शिक्षा आधुनिक सभ्यता का सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द है। इसी के बूते मानव सभ्यता यहां तक पहुंची है। शब्द, बोली, भाषा, लिपि से लेकर छापाखाना, अखबार, पत्रिका, पुस्तकें, इंटरनेट किंडिल सब शिक्षा के आम उपादान हैं। इसके बाद आती हैं विचार, सिद्धांत जैसी प्रक्रिया की बातें, कि शिक्षा को कैसे प्रभावी बनाया जाए, कि परिवर्तन में उसकी भूमिका को कैसे पहचाना जाए, क्या शिक्षक करे और क्या सरकार। यह देश और समय सापेक्ष मामला भी है, इसलिए निरंतर परिवर्तनशील भी। नए युग में एक देश के अनुभवों से दूसरे देश तुरंत सीखने को तत्पर हैं। इससे शिक्षा की प्रासंगिकता और उपयोगिता दोनों बनी रहती है। शिक्षा इसलिए निरंतर बदलाव की प्रक्रिया भी है।

शिवरतन थानवी पिछले छह दशक से शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। वे लगातार एक विद्यार्थी की निष्ठा से पूरी शिक्षा व्यवस्था को देखते-परखते और उस पर लिखते रहे हैं। उन्हीं में से कुछ लेख सामाजिक विवेक की शिक्षा के रूप में संकलित होकर हमारे सामने हैं।

एक लेख में वे हर शिक्षक और मां-बाप को गिजुभाई बनने की सलाह देते हैं। हिंदी का अधिकतर पाठक गिजुभाई को नहीं जानता। सौ वर्ष पहले ‘दिवास्वप्न’ जैसी दर्जनों छोटी-छोटी किताबों के माध्यम से अपने मौलिक प्रयोग, शिक्षण पद्धति से शिक्षा जगत में हलचल मचाने वाले गिजुभाई बधेका हिंदी क्षेत्र में आज भी लगभग अनजान हैं। सौ वर्ष पहले गुजरात के स्कूलों में गिजुभाई ने स्कूली छात्रों को रटंत से दूर रख कर जीवन की शिक्षा से जोड़ा, पाठ्यक्रम को दरकिनार करते हुए उनमें नाटक, इतिहास, भूगोल की मौलिक समझ पैदा की। इतनी कि शिक्षा बच्चों के लिए आनंद की चीज बन गई। परंपरागत ढांचे के शिक्षक, प्राचार्य पहले अनेक प्रयोगों से घबराए, विरोध किया, लेकिन जब बच्चों की प्रतिभा उन्हीं स्कूलों से निखर कर सामने आई तो सभी ने उनका लोहा मान लिया। देश की सभी भाषाओं में उनकी किताबें उपलब्ध हैं, लेकिन नहीं जानते तो बीएड करने वाले छात्र, उनके स्कूल, कॉलेज और प्राचार्य, मालिक।

‘क्या जरूरत है बीएड की’ लेख में थानवीजी पूरी तरह मौजूदा बीएड जैसे पाठ्यक्रमों की उपयोगिता को खारिज करते हैं। ‘प्रारंभिक शिक्षण के लिए सेवापूर्व प्रशिक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है। खासकर मौजूदा समय में, जब यह डिग्री पैसा और उद्योग के समीकरण में शामिल हो चुकी है। शिक्षकों का प्रशिक्षण उनके सेवाकाल के दौरान जीवन भर होता रहे, यही श्रेयकर है। वरिष्ठ शिक्षक प्रेरणाप्रद शिक्षा-साहित्य, पुस्तकें-पत्रिकाएं पढ़ें और पढ़ने के लिए प्रेरित करें यही प्रशिक्षण है। व्यक्ति के पेशेवर विकास के लिए जरूरी नहीं कि ऐसी प्रशिक्षण डिग्रियां अनिवार्य हों। इसे डॉक्टरी, इंजीनियरी पेशे के साथ नहीं रखा जा सकता।’

गिजुभाई बधेका वैरिस्टर थे, बीएड, एमएड नहीं थे, लेकिन उन्होंने बाल-जगत को जितना बेहतर समझा, उनकी शिक्षा को लेकर जितने प्रयोग किए, वह एक अपूर्व कीर्तिमान है। किसी किताब की प्रासंगिकता इस बात में भी है कि वह अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से कितना मुठभेड़ करती है। ‘शिक्षा का अधिकार’, ‘कुंजियों की बुराई’, ‘कोचिंग की जरूरत’ जैसे लेख इसीलिए जरूर पढ़े जाने चाहिए। ‘कोचिंग की बुराई’ में उन्होंने नारायण मूर्ति, जयराम रमेश और चेतन भगत के बीच चली बहस पर भी टिप्पणी की है। उनका निष्कर्ष है कि कोचिंग संस्थानों का बड़ा उद्देश्य सही शिक्षण नहीं, दुकानदारी होता है। यह पूरी शिक्षा प्रणाली के लिए घातक है। सिर्फ रटंत का अभ्यास शिक्षा नहीं होती। हमारा आदर्श हर स्कूल में अच्छी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए, न कि टयूशन, कोचिंग उद्योग को बढ़ाना। कोचिंग संस्थान अच्छे आइआइटी पैदा नहीं कर सकते। अनंत लिखा जा रहा है कोचिंग, टयूशन के खिलाफ। खुद वैज्ञानिक यशपाल इसे सृजनशीलता के खिलाफ मानते हैं, लेकिन देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में तो यह भी भारी मुनाफे के उद्योग में बदलता जा रहा है और उसी अनुपात में गिरती जा रही है देश की शिक्षा व्यवस्था।

वह लेखक या शिक्षक ही क्या, जो समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, जादू-टोने के खिलाफ न लिखे; बराबरी, सामाजिक समसरता की बात न कहे। एक लेख में शिवरतनजी ने चिंया और मियां की कहानी के माध्यम से यही बात कही है कि समाज गरीब, अमीर सभी के साथ मिल कर चलने से बनता है। एक-दूसरे को डराने से नहीं। न पंडित को डराने का हक है न मुल्ला, मौलवी, साधु, फकीर या देवताओं को। अधूरी शिक्षा सभी को ग्रह, नक्षत्र, ज्योतिष की तरफ धकेलती है। क्या संतोषी माता के नाम पोस्टकार्ड लिखने से मंगल हो जाएगा, नहीं। सच्चा इंसान भाग्य और भगवान का मोहताज नहीं होता। ये अंधविश्वास उतने ही खतरनाक हैं, जितना संतों में विश्वास या धर्म के ढोंग में। वे धार्मिक शिक्षा से भी आगाह करते हैं। धार्मिक शिक्षकों पर निर्भर रहे तो आप घाटे में रहेंगे। पंथनिरपेक्ष अध्ययन को बढ़ाने की जरूरत है।

‘भारत में शिक्षा का भविष्य’, ‘शिक्षा और जनतंत्र’, ‘शिक्षा और विज्ञान’, ‘शिक्षा बीमार क्यों’, ‘डायरी लेखन’ और ‘शिक्षकों के निजी पुस्तकालय’ ऐसे लेख हैं, जिन्हें सार्वभौमिक शिक्षा की बुनियाद कहा जा सकता है। शिवरतनजी शिक्षक रहे हैं और राजस्थान के समाज में शिक्षा की भूमिका को पहचाना है। इसलिए हर लेख अनुभव की सीख का विस्तार है और बहुत सहज, सरल भाषा में। हर लेख में कोई न कोई जीवंत घटना है। उससे सबक हैं। दुनिया भर के शिक्षाविदों- मांटेसरी, कृष्ण कुमार, अनिल सद्गोपाल, रवींद्रनाथ ठाकुर के बहुमूल्य विचार, व्याख्या हैं।

हमारे बीएड पाठ्यक्रम में ऐसी ही किताबों की जरूरत है। हर शिक्षक को ऐसी किताबें अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए। पढ़ने की आदत पर वे विशेष आग्रह करते हैं। भूमिका में वे कहते हैं। ‘शिक्षकों में पढ़ने की आदत बहुत कम दिखाई देती है, जबकि उन्हें सबसे ज्यादा पढ़ना चाहिए। अपने काम की भी और अन्य भी- तभी वे कुशल और योग्य शिक्षक बनेंगे। शिक्षा साहित्य और अन्य विषयों को पढ़ने की जितनी आदत होगी उतनी ही क्षमता उनकी बढ़ेगी- एक सफल शिक्षक बनने के लिए। शिक्षक केंद्रित ऐसी किताब शायद दूसरी न हो। शिक्षा, समाज और शिक्षा में सरकार की भूमिका को समझने के लिए एक जरूरी किताब है।

सामाजिक विवेक की शिक्षा: शिवरतन थानवी; वाग्देवी प्रकाशन, विनायक शिखर, पॉलीटेकनीक कॉलेज के सामने, बीकानेर, 260 रुपए। (प्रेमपाल शर्मा)
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विदा लेना बाकी रहे
आशुतोष दुबे आकार में छोटी लगती, पर बड़ी आख्यानात्मक स्मृति छोड़ देने वाली कविताओं के कवि हैं। कई बार लोग धोखा खाते हैं कि छोटी कविताएं कम बोलती हैं। वे भले कम बोलती लगें, लेकिन अगर वे आशुतोष दुबे जैसे कवि की कविताएं हैं तो देर तक गूंजती हैं। इस प्रिय कवि के पास जीवन और विचार के अपने मर्म हैं और उनसे हमें गहरे तक बेधने की अपनी विशिष्ट शक्ति भी, जो कविता के शिल्प जैसी बहुउल्लेखित चीज को वापरती है, जितना जरूरी हो। ये कविताएं उनको कवि बनाती हुई कविताएं हैं, जो कवि नहीं हैं।

भाषिक अपव्यय से बचते हुए आशुतोष दुबे लगातार अपने सामने मितकथन का मानक रखते हैं और अभिव्यक्ति को बहुत ही नुकीले, सधे और संवरे रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे अलग रंग और ढब के तथा बीनाई के कवि हैं। उन्होंने शब्दों में प्राणवत्ता की सांस फूंकी है। आशुतोष स्थूलता के चितेरे नहीं, अंत:करण की स्वच्छ, निर्मल पाटी पर पड़ते कोमल आघातों, स्पंदनों, आंसुओं, झरनों, हिलाते-झकझोरते-जगाते शब्दों, आवाजों, व्यग्रताओं, चपलताओं और छायाओं को चुनने-बीनने वाले कवि हैं।

(विदा लेना बाकी रहे: आशुतोष दुबे; सूर्य प्रकाशन मंदिर, नेहरू मार्ग (दाऊजी रोड), बीकानेर; 200 रुपए)
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मदर मेरी
कमल कुमार का कहानी संग्रह ‘मदर मेरी और अन्य कहानियां’ एक संग्रह भर नहीं है। यहां आप भाषिक छद्म से परे वर्तमान जीवन की ऐसी सच्चाइयां पाएंगे, जो निरे यथार्थ से सराबोर हैं। कहानियां आपको अपने प्रश्नों से परेशान करते हुए भी यह गुजारिश करती नजर आएंगी कि हमारे इस परिवेश को और बेहतर बनाने के लिए कोशिश की जाए।
स्त्री होने की पहचान और सम्मान के लिए संघर्षरत व्यक्तियों को यह संग्रह यों ही समर्पित नहीं कर दिया गया है। यहां ऐसे चरित्र आपको अपनी दुनिया में खींच ले जाने को बेसब्र हैं। अकेलेपन की दुरूहता से अलग सामूहिकता का एक ऐसा मार्ग भी नजर आता है, जो जीवन-संध्या में रोशनी भर देता है। ‘मेरा घर’ से ‘हमारा घर’ बनने की दास्तां यहां ऊर्जा से भर देती है।

अपने समय की विशिष्ट कथाकार कमल कुमार की कहानियां अपने आसपास से उठाई गई स्थितियों, चरित्रों और संघर्षों से जुड़ी हैं, इसलिए इनमें बनावटीपन कहीं नहीं है। वर्तमान शोर-शराबे के बीच इन रचनाओं को पढ़ते हुए आप खास तरह का सुकून और इत्मीनान महसूस करेंगे।

(मदर मेरी और अन्य कहानियां: कमल कुमार; सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 150 रुपए)
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चांद तन्हा है
यह नाज़ बरेलवी की गजलों का पहला संग्रह है। उनके कलाम में जहां तड़प और दर्द है, वहीं हौसला भी खूब है। नाज़ अपने कलाम के जरिए मुहब्बत, रवादारी और वफा का पैगाम देती हैं। वे गमे-दुनिया और समाज की विसंगतियों का सामना हिम्मत और संजीदगी के साथ करने का पैगाम देती हैं। चाहे कैसे भी हालात हों, उन्हें वफा का दामन छोड़ना गवारा नहीं। अहले-वफा का किरदार उनकी सांसों में रचा-बसा है। उनकी फितरत में नर्म मिजाजी और साफगोई है। वे अपने दिली जज्बात बेलौस और सादगी के साथ उजागर करने में कामयाब हुई हैं।
‘कभी फुर्सत मिले, तुर्बत पे मेरी आप आ जाना/ मुनासिब है कि थोड़ी रस्मे-दुनिया ही निभा जाना।’ … ‘यह माना प्यार में कुछ दर्द का अहसास होता है/ हर इक लम्हा मगर इस जिंदगी को रास होता है।’
नाज़ के कलाम में रूमानियत है, तो समाजी रिवायतों और मुहब्बत पर बंदिशों के खिलाफ जंगी तेवर भी है। हिंदी साहित्य में जब गजलों की रिवायत बंद है, नाज़ की गजलें उसे समृद्ध करती हैं।

(चांद तन्हा है: नाज़ बरेलवी; हजियापुर, आंबेडकर नगर, बरेली; 90 रुपए)