सबसे मनोरंजक दृश्य तब दिखते हैं, जब गरमी की इस तपन में कोई नामी-गिरामी नेता वोट खींचने की खातिर साक्षात जनता के बीच जाता है। इस सप्ताह ऐसे तीन दृश्य दिखे। एक दृश्य में हेमा मालिनी मथुरा के पास के एक गांव के गेहूं के एक खेत में जाकर गेहूं की बालें काटती दिखीं! साथ में उनके समर्थक-सहायक खड़े रहे! बड़ी मेहनत से उन्होंने एक हंसिया से गेहूं की कुछ बालें काटीं। फिर एक हाथ में कुछ बालें और दूसरे में हंसिया लिए जब उन्होंने कैमरे के आगे गेहूं काटने वाली का ‘पोज’ दिया, तो हमें तो ‘मदर इंडिया’ की नरगिस की तरह नजर आईं! चुनाव जो न कराए थोड़ा! जनता से ‘जुड़ने’ के लिए नेताओं को क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते! चाहे कुछ देर के लिए सही, ‘वोट’ की खातिर बड़े-बड़े सितारों को जमीन पर उतरना पड़ता है!
ऐसी ही चिलचिलाती गरमी में प्रियंका गांधी ने एक रोड शो गाजियाबाद में दिया! अच्छी भीड़ जुटी दिखी। गाड़ी रूपी रथ के ऊपर खड़ी प्रियंका गांधी सड़क के आजू-बाजू खड़ी जनता का हाथ जोड़ और मुस्करा कर अभिनंदन करती आशीर्वाद लेती दिखती थीं। एक चौराहे पर तो वे लोगों के सवालों का जवाब वहीं की वहीं देने लगीं। लोग बीच-बीच में टोकते जाते थे, लेकिन वे बिना रुके जवाब देती जाती थीं! साथ में प्रत्याशी डॉली शर्मा सबको नमन करती दिखती थीं।
तीसरा शो दिया जयाप्रदा ने! वे अपने समर्थकों के साथ एक मंच से रैली को संबोधित कर रही थीं। एकदम साफ-सुथरी हिंदी में उन्होंने बताया कि जब वे सांसद थीं, तो उन्होंने रामपुर की जनता के कितने काम किए। उसके बाद उन्होंने अपना पल्लू आगे कर जनता से वोट का आशीर्वाद भी मांगा! अगर आजू-बाजू समर्थकों का हो-हल्ला न होता, तो सीन और भी ‘पिक्चर परफेक्ट’ होता! लेकिन, चुनावों के मौसम में ‘अनुमान की राजनीति’ सड़क की राजनीति से हर हाल में अधिक दिलचस्प होती है। आप चैनलों के स्टूडियो के वातानुकूलित वातावरण में बैठ कर एक से एक मनपसंद आंकड़े उछाल सकते हैं और उनको उचित ठहराने वाले तर्क जुटा सकते हैं। सड़क की गरमी और शोर-शराबे से मुक्त स्टूडियों में एकदम ‘अविवारित रमणीय’ का-सा मजा मिलता है। कई चैनल, उनके एंकर-रिपोर्टर और चुनाव विश्लेषक चुनाव परिणामों के बारे में अपने-अपने अनुमानों को बेहद सावधानी के साथ प्रस्तुत करते दिखते हैं, उनके लिए जरूरी तर्क जुटाते हैं, आंकड़ों का विश्लेषण करते दिखते हैं! ऐसे कार्यक्रम देख कर हमें तो ‘मनमोदक’ खाने जैसा मजा आता है! जब तक परिणाम नहीं आते, तब तक जितना बड़ा लड्डू चाहो, बनाओ और खाओ-खिलाओ! नो टैक्स!
एक शाम एनडीटीवी पर गहन विचार चल रहा था कि आने वाले दिनों में किसको कितनी सीटें मिलने वाली हैं? कांग्रेस के प्रवक्ता रोहन गुप्ता कहते हैं कि कांग्रेस को इस बार एक सौ अस्सी सीटें मिलने वाली हैं। स्मिता गुप्ता कहती हैं कि भाजपा को एक सौ अस्सी से दो सौ तक मिल सकती हैं, लेकिन जेडीयू के अजय आलोक कहते हैं कि एनडीए को साढ़े तीन सौ सीटें मिलनी हैं। सबका अपना-अपना अनुमान है। सबके अपने-अपने ‘मनमोदक’!
‘जनता के मूड’ को इन दिनों सब जानना चाहते हैं और अपनी जनता है कि दिल की बात कभी बताती ही नहीं। उसके मूड को टटोलने के लिए चैनल तरह-तरह की कवायद करते हैं।
कुछ हिंदी चैनल संसदीय क्षेत्रों में जाकर दलों, स्थानीय प्रतिनिधियों और ‘जनता’ को जुटा कर प्रतिक्रियाओं को लाइव दिखाते हैं, ताकि बता सकें कि अमुक शहर की जनता का मूड किधर है?
ऐसे शो अक्सर शोर-शराबे और तू-तू मैं-मैं में निपट जाते हैं। एंकरों का अधिकतर समय लोगों को ‘शांत’ करने में निकल जाता है। यहां कोई किसी से हारता नजर नहीं आता।
लेकिन इंडिया टुडे का ‘स्टॉक एक्सचेज’ आंकड़ों के बिना बात नहीं करता। इस बार का प्रसारित ‘ट्रेकर’ करीब पौने दो लाख लोगों के साथ ‘फोन’ पर ‘जनमत संग्रह’ से बना था।
यों फोन से डाटा लेना एक बात है, व्यक्ति से आमने-सामने बात करना दूसरी बात, फिर भी फोन से लिया यह नया डाटा भी कम दिलचस्प न था!
नए ‘ट्रेकर’ ने बताया कि बालाकोट का मुद्दा अब बहुत कम प्रतिशत लोागों के लिए बड़ा मुद्दा रह गया है। उसके बरक्स रोजगार और विकास के मुद्दे ही प्रमुख हो गए हैं!
मगर लोकप्रियता के आंकड़े बताते हैं कि तिरपन प्रतिशत लोग पीएम को ही दोबारा पीएम के रूप में चाहते हैं, जबकि विपक्ष के नेता राहुल को पसंद करने वाले पैंतीस प्रतिशत हैं! दक्षिण में राहुल अधिक लोकप्रिय हैं, जबकि उत्तर में लोकप्रियता की दृष्टि से पीएम बहुत आगे हैं। यही सर्वे अगर फोन पर न होकर आमने-सामने किया जाता तो आंकड़े कुछ और अधिक भरोसेमंद होते। कारण कि फोन पर बोलने वाले के दिल की बात सामने नहीं आती, जबकि आमने-सामने होने से किसी के दिल की बात छिप नहीं पाती। फिर एक सच तो कहता ही है यह ‘पोल ट्रेकर’! कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि राहुल, सोनिया, मनमोहन, चिदंबरम आदि सभी बड़े-बड़े नेताओं की उपस्थिति में रिलीज किया गया लंबा-चौड़ा घोषणापत्र भी कोई धमाकेदार खबर न बना सका। हां, उसका शीर्षक ‘हम निभाएंगे’ जरूर कुछ काव्यात्मक नजर आया! एकदम एनजीओ छाप ठाठ! हमें तो इसमें पुराने गीत ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’ और फैज के ‘हम देखेंगे’ के रिमिक्स का मजा मिला!

