अधिकार दे दिया था इंदिरा गांधी ने अपने बेटे संजय को, जिसने उस समय तक कभी चुनाव तक नहीं लड़ा था। ज्यादतियां और भी थीं उस दौर में, जिनको मैंने अपनी आंखों से देखा। दिल्ली में तुर्कमान गेट पर पुरानी मुगल बस्तियों को तोड़ने के लिए जब बुलडोजर भेजे गए संजय गांधी के आदेश पर, मैं वहां थी। यहां के निवासियों को जब यमुना पार बंजर जमीनों में फेंका गया बरसात के मौसम में, मैंने उनका हाल अपनी आंखों से देखा। पुरानी दिल्ली में जब नसबंदी के लिए जबर्दस्ती उठाया जाता था बुजुर्गों और नौजवानों को, मैं गवाह थी। कश्मीर और पंजाब की राजनीतिक समस्याओं की शुरुआत हुई कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण और इनको गंभीर राष्ट्रीय समस्या में तब्दील होते हुए मैंने करीब से देखा। यह भी देखा कि जब चीन जैसे मार्क्सवादी देश अपनी आर्थिक नीतियों में उदारता ला रहे थे, इंदिरा गांधी उन्हीं समाजवादी आर्थिक नीतियों पर अड़ी रहीं, जिनके कारण यह देश गरीब रहा है। इन नीतियों को राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया है और सोनिया गांधी ने भी। सो, जब नरेंद्र मोदी ने देश में परिवर्तन और विकास लाने के वादे किए और कुछ हद तक खरे उतरे इन वादों पर, तो मेरा समर्थन उनको मिला है बिलकुल वैसे जैसे इस चुनाव में देश के मतदाताओं का मिला है। मोदी की समर्थक आज भी हूं, लेकिन यह भी मानती हूं कि लोकतंत्र तभी सही ढंग से चलता है जब विपक्ष कमजोर नहीं होता।
आज कांग्रेस की हालत इतनी कमजोर है कि उनको सलाह देना मैं अपना फर्ज मानती हूं। अगर राहुल गांधी वास्तव में कांग्रेस को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो उनको पहले मालूम करना चाहिए कि जमीन पर कांग्रेस के कार्यकर्ता क्यों नहीं दिखते हैं आज। एक समय था जब हर गांव में हुआ करते थे सेवा दल के ईमानदार, मेहनती लोग जो हर आपदा में नजर आते थे लोगों की सहायता करते। आज ग्रामीण भारत में जब घूमती हूं तो मुझे कहीं नहीं दिखते हैं ये सफेद गांधी टोपी पहने कार्यकर्ता। जबसे ऐसे लोग गायब होने लगे हैं, तबसे कांग्रेस कमजोर होने लगी है, खासकर इसलिए कि इनकी जगह ले ली है दरबारियों ने, जो राजनीति में आए हैं अपने परिवार की सेवा करने, जनता की सेवा करने नहीं। सुना है कि राहुल गांधी ने चुनाव हारने के बाद खुद माना कि उनके मुख्यमंत्री दिल्ली में बैठ कर अपने बेटों के लिए टिकट हासिल करने का काम कर रहे थे अपने राज्यों में, चुनाव प्रचार करने के बजाय। कांग्रेस की सभ्यता अब दरबारियों की बन गई है और इस दरबार की ऊर्जा है वंशवाद। सोनिया गांधी के दौर में वंशवाद कांग्रेस की जड़ों तक पहुंच चुका है, सो अब सरपंच भी तभी हटते हैं अपने पद से, जब अपने किसी वारिस को उस पर बिठा लेते हैं। सो, उन लोगों को राजनीति में आने का मौका तक नहीं मिलता है, जो सेवा भाव से आना चाहते हैं। ऐसा होने से कई तकरीबन सारे विपक्षी दल कमजोर हुए हैं, लेकिन कांग्रेस का कमजोर होना लोकतंत्र को सबसे ज्यादा कमजोर करता है, क्योंकि वही एक राजनीतिक दल है, जो राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकता है।रही बात कांग्रेस की सेक्युलर विचारधारा की, तो यह कमजोर हुई है इतनी कि राहुल गांधी अपने आप को जनेऊधारी ब्राह्मण साबित करने में लगे रहे चुनाव अभियान से पहले ही। उनकी बहन जब सक्रिय राजनीति में उतरीं तो जहां गर्इं, पहले किसी मंदिर में दर्शन करने गर्इं। सो, शायद मुसलमानों ने इस बार मोदी को वोट ज्यादा दिया है, क्योंकि उनको लगने लगा होगा कि इन दोनों दलों में जो अंतर था कभी, अब नहीं रहा है। सो, मोदी को क्यों न दिया जाए वोट, जिसने कुछ हद तक उनके गांवों में परिवर्तन ला कर तो दिखाया है।
कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने बहुत बार कहा है कि उनकी प्राथमिकता है संगठन को मजबूत करना। सवाल है कि ऐसा उन्होंने किया क्यों नहीं? संगठन को मजबूत करने के बदले उन्होंने सिर्फ अपने परिवार को मजबूत करने पर ध्यान दिया है और अपने दरबार में ऐसे सलाहकारों को नियुक्त करने पर ध्यान दिया है, जिन्होंने कभी चुनाव लड़ा ही नहीं है। ऊपर से इन सलाहकारों में अहंकार इतना दिखा है कि उनके हर वक्तव्य ने कांग्रेस को थोड़ा और कमजोर किया है। सैम पित्रोदा अब गायब हो गए हैं और शायद गायब रहेंगे, लेकिन उनका ‘हुआ तो हुआ’ वाला बयान भुलाना मुश्किल है। पित्रोदा का यह बयान तो इतना चल रहा है कि मैंने जब एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता से पार्टी की हार के बारे में पूछा, उसने हंस कर कहा ‘हुआ तो हुआ’।